"शिक्षक, शिक्षा और सम्मान "
आज आधुनिक भारत के शिक्षकों के सम्मान का दिन है। राज्य एवं समाज व्यवस्था के धुरंधर आचार्य चाणक्य ने कहा था " शिक्षक राष्ट्र निर्माता होता है। शिक्षक का गौरव घोषित तब होगा जब ये राष्ट्र गौरवशाली होगा ,और ये राष्ट्र गौरवशाली तब होगा जब ये राष्ट्र अपने जीवन मूल्यों एवं परम्पराओं का निर्वाह करने में सफल एवं सक्षम होगा. और ये राष्ट्र सफल एवं सक्षम तब होगा, जब शिक्षक अपने उतरदायित्व का निर्वाह करने में सफल होगा. और शिक्षक सफल तब कहा जाएगा, जब वह राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति में राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करने में सफल हो. यदि व्यक्ति राष्ट्र भाव से शून्य है, राष्ट्र भाव से हीन है, अपनी राष्ट्रीयता के प्रति सजग नही है तो ये शिक्षक की असफलता है।"
स्वामी विवेकानंद के अनुसार " शिक्षा व्यक्ति में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णता की प्रकटीकरण है"। वास्तव में, जब किसी समाज का एक-एक व्यक्ति अपनी पूर्णता के प्रकटीकरण की तरफ अग्रसर होता है तब राष्ट्र स्वतः खड़ा हो जाता है। परन्तु व्यक्ति के पूर्णता का प्रकटीकरण कैसे संभव है? व्यक्ति के 'स्व' का विस्तार ही उसकी पूर्णता का प्रकटीकरण है। यदि 'स्व' का संकुचन हो रहा है तब शिक्षा अपने उद्देश्य में असफल है।
क्या आज की शिक्षा व्यक्ति को एक राष्ट्र या समाज के रूप में खड़ा कर पाने में सक्षम है? क्या एक पढ़े-लिखे व्यक्ति की सोच अपने तथाकथित अनपढ़ पूर्वजों से अधिक सुसंस्कृत, समग्र एवं संवेदनशील है? क्या शिक्षा को किसी दुकान से खरीद कर पूर्णता का प्रकटीकरण किया जा सकता है? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिन पर आज विचार किया जाना चाहिए।
एक समय था जब लोग बिना अक्षर ज्ञान के भी ज्यादे सुशिक्षित हुआ करते थे। संवेदना, संवाद और सच्चरित्र तथा वृत्ति, व्यवहार एवं व्यवसाय की सीख उन्हें माँ के आँचल से ही मिलनी प्रारम्भ हो जाती थी, जिसका परिवार, पड़ोस, परिस्थिति और पर्यावरण के संसर्ग से दिन-प्रतिदिन विस्तार होता था।
आज वह संवेदनशील मस्तिष्क कहाँ गया जो पेड़ -पौधों , नदी-नालों , पर्वत और कंदराओं से भी सिख ले लिया करता था और उनके प्रति सम्मान और आदर का भाव रखता था, उनकी पूजा करता था? उसे आज की शिक्षा ने मूर्ख मान लिया, परिणामस्वरूप आज पर्यावरण की रक्षा के लिए करोड़ों रुपए व्यय कर पर्यावरण जागरुकता अभियान चलाया जा रहा है। शिक्षा आज ज्ञान, संवेदना एवं आचरण से अधिक दिखावा बन गई है। सूट, बूट, टाई और कोट ही शिक्षा के प्रतीक हो गए हैं। सितम्बर में भी शिक्षक दिवस के दिन जो भारत जैसे गर्म देश में कोट और टाई धारण कर शिक्षा पर व्याख्यान दे वही शिक्षाविद है, वही विद्वान् है । शिक्षा पूर्णता की अभिव्यक्ति के स्थान पर मानसिक गुलामी की प्रतीक बनती जा रही है।
आज शिक्षा पञ्च सितारा दुकानो में बिक रही है और शिक्षक दिवस पर श्रद्धा के बिना शिक्षक सम्मानित हो रहे हैं। वास्तव में, शिक्षा का मूल्यांकन प्रमाण-पत्र और औपचारिकताओं से नहीं व्यक्ति के अनौपचारिक व्यवहार से होना चाहिए। आज की डिग्रीधारी शिक्षा रात के अंधेरे में रस्सी को सर्प समझने जैसी हो चुकी है, जो है नहीं वह उसका बोध करा रही है। आज प्रमाण-पत्र ही शिक्षा है। इस शिक्षा को प्रमाणपत्र से व्यवहार तक जो ले जा सके वास्तव में वही वास्तविक शिक्षक, राष्ट्र निर्माता और सम्मान का पात्र है, नहीं तो आज सूचना का संप्रेषक कम्प्यूटर भी है।
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