पुस्तक-परिचय


कर्मयोगी डाक्टर हेडगेवार की जीवन-गाथा

पारसमणि

पुस्तक-परिचय

पुस्तक का नाम : पारसमणि

लेखक : शुभांगी भडभडे

मूल्य : 300 रुपए

पृष्ठ : 343

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन

4/19, आसफ अली रोड,

नई दिल्ली-110002

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य प्रणेता डा. केशव बलीराम हेडगेवार ऐसा पारस थे कि उनके सम्पर्क में, सान्निध्य में आने वाले लोग राष्ट्रनिष्ठ सच्चरित्र व्यक्ति रूपी सोना बन जाते थे। वर्ष 1925 में विजयादशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रूपी जो पौधा उन्होंने रोपा था, वह विशालतम होता चला जा रहा है और आज अक्षय वट सदृश्य हमारे सम्मुख है और समाजोत्थान में लगा हुआ है। 1925 में संघ की स्थापना के बाद वर्ष 1940 तक के पंद्रह वर्षों के अल्प समय में पूजनीय डाक्टर जी ने जिस गति से कार्य किया, वह आज संघ-नींव का पत्थर सिद्ध हुआ है। संघ कार्य हेतु वे जहां भी उपस्थित होते, लोगों में अपूर्व उल्लास छा जाता। राष्ट्र-सेवार्थ लोग समर्पण भाव से उनके साथ जुड़ जाते। इस प्रकार संघ कार्य बढ़ता चला गया-अर्थात् पारस के स्पर्श से हर धातु सोना बनती चली गई। "पारसमणि' आद्य सरसंघचालक डाक्टर हेडगेवार जी की जीवनगाथा है। "कृतार्थ' शीर्षक से यह उपन्यास मराठी की प्रसिद्ध उपन्यासकार शुभांगी भडभडे ने मूलत: मराठी में लिखा था। "पारसमणि' इसका हिन्दी अनुवाद है। अनुवाद का यह महती कार्य हेमा जावडेकर ने किया।

इससे पहले शुभांगी भडभडे ग्यारह ऐसी ही महान विभूतियों के जीवन पर आधारित उपन्यासों की रचना कर चुकी हैं। पूजनीय डाक्टर जी के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर लेखिका ने औपन्यासिक शैली में इस प्रकार प्रभावी एवं रोचक ढंग से प्रकाश डाला है कि उपन्यास पढ़ते हुए इस ऋषि तुल्य जीवन के स्वामी, संघ मंत्र के उद्गाता कर्मयोगी के व्यक्तित्व की विराटता के दर्शन होते हैं। इस अंक से हम "पारसमणि' उपन्यास के अंशों का प्रकाशन कर रहे हैं।-सं.

दोपहर की बेला धीरे-धीरे नीचे उतरकर थोड़ी देर के लिए आंगन में सुस्ताई, फिर तेज गति के साथ सांध्य छाया बनकर के नीचे उतर गई। हाथ में चावल की थाली लिए रेवतीबाई बरामदे में बैठी थी। उसका पूरा ध्यान आंगन के दरवाजे की ओर लगा हुआ था। शरयू-राजू आंगन में करंजे खेल रही थीं। उनका भी ध्यान दरवाजे की ओर ही था। महादेव ऊपर अटारी पर था। केशव मां के पास बैठा था।

आशीर्वाद

"पारसमणि' उपन्यास के मूल मराठी रूप "कृतार्थ' के प्रकाशन के समय 10 अप्रैल, 1989 को तत्कालीन सरसंघचालक श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस ने उपन्यास के सम्बंध में जो मनोभाव व्यक्त किए, उन्हें हम यहां यथावत् साभार प्रकाशित कर रहे हैं।

आद्य प्रणेता डा. केशव बलीराम हेडगेवार की जन्म-शताब्दी के वर्ष में सम्पूर्ण देश में सर्वत्र उनकी स्मृति उज्जवल करने के लिए विविध माध्यमों से अनेक उपक्रम सहज स्फूर्त भावना से मनाए जा रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी कुछ उपक्रम होना स्वाभाविक है। ललित साहित्य में उपन्यास एक बड़ा प्रभावी माध्यम है। परम पूजनीय डाक्टर साहब के जीवन पर "कृतार्थ' नामक उपन्यास लिखने का एक साहसी उपक्रम नागपुर की एक प्रसिद्ध लेखिका सुश्री शुभांगी भडभडे ने संघ विषयक आंतरिक आस्था से किया है। डाक्टर साहब के जो प्रसिद्धि पराङ्मुखता के लिए प्रसिद्ध है, जीवन पर इस प्रकार की ललित कृति की रचना करते समय लेखिका को अपनी कल्पनाशक्ति तथा प्रतिभा को बहुत खींचना पड़ा, यह स्वाभाविक ही है।

सुश्री शुभांगी भडभडे के इस साहसपूर्ण उपक्रम के लिए उन्हें हार्दिक बधाई देते हुए उनके "कृतार्थ' उपन्यास को मैं हृदय से आशीर्वाद देता हूं। - म.द. देवरस

"मां, बाबूजी अभी तक नहीं आए।' चिंता की एक लहर प्रवाहित हो गई। हाथ में करंजे थामे दोनों मां की ओर ही देख रही थीं। अकुलाई सी उदास संध्या रेवती की आंखों में समाई।

"मां री!' केशव ने उसका आंचल थामा।

"अरे, अभी आएंगे तुम्हारे बाबूजी। जाओ, तनिक खेल आओ।'

किन्तु केशव यूं ही बैठा रहा। पिछले आठ दिनों से यही अशांति उसे सता रही थी। आठ दिन पहले बलीरामजी प्रात:कालीन संध्या से निवृत्त हो ही रहे थे कि उनको किसी ने आवाज दी।

"चाचाजी, न्योता...' कहते हुए सदाशिव भीतर आया।

"कैसा न्योता, सदाशिव?'

"कुलकर्णी चाचा नहीं रहे। उनकी अंत्येष्टि के लिए...'

"क्या कहा, कुलकर्णी चल बसे? अरे मूरख, तुम मुझे उसका न्योता अब दे रहे हो! वह भी बड़ी खुशी से! कैसे गए? अरे निगोड़े क्या शर्म-हया ताक पर रख दी है? हम दोनों में कभी तू-तू, मैं-मैं हुई होगी, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि मौत उन्हें उठा ले। सदाशिव! अरे, मनुष्य होने के नाते लड़ाई-झगड़े, प्यार-व्यार तो होता ही है। वैसे तो मैं हूं बड़ा गुस्सैल, लेकिन किसी के प्रति मन में क्रोध या मैल नहीं रखता। कुलकर्णी को क्या हुआ था रे?'

"सुना है, प्लेग का चूहा गिरा था। सुनने में तो यह भी आया है कि गांव में पहले ही इस तरह की चार-छह घटनाएं हो चुकी हैं।'

"सच?'

"झूठ क्यों बोलूं, चाचाजी? मैंने तो यह भी सुना है कि कुछ परिवार भयभीत होकर गांव छोड़कर जा रहे हैं।'

बलीराम बाबू चुप रहे। उन्हें यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगा कि किसी की मौत होने पर वे इत्मीनान से गपशप करते रहें। उन्होंने चलने से पहले कंधे पर अंगोछा डाला और सर पर टोपी रखी; लेकिन फिर से उसे उतारकर खूंटी पर टांग दिया और नंगे पैर ही बाहर निकल पड़े। उस दिन बड़े उदास, अनमने से होकर ही वे घर लौटे। महादेव ने उनके लिए कुंए से पांच-छह बाल्टी पानी निकाला। बलीराम बाबू, जो प्रतिदिन दस बार स्नान करने पर भी बिना भूले अथर्वशीर्ष का पाठ करते, आज मौन थे।

"आज घाट पर प्लेग से दस-बारह लोगों की मौत देखी और मन अशांत हो गया। भई, नागपुर है कितना बड़ा! अब सुना है, कुछ और परिवार बस्ती छोड़कर जा रहे हैं। रातोंरात प्लेग की छुतहा बीमारी कैसी लगी?'

"आज या कल सब खाते-पीते परिवार बस्ती छोड़कर चले जाएंगे। यहां रहने वाले गरीब परिवार भला किसके सहारे जिएंगे? यदि सारा नागपुर शहर उजड़ गया तो हम भी जाएंगे। गांव छोड़ना मुझे तब तक अच्छा नहीं लगता जब तक यहां लोग रह रहे हैं।'

"तुम बस इतना ही करो कि घरबार साफ-सुथरा रखो। यदि कोई मरा हुआ चूहा मिले तो उसे तुरंत बाहर दूर फेंक आओ। दिन में दो बार गोबर से घर की लिपाई-पुताई करो। सब ठीक हो जाएगा।'

उसके पश्चात् आठ दिनों तक ऐसा ही चलता रहा था। रेवती को चिंता दीमक की तरह चाट रही थी। हर रोज लगभग दो-तीन सौ आदमी दम तोड़ रहे थे, जैसे कड़ी गरमी में चिड़ियां फटाफट मरती हैं। बलीराम सवेरे से देर रात तक कंधा देने भागते। दिन में घर लौटने का कोई निश्चित समय न था। ठंडे पानी की पांच-छह बालटियां सिर पर उड़ेलते और बरामदे में खंभे के पास बैठे रहते-गुमसुम से, चुपचाप। उनके शब्द जैसे खो गए थे।

आज मुंहअंधेरे निकले बलीराम बाबू संध्या होने पर भी घर नहीं लौटे थे। बेचारी रेवती आंखें बिछाए उनकी प्रतीक्षा कर रही थी।

"मां!' केशव का भावाकुल स्वर रेवती का कलेजा चीरता हुआ भीतर पहुंचा।

"अरे, आ जाएंगे।' उसने आंचल से आंखें पोंछीं। बलीराम बाबू बड़ी कठिनाई के साथ एक-एक कदम उठाते हुए आ रहे थे, जैसे सौ-सौ मन की बेड़ियां उनके पैरों में पड़ी हों।

महादेव ऊपर से चिल्लाया, "मां, बाबूजी आ गए।'

तभी बलीराम बाबू द्वार की चौखट तक आ गए और वह कठिनाई के साथ खड़े रहे।

"महादेव, मेरे बदन पर पानी डालो।'

वे दरवाजे के पास ही धम्म से बैठ गए थके-थके, बुझे-बुझे से। सब लोग बरामदे में आ गए। अपने बाबूजी की अवस्था देखकर केशव की आंखें बार-बार भर आती थीं। उनके पैरों में सूजन आ गई थी और छाले पड़कर उनमें से खून की बूंदें टपक रही थीं। शिखा की गांठ खुल गई थी। उत्तरीय खिसककर कहीं गिर गया था। महादेव रस्सी-बालटी थामे कुएं के पास खड़ा रहा। बलीराम बाबू ने बरगद की ओर देखा। चिड़ियां जोर-जोर से चहचहा रही थीं। संध्या के पग भारी हो गए थे। अन्य दिनों इस बरगद के नीचे बच्चों का कितना शोरगुल रहता था, लेकिन आज वहां एकदम सन्नाटा था। उन्होंने ठंडी आह भरी और चौखट पकड़कर उठ खड़े हुए।

रात के समय वे जंगले को पकड़कर खड़े थे। रेवती धीरे से उनके पीछे आकर खड़ी रही। बदली में छिपा चांद बाहर निकलकर एक हलके भूरे बादल के पीछे चला गया। मटमैली सी चांदनी हल्के-हल्के रिस रही थी।

"सोना नहीं है क्या आज?'

उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। रेवती के साथ केशव भी था।

"चार-छह घरों में रोशनी है, बाकी सारे घर अंधेरे की खाई में।'

"नई बस्ती में गए होंगे।'

"नहीं-नहीं! हमेशा-हमेशा की बस्ती में चले गए।'

"ईश-प्रकोप और क्या!' रेवती ने कहा।

"क्यों नहीं होगा भगवान् का प्रकोप! आज इस फिरंगी वातावरण ने भगवान् को भी ताक पर रख दिया है। भगवान् की पूजा-अर्चना करने के लिए किसी को जरा भी फुरसत नहीं, पर इन गोरी चमड़ीवालों के तलवे चाटने के लिए सबके पास समय-ही-समय है। ऐसा तो होना ही था। आज मनुष्य मनुष्य को पूछता तक नहीं। स्वार्थी प्रवृत्तियों की जैसे बाढ़ आ गई है। भई, मेरा सब कुछ सही-सलामत रहे, भले ही पड़ोसी के घर में आग क्यों न लगे-यही स्थिति है। कल से मैं अकेला ही लाशें ढो रहा हूं अपने कंधों पर। उन्हें अग्नि दे रहा हूं। मृतकों की संख्या बढ़ रही है। क्या कहूं! ऐसा लगता है मानो नियति का यह खेल कभी खत्म ही नहीं होगा? मौत का यह भीषण तांडव क्या कभी शांत नहीं होगा?'

"तो फिर ये फिरंगियों के डाक्टर क्यों नहीं कुछ करते?'

"हां, हां! करते क्यों नहीं? आग में घी डालने का काम अवश्य करते हैं। हम भारतीयों की खामियों और दुर्गुणों को खोजकर उन्हें उछालते हैं। जख्मों पर मरहम लगाना तो दूर, उन पर नमक छिड़कते हैं। हमारी खाल उधेड़ने का काम करते हैं। आग पर पानी नहीं डालते, घी डालते हैं जालिम! मेरे तो तलवों में आग लग गई है।' बलीराम बाबू गुस्से से कांप रहे थे।

अंग्रेजों के खिलाफ सख्त विरोध प्रदर्शित करने का एक भी अवसर वे कभी हाथ से जाने नहीं देते थे। केशव को अपने पास खींचकर वे भुनभुनाते रहते, "बेटा केशव, इस कलियुग में जो अनर्थ हो रहा है, वह देखा नहीं जाता रे! मुझे यह स्वीकार नहीं कि अभी कल -परसों ही आए हुए ये आगंतुक हम पर शासन करें और हम भी भेड़-बकरियों की तरह विवश होकर उन्हें अपनी गरदन मरोड़ने दें। अरे, यह ठीक है कि हम सौजन्यपूर्ण व्यवहार वाले हैं, पर आतिथ्य का इतना अतिरेक क्यों करें कि कोई भी ऐरा-गैरा आए और हम पर हुकूमत करे! शक-हूण आए, मुसलमान आए, अंग्रेज आए-क्या यह उचित है? कभी-कभी ऐसा लगता है कि अमूर्त ई·श्वर मूर्त बने, प्रकट होकर दसों दिशाओं से इन दुष्टों पर टूट पड़े।'

आज भी इसी कारणवश उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया था। मृतकों का दाह-संस्कार करते समय एक गोरे सिपाही ने व्यंग्य कसा था, "अरे भई, इतने लोगों को अग्नि कैसे दोगे? अरे बम्मन, इन्हें फेंक दो कहीं दूर। नदी में फेंक दो।'

इस नीच के मुंह क्या लगना, इस विचार से वह चुप रहे; लेकिन उनका खून खौल रहा था।

दिन भर की भारी थकान उनकी आंखों में थी। रेवती बेटे केशव के पास आराम से सोई थी। उसने एक हाथ से केशव को लपेट रखा था। लालटेन की धुंधली रोशनी उसके गोरे बदन पर बिखरी हुई थी। उसके आंचल में दो गांठें थीं। बलीराम बाबू तड़प उठे। मृत्यु के विराट् दर्शन से आज उनका मन बड़ा भावुक हो उठा था।... (क्रमश:)

आधी रात होने को आई थी, किन्तु उनकी आंखों से नींद गायब थी? थकान से उनके अंजर-पंजर ढीले पड़ गए थे। हालांकि नींद की उन्हें बहुत जरूरत थी। उन्होंने बाईं ओर करवट ली और पूरे कमरे में छनकर आती चांदनी उन्होंने देखी। अपनी टूटी-फूटी कुटिया पर भी सुंदरता बिखेरती चांदनी देखकर उन्हें रेवती का स्मरण हो आया। इसी तरह शीतल चांदनी सींचती हुई वह हेडगेवार परिवार में आई थी। किसी भी तरह की अड़चन अथवा समस्या की शिकन उसके चेहरे पर कभी नहीं उभरी थी, न ही शब्दों में प्रकट हुई थी।...

जो आमदनी व प्रतिष्ठा बलीराम बाबू को पहले मिलती थी, अब वह बंद हो गई। तिस पर छह बच्चों की जिम्मेदारी का बोझ! कंगाली में आटा गीला। लक्ष्मी ने साथ छोड़ा तो सरस्वती विवश, असहाय हो गई। बलीराम बाबू अपनी गृहस्थी के सारे धूमिल चित्र देख रहे थे। उनका क्रोध बढ़ रहा था। रेवती शांत थी। उसकी शांति भी बलीराम बाबू की क्रोधाग्नि में घी का काम करती।

वह उसे टोकते, "कैसे सहती हो तुम? क्यों नहीं धधक उठता तुम्हारा मन? भई, किस मिट्टी की बनी हो तुम? उस झांसी की रानी ने अपना नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखवाया और तुम हाथ पर हाथ धरे बैठी हो। कई महिलाओं के मन में असंतोष की ज्वाला धधक रही होगी। वे विरोध भी करती होगी। तुम एक शब्द से भी विरोध नहीं करतीं उसका। तुम्हें कुछ नहीं लगता? तुम पत्थर दिल हो? मैं मानता हूं, मुसलमान गोहत्या कर रहे हैं, इसलिए हम सूअरों की हत्या नहीं कर सकते। पर मन का डाह, कुढ़न मुखरित करने के लिए उतने ही जलते अंगारों के समान दाहक, तीखे और उग्र शब्द होने चाहिए न! अरी भागवान! बोलो, कुछ तो बोलो।'

बेचारी रेवती बांस की तरह थरथर कांपती हुई खड़ी रहती। उस दिन उन्हें रेवती से उत्तर अपेक्षित ही था। उसकी चुप्पी तोड़ने के लिए उनका अनुरोध बरकरार था।

नन्हे केशव का सहारा लेकर उसने कहा, "मेरा देश मेरे परिवार तक ही सीमित है। मेरे घर का आंगन ही मेरे लिए लक्ष्मण रेखा है। तुलसी के सामने दीप जलाना मेरे लिए संभव हुआ। बस इससे बढ़कर मुझे और क्या चाहिए जी! राजनीति से भला मेरा क्या लेना-देना!'

"अरी भागवान, यदि कोई देश में घुसपैठ करे तो क्या हमें हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहना चाहिए?'

"तो इसके लिए मैं क्या कर सकती हूं?' रेवती ने अपेक्षा से कुछ धीमे स्वर में कहा।

"यहीं तो मार खा रहे हैं हम। आज तुम्हारी तरह ही सब हिन्दुओं की मानसिकता बन चुकी है। यदि हर कोई अपना ही कदम बचाना चाहेगा तो पड़ोस के आंगन से हमारा रिश्ता ही कहां रह जाएगा!'

"मुझे क्या करना चाहिए, आप ही बताइए?'

"क्या करना चाहिए! क्या करना चाहिए माने कि...' वे अटक गए। भला उन्हें भी कहां पता था कि निश्चित रूप में क्या करना चाहिए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि देश में घुसे चले आ रहे घुसपैठियों के देश-विरोधी आचरण से कैसे निबटा जाए तथा उन्हें निकाल बाहर कैसे किया जाए। मंगल पांडे, वासुदेव बलवंत फड़के आदि देश के लिए शहीद हो गए थे; परंतु ऐसे क्रांतिकारी सब जगह कहां मिलेंगे? साधारणजन अपने पारिवारिक आनंद में ही मग्न रहना पसंद करते हैं। वे अपनी ही खाल में रहते हैं। इसलिए क्या हर कोई अपने ही परिवार की रक्षा की चिंता करे? इस देश से हमारा कुछ भी ऋणानुबंध अथवा भावनात्मक सम्बंध नहीं? देश की स्वाधीनता में किसी का भी सहयोग नहीं? जन्म लेना, जीना और मरना-बस, क्या यही है जीवन की सार्थकता? यही है जीवन की इतिश्री? निरंतर हो रहे अंग्रेजों के अत्याचार भारतवासी कहां तक झेलें?

हिन्दुस्तान में अंग्रेज शासन क्यों करें? उन्हें दूसरों की जमीन पर अतिक्रमण का अधिकार किसने दिया? अपने ही देश में हम कारावास क्यों सहते हैं? बलीराम बाबू गहरी सोच में डूब गए।

रात का अंतिम प्रहर था। जीवन में घटित एक-एक घटना उनके चारों ओर घूमकर नाच रही थी। पैर सुन्न पड़ गए थे। पीड़ा से छटपटाते तलवों में खून जम गया था। नींद की आवश्यकता होते हुए भी वह कोसों दूर भाग गई थी। यद्यपि ऐसा कभी नहीं होता था कि उन्हें निद्रादेवी का अनुनय करना पड़ता। यदाकदा वह रूठ जाती तो वे श्री रामरक्षासतोत्र का पाठ आरंभ कर देते। आज भी वे यही करने लगे-

श्रीगणेशाय नम:

अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य

बुध कौशिक ऋषि:

श्रीसीतारामचन्द्रो देवता:।

पाठ करते-करते उनकी आंख लग गई और वे हमेशा की तरह गाढ़ी निद्रा में सो गए।

"दद्दा, बाबूजी गिर पड़े!' महादेव शास्त्री ने चौंककर कहा। उन्होंने सीताराम की सहायता से बलीराम बाबू को अंदर लाकर पलंग पर लिटाया और उनकी नाड़ी देखने लगे। रेवती को जैसे काठ मार गया था। केशव, सीताराम व शरयू को जैसे सांप सूंघ गया था। घर के सभी लोगों की अवस्था ठीक वैसी हो गई थी जैसे स्वच्छ आकाश पल भर में कृष्ण मेघों से स्याह पड़ जाता है।

"बाबूजी को तेज बुखार है।'

केशव बरामदे में ही खंभे के पास खड़ा था। बलीराम बाबू बोले "चलो मेरे साथ। अरे, आओ भी! अपने कंधों पर संस्कारों का बोझ मुझे रखने दो। परंतु पुत्र, मुझे बोझ मत समझना। संस्कारों का अपने लहू में आरोपण कर लेने पर वे बोझ नहीं लगते, कभी नहीं।'

बलीराम बाबू निर्विघ्न बोल रहे थे। उनका एक-एक शब्द गहराई से केशव के मन में जड़ पकड़ रहा था। निश्चित रूप से उन्हें अहसास हो चुका था कि वे प्लेग का शिकार बन चुके हैं।

"तुम सब मेरे जीवन में सुनहरे पल बनकर आ गए, पर मैं अभागा उन क्षणों को ग्रहण नहीं कर सका, न कुछ दे सका। बेटा केशव! फिर भी एक निष्ठुर पिता की तरह चिंता का भार तुझे सौंपकर जा रहा हूं। मेरे अनंत आशीर्वाद हैं तुम्हें।'

भोर हो गई, दोपहर ढलने लगी। देखते-देखते बात करते हुए बीच में ही अचानक वे रुक गए। किसी ने इस बात पर गौर नहीं किया। सभी लोग उनकी बात पूरी होने की प्रतीक्षा में ही थे कि उनके पंचप्राण अनंत की राह पर निकल पड़े।

केवल रेवती ने गौर किया था। वह रत्तीभर भी विचलित नहीं हुई। उसे दु:ख भी नहीं हुआ। अनंत के पथ पर निकली पति की आत्मा को वह देख रही थी। वह तो दृढ़प्रतिज्ञ थी कि उनके पीछे-पीछे चलना है, उनकी अनुगामिनी बनना है। वह चाहती थी कि अब क्षण मात्र का भी विलम्ब न हो; परंतु विलम्ब हो रहा था, इसीलिए वह अशांत हो रही थी।

"मां री!' कहते हुए केशव उसकी कमर से लिपट गया। केशव सिसक-सिसककर रो रहा था।

"बेटा केशव, मनुष्य के वियोग का दु:ख तो होता ही है। परंतु बाकी लोगों को वह कार्य पूरा करना पड़ता है जिसे जाने वला अधूरा छोड़कर बाकी लोगों को सौंपकर गया है। मौत कभी-न-कभी आएगी ही। बेटा, वैसे तो तुम्हारी उम्र छोटी है, लेकिन मानसिक रूप से तुम बहुत बड़े हो और उसी तरह बड़े बने रहो। दोनों ज्येष्ठ भ्राताओं का आदर करो। छोटों पर ही सर्वाधिक जिम्मेदारी होती है। सभी को संभालो! और क्या कहूं? समस्त शुभकामनाएं सभी के लिए हैं, परंतु आशीर्वाद केवल तुम्हारे लिए हैं। हां, केवल तुम्हारे लिए।'

अपनी बात समाप्त करके वह रुक गई, सदा-सदा के लिए। किसी की समझ में नहीं आया, क्या कहा जाए। ऐसी अवस्था हो गई जैसे आकाश फटकर धरती पर गिर गया हो। केवल केशव ही माता-पिता का एक-एक शब्द याद कर रहा था। क्षणार्ध में ही वह एक परिपक्व एवं वयस्क व्यक्ति बन गया। उसका बचपन पीछे छूट गया। माता-पिता के चरणों पर झुकते हुए उसने मन-ही मन कहा, "मां, तुमने अपनी इच्छाओं का भान कभी नहीं होने दिया। परंतु आज तुमने संकेत किया। उस संकेत का गूढ़ अर्थ जीवन में कभी-न-कभी निश्चित ही मेरी समझ में आएगा। और जिस क्षण मुझे वह अवगत होगा उसी क्षण मातृऋण से मैं मुक्त हो जाऊंगा, उऋण हो जाऊंगा।'

"मां, तुम्हारी इन सीधी-सादी बातों में गागर में सागर भरा हुआ है। तुम्हारे चले जाने के बाद आज अनजाने में ही मुझे उनका अहसास हो रहा है। हो सकता है, जाते-जाते तुम्हीं ने मेरे मन में मानवता का उद्रेक उत्पन्न किया होगा।'

"मां, तुम्हारे असीम त्याग, तुम्हारा प्रसन्न व्यक्तित्व, तुम्हारी सत्वशील मनोवृत्ति को मेरे शतश: प्रणाम! माते, शतश: प्रणाम! कोटि-कोटि प्रणाम!'

केशव खंभे के पास बैठा रहा, मां-बाबूजी सहयात्रा पर निकले थे। अश्रुपूर्ण नेत्रों से उनकी ओर देखकर उसने धीमे स्वर में कहा, "जाओ, निश्िंचत होकर जाओ।'

उसके बाद घुटनां में सिर छिपाकर वह बिलख-बिलखकर रोने लगा। (क्रमश:)