☉#उत्पत्तिप्रकरणम्☉

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--नवमः सर्गः--

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!!श्रीगुरुचरणकमलेभ्यो नमः!!

●श्रीराम उवाच●

अत्यन्ताभावसम्पत्त्या जगद् दृश्यस्य मुक्तता ।

ययोदेति मुने युक्त्यां ममोपदिशोत्तमाम्।।35।।

मिथः सम्पन्नयोर्द्रष्ट् दृश्ययोरेकसंख्ययोः।

द्वयाभावे स्थितिं याते निर्वाणमवशिष्यते।।36।।

दृश्यस्य जगतस्तस्मादत्यन्तासंभवो यथा।

ब्रह्मैवेत्थं स्वभावस्थं बुद्धयते वद मे तथा ।।37।।

कयैतज्ज्ञायते युक्त्या कथमेतत्प्रसिद्धयति ।

एतस्मिंस्तु मुने सिद्धे न साध्यमवशिष्यते।।38।।

अर्थात- श्री राम चन्द्र जी ने कहा- हे मुनिवर! जिस युक्ति के द्वारा यह जो बांधने वाला संसार हैं इससे मुक्ति प्राप्त हो जाय, वह हमे कृपा करके उपदेश करिए ।परस्पर एक संख्या में प्राप्त हुए यानि बाध के अवधि रुप से अवशिष्ट स्वप्रकाश आत्मभाव को प्राप्त हुए द्रष्टा और दृश्य में द्वितीयता के अभाव के स्थिर होने पर मुक्ति शेष रहती है ।इसलिए जिससे दृश्य जगत का अत्यंताभाव हो और जगत के बाध होने पर कूटस्थ ब्रह्म का ही बोध हो, उस उपाय को हमसे कहिए ।उक्त बात किस युक्ति से ज्ञात होती है और कैसे स्थिर रहती हैं, हे मुनिश्रेष्ठ, इसके स्थिर होने पर कुछ भी साध्य माने कर्तव्य शेष नहीं रहता ।

●श्रीवसिष्ठ उवाच●

बहुकालमियं रूढा मिथ्याज्ञान विषूचिका ।

नूनं विचारमन्त्रेण निर्मूलमुपशाम्यति।।39।।

न शक्यते झटित्येषा समुत्सादयितं क्षणात्।

समप्रपतने ह्यद्रौ समरोहावरोहणे।।40।।

तस्मादभ्यासयोगेन युक्त्या न्यायोपपत्तिभिः।

जगद्भ्रान्तिर्यथा शाम्येत्तवेदं कथ्यते श्रृणु ।।41।।

वक्ष्याम्याख्यायिकां राम यामिमां बोद्धसिद्धये।

तां चेच्छृणोषि तत्साधो मुक्त एवाऽसि बोधवान्।।42।।

अर्थात- श्री वसिष्ठ जी ने कहा- वत्स श्री राम चन्द्र जी!यह मिथ्या ज्ञान रुपी जो विषूचिका माने हैजा हैं वह अनंत कालो से होने के कारण रूढ हो गया है ,जिसके कारण हम अपने बंधन युक्त ही मान बैठे हैं और जो इतने दिनों से गाढ़ हो गया है वह क्रमशः विचार रुपी मंत्र से क्रमशः निवृत्त हो जायेगा ।यदि कोई कहता है कि हम तो इसे एक क्षण में ही नष्ट कर देंगे तो ऐसी बात इसी प्रकार से सत्य नहीं हो सकती है कि कोई कहे - 'मै एक ही बार में और एक ही समय में  किसी भी उच्चे पर्वत पर चढ़ कर उतर भी सकता हूँ '।इसलिए यह आपकी जो इस जगत को लेकर भ्रान्ति हैं वह पुनः पुनः अभ्यास से ,युक्तियों से तथा दृष्टांतो द्वारा जैसे शान्त हो जाय, उसको मैं कहता हूँ सुनिए ।हे राम चन्द्र जी, आपको बोध को प्राप्त के लिए जिस आख्यायिका को कहूंगा, हे सज्जन शिरोमणि, उसको यदि आप ध्यान पूर्वक श्रवण करेंगे तो ज्ञानी होकर अवश्य ही मुक्ति को प्राप्त हो जायेंगे, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है ।

अथोत्पत्तिप्रकरणं मयेदं तव कथ्यते ।

यत्किलोत्पद्यते राम तेन मुक्तेन भूयते ।।43।।

इयमिथ्यं जगद्भ्रान्तिर्भात्यजातैव खात्मिका।

इत्युत्पत्तिप्रकरणे कथ्यतेऽस्मिन् मयाऽधुना।।4।।

अर्थात- इस प्रलय आख्यायिका के अंतर्गत मैं आपसे जगत की उत्पत्ति क्रम से  कहूंगा ।हा राम जी! जो जो उत्पन्न होता हैं,वही मुक्त होता है माने बन्धन शून्य होकर अपने  स्वरुप से स्थित होता हैं ।उत्पत्ति प्रकरण का मतलब ही है जगत उत्पत्ति क्रम ।वह निर्विकार ब्रह्म ही उपादान जिसका है ,ऐसा ब्रह्मविवर्त ही है ,ऐसा फलित होता है,इस प्रकार से बंधन के मिथ्या होने पर मोक्ष स्वतः सिद्ध हो जाता है,यही उत्पत्ति प्रकरण के वर्णन का अभिप्राय है ।इस प्रकार यह जगद् भ्रम कभी उत्पन्न नहीं हुई तथा शून्य रुप होती हुई भी इसकी प्रतीति रहती है, इस उत्पत्ति प्रकरण में अब यही मैं आपसे कहुंगा ।

यदिदं दृश्यते किञ्चिज्जगत्स्थावरजङ्गमम्।

सर्वं सर्वप्रकाराढ्यं ससुरासुरकिन्नरम्।।45।।

तन्महाप्रलये प्राप्ते रुद्रादिपरिणामिनि।

भवत्यसदृश्यात्म क्वाऽपि याति विनश्यति ।।46।।

ततस्तिमितगम्भीरं न तेजो न तमस्ततम्।

अनाख्यमनभिव्यक्तं सत् किञ्चिदवशिष्यते ।।47।।

न शून्यं नाऽपि चाऽऽकारं न दृश्यं न च दर्शनम्।

न च भूतपदार्थौघो यदनन्ततया स्थितम्।।48।।

किमप्यव्यपदेशात्म पूर्णात् पूर्णतराकृति।

न सन्नाऽसन्न सदसन्न भावो भवनं न च ।।49।।

चिन्मात्रं चेत्यरहितमनन्तरमजरं शिवम्।

अनादिमध्यपर्यन्तं यदनादि निरामयम्।।50।।

अर्थात- विविध प्रकार की बस्तुओ से परिपूर्ण तथा देवता ,असुर ,किन्नर आदि से अधिष्ठित सम्पूर्ण जो कुछ भी सचराचर जगत दिखलाई देता है ,वह रुद्र आदि का तिरोधान करने वाले महाप्रलय में असद् एवं अदृश्य स्वरूप होकर न मालूम कहा चला जाता है ,विनष्ट हो जाता है ।उसके अनंतर नाम और रुप से रहित शान्त, गम्भीर केवल सत् ही अवशिष्ट रहता है,जो अनंत रुप से स्थित है ।वह न तेज है और न ब्याप्त अंधकार ही है ।न वह शून्य ही है,न आकारवान ही है,न दृश्य है,न दर्शन हैं और न भूत भौतिक पदार्थ समूह ही है ।नाम रहित होने से उसके स्वरूप का निर्वचन नहीं किया जा सकता है और पूर्ण से पूर्णतर आकार वाला है ।न वह ब्यक्त है,न अब्यक्त है,ब्यक्ताब्यक्त हैं,न वह काल संबंध ही हैं और न काल संबंधवान ही है ।वह दृश्य शून्य चिन्मात्र,अनंत,अजर,शिव, आदि ,मध्य और अन्त से रहित,कारण शून्य और निर्दोष है ।

क्रमशः