संसकृत सीखें
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यन्त्राधिगम
इस पुस्तक में मैं सरल उदाररणों द्वारा संस्कृत की समझ बढाने का प्रयत्न करुँगा । संस्कृत में थोड़ा थोड़ा समझने के लिये पहले शास्त्रों मे से लिये गये शब्दों, श्लोकों को थोड़ा थोड़ा समझना एक उत्तम तरीका है ।
नींचे दिए गए चल चित्रफलक के माध्यम से आप हमारी एनिमेटेड़ चलचित्र देखकर संस्कृत लिखना और बोलना आसानी से सीख सकते हैं हम आपके लिए प्रशिद्ध संस्कृत कहानियों और प्रचलित कथाओं एवं सरलता से संस्कृत सीखने का सरलतम तरीका उपलब्ध करा रहें हैं।
विशेषतः सनातन धर्मालंबियो को संस्कृत न आना तो शर्म की बात है जिनके सभी ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए हों जिनकी मातृभाषा संस्कृत होनी चाहिए उनके लिए बेहद दुर्भाग्य पूर्ण समय है की संस्कृत बोलना पढना तो दूर वो संस्कृत समझने में भी असमर्थ हैं और एक विदेशी भाषा अंग्रेजी के गुलाम होकर बैठें हैं , अतः हम इसी समस्या को देखते हुए 2012 से लगातार आपको संस्कृत के लिए सरलतम् माध्यम उपलब्ध कराने के लिए प्रतिबद्ध हैं । और हमारे संगठन एक ही लक्ष्य है संस्कृत को जन भाषा बनाना और जन जन तक संस्कृत पहुंचाना और वैदिक शिक्षा के महत्व को पुनः स्थापित करके भारत को विश्वगुरू बनाना
आप इस लेख को अधिकतम शेयर करें और सभी ऐसे लोगों तक पहुचाएं जो संस्कृत नहीं जानते और जानना चाहते हैं।अव्यय
इन शब्दों के रूप बदलते नहीं हैं । इसलिये इन्हें अव्यय कहा जाता है
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सर्वत्र - सब जगह
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कुत्र - कहाँ
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अद्य - आज
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ह्यः - कल (बीता हूआ)
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श्वः - कल (आने वाला)
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परश्वः - परसों
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अत्र - यहाँ
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तत्र - वहाँ
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यथा - जैसे
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तथा - तैसे
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एवम् - ऐसे
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कथम् - कैसे
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सदा - हमेशा
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कदा - कब
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यदा - जब
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तदा - तब
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अधुना - अब
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अधुनैव - अभी
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कदापि - कभीभी (नहीं के साथ)
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पुनः - फिर
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च - और
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न - नहीं
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हि - ही
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वा - या
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अथवा - या
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अपि - भी
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तु - लेकिन (तो)
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शीघ्रम् - जल्दी
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शनैः - धीरे धीरे
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धिक् - धिक्कार
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प्रति - ओर
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विना - बिना
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सह - साथ
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कुतः - कहाँ से
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नमः - नमस्कार
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स्वस्ति - कल्याण हो
लट् लकार
लट् लकार वर्तमान को कहते हैं । ये सब लकार verbs को बदलने के लिये प्रयोग किये जाते हैं ।
जैसे भू धातु है । जिसका मतलब है 'होना' तो अगर हमें वर्तमान में इसका प्रयोग करना है, तो हम लट् लकार का प्रयोग करते हैं । लकार है कि धातु में क्या बदलाव आयेगा । उसका क्या भाव होगा।
भू (लट्लकार मतलब वर्तमान काल)प्रथम (अन्य) पुरुष : भवति - भवतः - भवन्ति
मध्यम पुरुष : भवसि - भवथः - भवथ
उत्तम पुरुष : भवामि - भवावः - भवामः
प्रथम पुरुष होता है कोई तीसरा (अन्य) आदमी । मध्यम पुरुष है 'तुम, आप, तुम लोग आदि' । उत्तम पुरुष मतलब 'मैं, हम सब' ।तो एक संख्या के लिये भवति (प्रथम पुरुष), भवसि (मध्यम पुरुष) और भवामि (उत्तम पुरुष) प्रयोग होगा । उसी तरह दो संख्याओं के लिये भवतः भवथः भवावः, और दो से अधिक संख्याओं के लिये भवन्ति, भवथ, भवामः का प्रयोग होगा ।
जैसे
अहम् पठामि (मैं पढ रहा हूँ । )
अहम् खादामि (मैं खा रहा हूँ )
अहम् वदामि । (मैं बोल रहा हूँ)
त्वम गच्छसि । (तुम जा रहे हो)
सः पठति (वह पढता है)
तौ पठतः (वे दोनो पढते हैं)
ते पठन्ति (वे सब पढते हैं)
युवाम वदथः (तुम दोनो बताते हो )
युयम् वदथ (तुम सब बताते हो, बता रहे हो)
आवाम् क्षिपावः (हम दोनो फेंकते हैं)
वयं सत्यम् कथामः (हम-सब सत्य कहते हैं)
तो अगर अभी कुछ हो रहा है, उसे बताना है तो धातुयों को लट् लकार का रूप देते हैं ।
उसी प्रकार और भी कई लकार हैं ।
लोट् लकार
जैसे लट् वर्तमान काल या वर्तमान भाव बताने के लिये होता है, उसी प्रकार लोट् लकार होता है आज्ञार्थक भाव बताने या आज्ञा देने के लिये अथवा आदेश देने के लिए ।
आज्ञा देना, या याचना करने के लिये या आज्ञा लेने के लिये भी ।
जैसे
भवतु भवताम् भवन्तु
भव भवतम् भवत
भवानि भवाव भवाम
(आप को याद होगा श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान् अर्जुन को कहते हैं 'योगी भव अर्जुन')
Some Shlokas and Random Stuff for learning Sanskrit
ॐ नमः भगवते वासुदेवाय - भगवान वासुदेव को मैं नमस्कार करता हूं ।-
येषां न विद्या, न तपो, न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
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ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।
जो विद्या के लिये प्रयत्न नहीं करते, न तप करते हैं, न दान देते हैं, न ज्ञान के लिये यत्न करते हैं, न शील हैं और न ही जिनमें और कोई गुण हैं, न धर्म है (सही आचरण है), ऍसे लोग मृत्युलोक में इस धरती पर बोझ ही हैं, मनुष्य रुप में वे वास्तव में जानवर ही हैं ।
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पिता रत्नाकरो यस्य, लक्ष्मीर्यस्य सहोदरी ।
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शङ्खो भिक्षाटनं कुर्यात्, फलं भाग्यानुसारतः ।।
रत्नकरो - रत्न करः - सागर
सहोदरी - सह + उदर (गर्भ योनि)
भिक्षाटनं - भिक्षा + अटन (विचरना)
पिता जिसका सागर है, और लक्ष्मी जिसकी बहन है (यहाँ शंख की बात हो रही है, जो सागर से उत्पन्न होता है, और क्योंकि लक्ष्मी जी सागर मंथन में जल से प्रकट हुईं थीं, इसलिये वो उसकी बहन हैं) । वह शंख भिक्षा माँगता सडकों पर भटक रहा है । देखिये! फल भाग्य के अनुसार ही मिलते हैं ।
अस्मद् (मम):
अर्थ
एकवचन
द्विवचन
बहुवचन
मैं, हम
अहम
आवाम्
वयम्
मुझे, हमें
माम्
आवाम्
अस्मान्
मेरे द्वारा, हमारे द्वारा, साथ
मया
आवाभ्याम्
अस्माभिः
लिये
मह्यम्
आवाभ्याम्
अस्मभ्यम्
मुझ से, हमसे
मत्
आवाभ्याम्
अस्मत्
मेरा, हमारा
मम
आवयोः
अस्माकम्
मुझ में, हम में
मयि
आवयोः
अस्मासु
युष्माद् (तुम):
अर्थ
एकवचन
द्विवचन
बहुवचन
तुम
त्वम्
युवाम्
यूयम्
तुम्हें
त्वाम्
युवाम्
युष्मान्
तुम्हारे द्वारा, साथ
त्वया
युवाभ्याम्
युष्माभिः
लिये
तुभ्यम्
युवाभ्याम्
युष्मभ्यम्
तुम से
त्वत्
युवाभ्याम्
युष्मत्
तुम्हारा
तव
युवयोः
युष्माकम्
तुम में
त्वयि
युवयोः
युष्मासु
पुरुषः एक - कः, कम्, केन कस्मै कस्मात् कस्य कस्मिन् दो - कौ कौ काभ्याम् काभ्याम् कयोः कयोः बहु - के कान् कैः केभ्यः केभ्यः केषाम् केषु स्त्री लिंगः एक - का काम् कया कस्यै कस्याः कस्याः कस्याम् दो - के के काभ्याम् काभ्याम् काभ्याम् कयोः कयोः बहु - काः काः काभिः काभ्यः काभ्यः कासाम् कासु पुरुषः एक - यः यम् येन यस्मै यस्मात् यस्य यस्मिन् दो - यौ यौ साभ्याम् याभ्याम् याभ्याम् ययोः ययोः बहु - ये यान् यैः येभ्यः येभ्यः येषाम् येषु स्त्री लिंग : या याम् यया यस्यै यस्याः यस्याः यस्याम् ये ये याभ्याम् याभ्याम् याभ्याम् ययोः ययोः याः याः याभिः याभ्यः याभ्यः यासाम् यासु
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उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्य मरणं तृणम् ।
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विरक्तस्य तृणं भार्या निःस्पृहस्य तृणं जगत् ।।
उदार मुनुष्य के लिये धन घास के बराबर है । शूर के लिये मृत्यु घार बराबर है । जो विरक्त हो चुका हो (स्नेह हीन हो चुका हो) उसके लिये उसकी पत्नी का कोई महत्व नहीं रहता (घास बराबर) । और जो इच्छा और स्पृह से दूर है, उसके लिये तो यह संपूर्ण जगत ही घास बराबर, मूल्यहीन है ।
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आरभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचै:
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प्रारभ्य विघ्नविहता विरमंति मध्या:
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विघ्नै: पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना:
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प्रारभ्य चोत्तमजना: न परित्यजंति
विघ्न (रस्ते की रुकावटों) के भय से जो कर्म को आरम्भ ही नहीं करते हैं, वे नीचे हैं । लेकिन जो आरम्भ करने पर विघ्नों के आने पर उसे बीच में छोड देते हैं, वे मध्य में हैं (थोडे बेहतर हैं) । बार बार विघ्नों की मार सहते हुए भी, जो आरम्भ किये काम को नहीं त्यागते, वे जन उत्तम हैं ।
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सहसा विदधीत न क्रियां अविवेक: परमापदां पदम्
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वृणुते हि विमृशकारिणं गुणलुब्धा: स्वयमेव संपद:
एकदम से (बिना सोचे समझे) कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये, क्योंकि अविवेक (विवेक हिनता) परम आपदा (मुसीबत) का पद है । जो सोचते समझते हैं, गुणों की ही तरह, संपत्ति भी उनके पास अपने आप आ जाती है ।
सहस्र - हजार । पूतात्मा - पूत +आत्मा - शुद्ध आत्मा (भगवान का नाम) परमात्मा - परम आत्मा विश्वात्मा - विश्व आत्मा अरवान्दाक्ष - अरवान्द +अक्ष - कमल जैसी आँखों वाले । कमल के फूल को पद्म, कमल, अरविन्द, अब्ज, पंक्ज आदि कहा जाता है । आखों को चक्षु, नेत्र, नयन, दृष्टि आदि कहा जाता है। सहस्राक्ष - सहस्र (हजार) अक्ष - हजारों आँखों वाले साक्षी (भगवान का ही नाम है) - जो साथ में देखता है (स अक्षि) नारसिंहवपु - नर और सिंह के रुप वाले (भगवान नरसिंह अवतार) (वपु होता है रुप) अमृतवपु अनिर्देश्यवपु - जिनके रुप को बताया नहीं जा सकता सुरेश - सुरों का ईश अमोघ - मोघ रहित अनघो - पाप रहित सर्वेश्वर - सर्व + ईश्वर - सबके ईश्वर आदिदेव -आदि देव - सबसे पहले जो केवल एक देव ही थे, सबके आदि विद् - जानना वेदविद् - वेदों को जानने वाले धर्मविदुत्तम - उत्तम धर्म को जानने वाले '''श्लोक:''' :इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः । :नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ॥ १ ॥ :य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् । :नाशुभं प्राप्नुयात्किंचित्सोऽमुत्रेह च मानवः ॥ २ ॥ - इस प्रकार श्री केशव महात्मा का उनके अशेष सहस्र दिव्य नामों द्वारा उनकी प्रकीर्ति (यश, कीर्ति) का गुणगान किया गया है । जो इन्हें नित्य सुनता (शृणुत्य) है या स्वयं परिकीर्तन करता है वह मानव कभी भी अशुभ नहीं प्राप्त करता - न यहाँ न कहीं और । यह श्लोक श्री विष्णु सहस्रनाम में पाया जाता है (महाभारत में) । भाष्म पितामहः ने युधिष्ठिर को भगवान व्यास जी द्वारा कहे भगवान हरि के सहस्र नामों को बताने के बाद उन्हें (युधिष्ठिर को) यह कहा था ।
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