|| सप्तशती विवेचन ||
मेरुतंत्र में व्यास द्वारा कथित तीनो चरित्रों की अलग अलग सप्तसतियों (सप्त शक्तियों ) का वर्णन है । इन सप्तशक्तियों के 700 प्रयोगों के कारण ही व्यास जी ने सप्तशती नाम से वर्णन किया है । सात कल्पों में अलग अलग शक्रादि देवों ने अलग अलग स्वरूपों व विधानों की उपासना की है । महाविद्येत्यादि सप्तशक्तियः ब्रह्मणः स्तुताः । तस्मात्सप्तसतीत्येव प्रोक्ता व्यासेन धीमताः ।। एवम् सप्तशतम् तत्र प्रयोगाः प्रकीर्तिताः । तस्मात्सप्तशतीत्येवं व्यासेन प्रकीर्तिताः ।। ( मेरुतंत्र तन्त्रे ) !! प्रथम चरित्र !! महाविद्येत्यादि सत्यं सप्तकल्पे तथादिमे। ब्रह्मेन्द्र गुरु शुक्रणाम् विष्णु रूद्र सुरद्विषाम् । उपास्या देवता जातस्ताश्चात्र ब्रह्मणास्तुताः । तस्मात् सप्तशतीत्येवं व्यासेन परी कीर्त्तिताः ।। ब्रह्मा ,इंद्र ,गुरु,शुक्र,विष्णु,रूद्र,असुर इन सातों द्वारा भगवती की उपासना की गयी , उनकी अलग अलग आराध्या होने से उनकी सात शक्तियाँ कहलायीं । प्रथम चरित्र में इन्ही शक्तियों का वर्णन है । !! मध्यम चरित्र !! लक्ष्म्यादि सप्तशक्तियां प्रकट रूप से हैं तथा काल्यादि सप्तशक्तियाँ गुप्तरूप से कही गयी हैं । लक्ष्मी , ललिता, काली दुर्गा,गायत्र्यरुन्धती सरस्वती इति । तथा काली तारा , छिन्नमस्ता , सुमुखी , भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जेति, सप्तसतीनां मंत्रा गुप्तरूपेण कथिताः । तस्मात्सप्तसतीति नाम । लक्ष्मी,ललिता, काली,दुर्गा,गायत्री,अरुन्धती सरस्वती, ये सात सतियाँ ( शक्तियाँ ) प्रकट रूप से मध्यम चरित्र की हैं । तथा काली , तारा , छिन्नमस्ता , सुमुखी , ( मातङ्गी ) भुवनेश्वरी , बाला , कुब्जिका, ये सात सतियाँ अप्रकट रूप से कही गयी हैं । उपास्या दक्षिणमार्गे लक्ष्म्याद्या सप्तशक्तयः । लक्ष्म्यादि की पूजा दक्षिण मार्ग से तथा काली तारा छिन्नमस्ता मातङ्गी , कुब्जिका का पूजन वाममार्ग से करें । !! उत्तर चरित्र !! तृतीय चरित्रे ब्रह्मयाद्याश्चामुण्डान्ताः सप्त तथा नन्दा शताक्षी शाकम्भरी भीमा रक्तदन्तिका दुर्गाभ्रामरयः सत्यः सप्तसंख्या नाम इत्यादि मेरु तन्त्रे स्पष्टम् । ब्राह्मी,माहेश्वरी,कौमारी,वैष्णवी , वाराही,नारसिंही, ऐन्द्री ये सात शक्तियाँ प्रकट रूप से हैं । नन्दा , शताक्षी , शाकम्भरी,भीमा, रक्तदन्तिका , दुर्गा, भ्रामरी ये सात सतियाँ ( शक्तियाँ) गुप्त रूप से हैं । वेदव्यास जी के मत को मेरुतंत्र में स्पष्ट किया है कि प्रत्येक चरित्र में यह प्रकट अप्रकट रूप से सात सात सतियाँ ( शक्तियाँ ) हैं इसलिये इसका नाम सप्तसती है । एवम् 700 श्लोकों के 700 प्रयोगों के आधार पर सप्तशती नाम प्रसिद्द है । 700 मन्त्र प्रयोग , मन्त्र विभाग , तथा उवाच संख्या सहित हैं अथवा कुछ अन्य समाविष्ट होने चाहिए यह शोध का विषय है । प्राचीन पांडुलिपियों में मन्त्रों के बिना विभाग किये दुर्गापाठ के ग्रन्थ हैं । जिनके श्लोक संख्या में 582-593 करीब है । कात्यायनी मत से एक उवाच के बाद के तथा दूसरे उवाच से पहले के मन्त्र के विभाग करके मन्त्र संख्या बढ़ा दी गयी है। नमस्तस्यै आदि मन्त्रों के भी विभाग करके 700 श्लोकों की गणना पूरी कर दी गयी है । गुप्तवती टीका में भी श्लोकों के खण्ड किये गए हैं लेकिन मन्त्र का विभाग वहीं पर किया गया है जहाँ मन्त्र का अर्थ यथार्थ बैठता है । जबकी कात्यायनी मत की प्रचलित पुस्तकों में अर्थ आगे पीछे हो जाता है। गुप्तवती टीका व अन्य टीकाओं में जैसे तैसे 700 श्लोकों की गणना पूरी की गयी है । वैवस्वतेन्तरे प्राप्ते इत्यारभ्य च सप्त तु । शक्तयः प्रोक्तः स्वयं देव्यास्तस्मात्सप्तसती स्मृता । सप्तशत्यास्तु सप्तत्वं वेद्ययहं सर्वमेव हि । अतः यह स्तोत्र 'दुर्गासप्तसती' न होकर 'दुर्गाशप्तसती' कहलाने लगा। सप्तशती पर जो टीकाएँ प्रचलित हैं, उनमें राक्षस उवाच , महिषासुर उवाच , शुम्भ उवाच , निशुम्भ उवाच,, मन्त्री उवाच को हटाकर ग्रन्थ स्वीकार किया गया है। उवाचों को भी श्लोक संख्या में जोड़कर 700 श्लोक बना दिए गए हैं । जबकि अन्य प्रतिलिपियों भी हैं जिनमें राक्षस उवाच , महिषासुर उवाच आदि हैं एवम् उनमें श्लोक संख्या इनके बिना उवाच जोड़े 700,720,765 होते हैं । किसी प्रतिलिपि में चौथे अध्याय के चार रक्षामंत्र हटा दिए हैं तथा मध्यम चरित्र से हटाकर कवच में जोड़ कर 75 श्लोक दे दिए हैं । किसी प्रति में 12वें 13वें अध्याय में मूर्ति रहस्य आदि के श्लोक दे दिए हैं तथा वैश्यसुरथ वर प्रदान श्लोक चरित्र से हटा दिए हैं । किसी प्रति में उवाच आदि को श्लोक संख्या न मान 850 से ज्यादा श्लोक दे दिए , उनमें शुम्भ उवाच , मधुकैटभ उवाच, महिषासुर उवाचादि है । दुर्गासप्तशती सभी प्रान्तों में अलग अलग भाषा में पायी जाती है उनमें मन्त्रों के पाठ्यक्रम में व संख्या में भेद पाया जाता है । " श्री अविनाश चन्द्र मुखोपाध्याय " ने बंगला लिपि में जो संस्करण निकाला उसमें 313 पाठ भेदों का उल्लेख है, साथ ही 33 अन्य श्लोक बढ़ाये जो अब सप्तशती से निकाल दिए है । कात्यायनी तन्त्र की , गुप्तवती की , गौड़ पादिय भाष्य की , नागोजी भट्ट की , गोविन्द की चारों प्रणालियों में 108 मन्त्रों में भेद है । कोई 580 तो कोई 582 श्लोक तो कोई एक हजार श्लोक की पाण्डुलिपि का दावा करते हैं । ब्राह्मण ग्रन्थ व कात्यायनी तंत्रानुसार 587 मूल श्लोक हैं तथा विभाग करने पर 700 श्लोक हैं । किशनगढ़ की एक बहुत प्राचीन पाण्डुलिपि में 700 श्लोकों के 700 स्वर्ण चित्र थे जिसका अब वर्षों से पता नही है । कोटा में मौजूद हैं सोने से लिखी अनूठी दुर्गासप्तशती पांडुलिपी कोटा में स्वर्ण और भोजपत्र पर रक्तचंदन से लिखी देश की दुर्लभ दुर्गासप्तशती की पांडुलिपियां हैं। ये संस्कृत भाषा में हाथ से लिखी हुई हैं, जो नयापुरा स्थित प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के संग्रह में हैं। कोटा निवासी संस्कृत रिसर्चर घनश्याम चंद्र उपाध्याय ने अपने शोध विषय श्री दुर्गासप्तशती का समालोचनात्मक अध्ययन में देश के 16 संस्थानों में विषिष्ठ पांडुलिपियों का अध्ययन किया हैं। जिनमें कोटा की ये पांडुलिपियां मिली हैं। उपाध्याय मोहनलाल सुखाड़िया विवि से रिसर्च कर रहे हैं। उन्होंने देश के अलग-अलग राज्यों की 176 पांडुलिपियों का अध्ययन किया है। उन्होंने बताया कि कोटा में मिली ये पांडुलिपियां देश में अन्य कहीं भी उपलब्ध नहीं हैं। प्राचीनता की दृष्टि से भी ये राष्ट्रीय धरोहर हैं। ( श्रोत - अमर उजाला )