*श्रद्धेय पंडित श्री नंदकिशोर पाण्डेय जी भागवताचार्य*
*प्रेरक प्रसंग -21*
*कर्म और प्रारब्ध*
काशी में एक विद्वान ज्योतिषी रहते थे। एक दिन काशी नरेश अपनी कोई समस्या लेकर उनके घर पर पहुँचे। ज्योतिषी कहीं बाहर गये थे, उसने उनकी धर्मपत्नी से पूछाः "देवीजी! आपके पति ज्योतिषी जी महाराज कहाँ गये हैं?"
तब उस स्त्री ने अपने मुख से अपने ही पति को अयोग्य, असह्य दुर्वचन कहे, जिनको सुनकर राजा हैरान हुए और मन ही मन कहने लगे कि "मैं तो अपनी समस्या का समाधान लेकर आया था, परंतु अब इनकी समस्या के सामने तो मेरी समस्या छोटी लगने लगी है ।तो पहले तो मैं इनका ही हाल पहले पूछूँगा।"
इतने में ज्योतिषी आ गये। घर में प्रवेश करते ही ब्राह्मणी ने ज्योतिषी को अनेक दुर्वचन कहकर उनका तिरस्कार किया। परंतु ज्योतिषी जी चुप रहे और अपनी स्त्री को कुछ भी नहीं कहा। तदनंतर वे अपनी गद्दी पर आ बैठे।बहुत देर तक वह ब्राह्मणी ज्योतिषी को बुरा भला कहती रही ।एक बार तो नरेश को भी क्रोध आ गया और वे आवेश में आने ही वाले थे पर ज्योतिषी ने उन्हें चुप रहने का इशारा कर दिया।
थोडी देर बाद ब्राह्मणी अंदर चली गयी तो ज्योतिषी ने राजा की ओर ध्यान दिया "कहिये, राजन ! कैसे आना हुआ?"
"आया तो था अपने बारे में पूछने के लिए परंतु पहले आप अपना हाल बताइये कि आपकी पत्नी अपनी जुबान से आपका इतना तिरस्कार क्यों करती है? जो किसी से भी नहीं सहा जाता और आप जिनका मान सम्मान पूरे राज्य में इतना कि स्वयं नरेश को भी आपके दरवाजे पर आना पड़ता है वह इतना सब कैसे सहन कर लेते हैं, इसका क्या कारण है?"
तब ज्योतिषी ने कहा "राजन!
"यह मेरी स्त्री की गलती से नहीं, मेरा कर्म का परिणाम है। दुनिया में जिसको भी देखते हो अर्थात् भाई, पुत्र, शिष्य, पिता, गुरु, सम्बंधी - जो कुछ भी है, सब अपना कर्म ही है। यह स्त्री नहीं, मेरा किया हुआ कर्म ही है, और यह भोगे बिना कटेगा नहीं।
*अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतेरपि॥*
'अपना किया हुआ जो भी कुछ शुभ-अशुभ कर्म है, वह अवश्य ही भोगना पड़ता है। बिना भोगे तो सैंकड़ों-करोड़ों कल्पों के गुजरने पर भी कर्म नहीं टल सकता।' इसलिए मैं अपने कर्म खुशी से भोग रहा हूँ और अपनी स्त्री की ताड़ना भी नहीं करता, ताकि आगे इस कर्म का फल न भोगना पड़े।"
"महाराज ! आपने क्या कर्म किया था?"
"सुनिये, पूर्वजन्म में मैं कौआ था और मेरी स्त्री अपने पूर्वजन्म में गधी थी। इसकी पीठ पर फोड़ा था, फोड़े की पीड़ा से यह बड़ी दुःखी थी और कमजोर भी हो गयी थी। मेरा स्वभाव बड़ा दुष्ट था, इसलिए मैं इसके फोड़े में चोंच मारकर इसे ज्यादा दुःखी करता था। जब दर्द के कारण यह कूदती थी तो इसकी फजीहत देखकर मैं खुश होता था। मेरे डर के कारण यह सहसा बाहर नहीं निकलती थी किंतु मैं इसको ढूँढता फिरता था। यह जहाँ मिले वहीं इसे दुःखी करता था। आखिर मेरे द्वारा बहुत सताये जाने पर त्रस्त होकर यह गाँव से दस-बारह मील दूर जंगल में चली गयी। वहाँ गंगा जी के किनारे सघन वन में हरा-हरा घास खाकर और मेरी चोटों से बचकर सुखपूर्वक रहने लगी। लेकिन मैं इसके बिना नहीं रह सकता था। इसको ढूँढते-ढूँढते मैं उसी वन में जा पहुँचा और वहाँ इसे देखते ही मैं इसकी पीठ पर जोर-से चोंच मारी तो मेरी चोंच इसकी हड्डी में चुभ गयी। इस पर इसने अनेक प्रयास किये, फिर भी चोंच न छूटी। मैंने भी चोंच निकालने का बड़ा प्रयत्न किया मगर न निकली। 'पानी के भय से ही यह दुष्ट मुझे छोड़ेगा।' ऐसा सोचकर यह गंगाजी में प्रवेश कर गयी परंतु वहाँ भी मैं अपनी चोंच निकाल न पाया। आखिर में यह बड़े प्रवाह में प्रवेश कर गयी। गंगा का प्रवाह तेज होने के कारण हम दोनों बह गये और बीच में ही मर गये। तब गंगा जी के प्रभाव से यह तो ब्राह्मणी बनी और मैं बड़ा ज्योतिषी बना। अब वही मेरी स्त्री हुई। जो मेरे मरणपर्यन्त अपने मुख से गाली निकालकर मुझे दुःख देगी और मैं भी अपने पूर्वकर्मों का फल समझकर सहन करता रहूँगा, इसका दोष नहीं मानूँगा क्योंकि यह किये हुए कर्मों का ही फल है। इसलिए मैं शांत रहता हूँ।