शारदा देवी मंदिर मध्य प्रदेश के सतना ज़िले में मैहर शहर में स्थित है। इस मंदिर को माता के शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। मैहर शहर की लगभग 600 फुट की ऊँचाई वाली त्रिकुटा पहाड़ी पर माँ दुर्गा के शारदीय रूप श्रद्धेय देवी माँ शारदा का मंदिर स्थित है, जो 'मैहर देवी माता' के नाम से भी सुप्रसिद्ध हैं। यहाँ श्रद्धालु माता का दर्शन कर आशीर्वाद लेने उसी तरह पहुँचते हैं, जैसे जम्मू में माँ वैष्णो देवी का दर्शन करने जाते हैं। माँ मैहर देवी के मंदिर तक पहुँचने के लिए 1063 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। माना जाता है कि गोंड शासकों ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। इतिहास प्रसिद्ध महावीर आल्हा-उदल को वरदान देने वाली माँ शारदा देवी को पूरे देश में मैहर की शारदा माता के नाम से जाना जाता है। अब यहाँ रोपवे बन जाने से दर्शन के लिए आने वाले भक्तजनों की कठिनाईयाँ काफ़ी हद तक हल हो गई हैं।

पौराणिक कथा
पौराणिक कथानुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री सती, भगवान शिव से विवाह करना चाहती थी, लेकिन राजा दक्ष शिव को भगवान नहीं, भूतों और अघोरियों का साथी मानते थे और इस विवाह के पक्ष में नहीं थे। फिर भी सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर भगवान शिव से विवाह कर लिया। एक बार राजा दक्ष ने 'बृहस्पति सर्व' नामक यज्ञ रचाया। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता भगवान महादेव को नहीं बुलाया। महादेव की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती इससे बहुत आहत हुईं। यज्ञ-स्थल पर जाकर सती ने अपने पिता दक्ष से भगवान शिव को आमंत्रित न करने का कारण पूछा। इस पर दक्ष प्रजापति ने भरे समाज में भगवान शिव के बारे में अपशब्द कहे। तब इस अपमान से पीड़ित होकर सती मौन हो उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठ गयीं और भगवान शंकर के चरणों में अपना ध्यान लगा कर योग मार्ग के द्वारा वायु तथा अग्नि तत्व को धारण करके अपने शरीर को अपने ही तेज से भस्म कर दिया।

भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया और यज्ञ का नाश हो गया। भगवान शंकर ने माता सती के पार्थिव शरीर को कंधे पर उठा लिया और गुस्से में तांडव करने लगे। ब्रह्मांड की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के अंग को बावन भागों में विभाजित कर दिया। जहाँ-जहाँ सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण आदि गिरे, वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। उन्हीं में से एक शक्तिपीठ है मैहर देवी का मंदिर, जहाँ माँ सती का हार गिरा था। मैहर का मतलब है- माँ का हार, इसी वजह से इस स्थल का नाम मैहर पड़ा। अगले जन्म में सती ने हिमालयराज के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को फिर से पति रूप में प्राप्त किया।

दन्तकथा

इस तीर्थ स्थल के सन्दर्भ में एक दन्तकथा भी प्रचलित है। कहा जाता है कि आज से 200 साल पहले मैहर में महाराज दुर्जन सिंह जुदेव राज्य करते थे। उन्हीं कें राज्य का एक ग्वाला गाय चराने के लिए जंगल में आया करता था। इस घनघोर भयावह जंगल में दिन में भी रात जैसा अंधेरा छाया रहता था।

मंदिर में शारदा देवी की प्रतिमा
तरह-तरह की डरावनी आवाजें आया करती थीं। एक दिन उसने देखा कि उन्हीं गायों के साथ एक सुनहरी गाय कहाँ से आ गई और शाम होते ही वह गाय अचानक कहीं चली गई। दूसरे दिन जब वह इस पहाड़ी पर गाय लेकर आया तो देखा कि फिर वही गाय इन गायों के साथ मिलकर घास चर रही है। तब उसने निश्चय किया कि शाम को जब यह गाय वापस जाएगी, तब उसके पीछे-पीछे जाएगा। गाय का पीछा करते हुए उसने देखा कि वह ऊपर पहाड़ी की चोटी में स्थित एक गुफ़ा में चली गई और उसके अंदर जाते ही गुफ़ा का द्वार बंद हो गया। वह वहीं गुफ़ा के द्वार पर बैठ गया। उसे पता नहीं कि कितनी देर के बाद गुफ़ा का द्वार खुला। लेकिन उसे वहाँ एक बूढ़ी माँ के दर्शन हुए। तब ग्वाले ने उस बूढ़ी महिला से कहा- "माई मैं आपकी गाय को चराता हूँ, इसलिए मुझे पेट के वास्ते कुछ मिल जाए। मैं इसी इच्छा से आपके द्वार आया हूँ।" बूढ़ी माता अंदर गई और लकड़ी के सूप में जौ के दाने उस ग्वाले को दिए और कहा- "अब तू इस भयानक जंगल में अकेले न आया कर।" वह बोला- "माता मेरा तो जंगल-जंगल गाय चराना ही काम है। लेकिन माँ आप इस भयानक जंगल में अकेली रहती हैं? आपको डर नहीं लगता।" तो बूढ़ी माता ने उस ग्वाले से हंसकर कहा- "बेटा यह जंगल, ऊंचे पर्वत-पहाड़ ही मेरा घर हैं, में यहीं निवास करती हूँ।" इतना कह कर वह गायब हो गई। ग्वाले ने घर वापस आकर जब उस जौ के दाने वाली गठरी को खोली, तो वह हैरान हो गया। जौ की जगह हीरे-मोती चमक रहे थे। उसने सोचा मैं इसका क्या करूँगा। सुबह होते ही महाराजा के दरबार में पेश करूँगा और उन्हें आप बीती कहानी सुनाऊँगा।
दूसरे दिन भरे दरबार में वह ग्वाला अपनी फरियाद लेकर पहुँचा और महाराजा के सामने पूरी आपबीती सुनाई। उस ग्वाले की कहानी सुनकर राजा ने दूसरे दिन वहाँ जाने का ऐलान किया और अपने महल में सोने चला गया। रात में राजा को स्वप्न में ग्वाले द्वारा बताई बूढ़ी माता के दर्शन हुए और आभास हुआ कि आदि शक्ति माँ शारदा हैं। स्वप्न में माता ने राजा को वहाँ मूर्ति स्थापित करने की आज्ञा दी और कहा कि मेरे दर्शन मात्र से सभी की मनोकामनाएँ पूरी होंगी। सुबह होते ही राजा ने माता के आदेशानुसार सारे कर्म पूरे करवा दिए। शीघ्र ही इस स्थान की महिमा चारों ओर फैल गई। माता के दर्शनों के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से यहाँ पर आने लगे और उनकी मनोवांछित मनोकामना पूरी होती गई। इसके पश्चात माता के भक्तों ने माँ शारदा का सुंदर भव्य तथा विशाल मंदिर बनवा दिया।
इतिहास
मंदिर के पास में एक प्राचीन शिलालेख है। वहाँ शारदा देवी के साथ भगवान नरसिंह की एक मूर्ति है। इन मूर्तियों को नुपुला देवा द्वारा शक 424 चैत्र कृष्ण पक्ष पर 14 मंगलवार, विक्रम संवत 559 अर्थात 502 ई. में स्थापित किया गया था। देवनागरी लिपि में चार पंक्तियों वाला यह शिलालेख "3.5" से 15 आकार का है। माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 को की गई है। मूर्ति पर देवनागरी लिपि में शिलालेख भी अंकित है। इसमें बताया गया है कि सरस्वती के पुत्र दामोदर ही कलियुग के व्यास मुनि कहे जाएँगे। दुनिया के जाने माने इतिहासकर कनिंघम ने इस मंदिर पर विस्तार में शोध किया था। इस मंदिर में प्राचीन काल से ही बलि देने की प्रथा चली आ रही थी, लेकिन 1922 में सतना के राजा ब्रजनाथ जूदेव ने पशु बलि को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया। यह एक बहुत ही प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है।

आल्हा-उदल से सम्बन्ध
इस प्रसिद्ध तीर्थ स्थल के सन्दर्भ में एक अन्य दन्तकथा यह भी प्रचलित है कि दो वीर भाई आल्हा और उदल, जिन्होंने पृथ्वीराज चौहान के साथ भी युद्ध किया था, वे भी शारदा माता के बड़े भक्त हुआ करते थे। इन्हीं दोनों ने सबसे पहले जंगलों के बीच शारदा देवी के इस मंदिर की खोज की थी। इसके बाद आल्हा ने इस मंदिर में बारह सालों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था। माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया था। कहते हैं कि दोनों भाइयों ने भक्ति-भाव से अपनी जीभ शारदा को अर्पण कर दी थी, जिसे माँ शारदा ने उसी क्षण वापस कर दिया था। आल्हा माता को 'शारदा माई' कह कर पुकारा करता था और तभी से ये मंदिर भी 'माता शारदा माई' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। आज भी ये मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा और उदल ही करते हैं। मंदिर के पीछे पहाड़ों के नीचे एक तालाब है, जिसे 'आल्हा तालाब' कहा जाता है। यही नहीं तालाब से दो किलोमीटर और आगे जाने पर एक अखाड़ा मिलता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ आल्हा और उदल कुश्ती लड़ा करते थे।