सय वक्रण देतो सूर्येन्द्र शीघ्रगो यतः सूर्यमुक्ता उदीयन्ते शीघ्राः खेटाः धने रवे ॥ तृतीये च समाः प्रोक्ताश्चतुर्थ मन्दगामिनः | भानोः खेटाः पञ्चमे च वक्राक्षाएमसप्तमे ॥ अतिवाः स्मृताः धर्मे दशमे मार्गगामिन लाभे द्वादशके शीघ्रा पदा वक्री भवेद्रह ||
(ज्योतिष तत्वप्रकाश)
यह एवं केतु सदा वक्री रहते हैं. सूर्य एवं चन्द्रमा सदा शीघ्रगति (मार्ग) से चलने वाले होते हैं। जब ग्रह सूर्य से पृथक हो जाते हैं तब उनका उदय हो जाता है। सूर्य से दूसरे भाव में ग्रह शीघ्रगामी हो जाते हैं। सूर्य से तीसरे भाव में समगति वाते रहते हैं। सूर्य से बौधे भाव में ग्रहों की गति मन्द हो जाती है। सूर्य से सातवें एवं आठवें भाव में ग्रह वक्री हो जाते हैं और नवें स्थान में अतिवक्री हो जाते हैं। सूर्य से दसवें भाव में मार्गी होते हैं तथा ग्यारहवे एवं बारहवें भाव में शीघ्र गति वाले हो जाते हैं।
सौम्पोऽतिसौम्यक्षोप्रोऽति पापः शीघ्रः स्वभाववत् ज्योतिष तत्वप्रकाश) सौम्प ग्रह वक्री होने पर अतिसीम्प हो जाते है। कूर ग्रह वक्री होने पर अतिकूर फल देते शीघ्रगतिक ग्रह अपने स्वभाव के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं।
आत्मा रविः शीतकरस्तु चेतः सत्वं धराजः शशिजोऽथ वाणी । ज्ञान सुख चेन्द्रगुरुर्मद शुक्र शनिः कालनरस्य दुःखम् ॥ (लघुजातकम्
कालपुरुष की आत्मा सूर्य है, चन्द्रमा उसका मन है, मंगल उसका बल है तथा बुध उसको वाणी है, उसका ज्ञान एवं सुख बृहस्पति है, शुक्र कामशक्ति है, एवं शनि दुःख है। इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि सूर्यादि ग्रहों से उक्त बातों का विचार जातक की कुण्डली से करना चाहिए।
सूर्य और चन्द्रमा सदैव मार्गी रहते हैं। सूर्य के साथ रहने पर क्षीण चन्द्र निष्फल होता है।
राहु और केतु सदैव वक्री रहते हैं। राहु-केतु सदैव एक दूसरे से सातवीं राशि में रहते हैं। .
. चतुर्थ भाव में बुध पंचम में गुरु, द्वितीय में मंगल षष्ठ में शुक्र और सप्तम में शनि निष्फल होता है।
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भाव सन्धि में स्थित ग्रह भी निष्फल हो जाता है।
केन्द्र तथा त्रिकोण भावों में स्थित ग्रह विशेष बलवान होते हैं।
. सूर्य से पूर्वषटक में अर्थात् सूर्यस्थित राशि से 1, 2, 3, 10, 11, 12 राशियों में स्थित ग्रह अधोमुख होने से अपना उत्कट फल नहीं दे पाते।
सूर्य से अपरार्थ में अर्थात् 4, 5, 6, 7, 8, 9 भावों में स्थित ऊर्ध्वमुख ग्रह विशेष प्रकाशित होने से प्रत्यक्ष एवं शीघ्र फलदायी होते है।
चन्द्रमा के लिए पक्षबत सूर्य के लिए दिग्बल और मंगल आदि पचतारा ग्रहों के लिए चेष्टावल विशेष महत्वपूर्ण होता है।
सभी ग्रह अपने उच्च मूलत्रिकोण, स्वराशि अधिमित्र एवं मित्र की राशि या नवांश में बली माने जाते हैं।
. समराशि, शत्रुराशि अधिशत्रुराशि नीचराशि में होने पर या अस्त होने पर ग्रह बलहीन हो जाते हैं।
.सभी ग्रहों को अपने अपने वार में विशेष बल प्राप्त होते हैं।
सूर्य तथा मंगल को दशम भाव में विशेष बल प्राप्त होता है, मंगल तो दशम भाव में नीच होने पर भी सुख ही देता है। मंगल 12, 11, 10, 8 राशियों में होने पर विशेष फल देता है।
.गुरु अपनी स्वराशि व उच्च राशि के अतिरिक्त वृक्षिक राशि में भी बहुत श्रेष्ठ फल प्रदान करता है।
1 4. 10 भावों में नीचगत गुरु भी बलवान और धनदायक होता है।
शुक्र 3, 4, 6, 12 भावों में वर्ग या राशिवली होकर रहने या चन्द्रमा के साथ रहने पर विशेष फलदायी होता है।
राहु 1, 8, 11, 6, 2. 4 राशियों और दशम भाव में विशेष बली होता है। केतु 12.2, 9, 6 राशियों में विशेष बली होता है।
सभी ग्रह 6, 8, 12 भावों में अशुभ फल देते हैं, किन्तु शनि अष्टम भाव में आयुष्यवर्धक भी होता है।
सूर्य, चन्द्रमा (चेष्टाबली होने से), बुध और गुरु उत्तरायण में शुभफलदायी माने जाते हैं | चन्द्रमा (अयनबली होने से) व शनि दक्षिणायन में शुभफलदायी माने जाते हैं।
मंगल, शुक्र तथा शनि वक्री होने पर बुध एवं गुरु की अपेक्षा अधिक शुभफल करते हैं।
चतुर्थ में बुध पंचम में गुरु सप्तम में शुक्र अकेला हो तो भाव को बुरी तरह बिगाड़ता है।
. ग्रहयुति में परस्पर बलप्रदाता ग्रह सूर्य के साथ रहने पर शनि का शनि के साथ रहने पर मंगल का मंगल के साथ रहने पर गुरु का गुरु के साथ रहने पर चन्द्रमा का चन्द्रमा के साथ रहने पर शुक्र का शुक्र के साथ रहने पर बुध का और बुध के साथ रहने पर चन्द्रमा का बल बढ़ता है।
. किसी भी ग्रह का बल कभी भी नष्ट या कम नहीं होता, ऊर्जा संरक्षण का सिद्धान्त आप सब लोग जानते ही हैं। ग्रहों का बल शुभ या अशुभ फल देने की • क्षमता में रूपांतरित हो जाता है, बस जब हम किसी ग्रह को बली कहते हैं तो इसका तात्पर्य है कि वह अपने कारकत्व के अनुसार शुभ फल प्रदान करेगा। ऐसे ही जब हम किसी ग्रह को निर्बल कहते हैं, तो उसका भाव यही है कि वह अपने कारकल के अनुसार अशुभ फल प्रदान करेगा। इसी प्रकार, जब हम किसी ग्रह को 25% बली कहते हैं तो इसका भाव यही है कि ग्रह अपनी अपनी क्षमता का 25% शुभ फल और 75% अशुभ फल प्रदान करेगा। इस तथ्य को अच्छी प्रकार से समझ कर मन मस्तिष्क में स्थापित कर लेना चाहिए, उसके बाद ही फलादेश में प्रवृत्त होना चाहिए।
उच्च ग्रह शुभ फल ही देते हैं. नीच ग्रह अशुभ फल ही देते हैं. इसी प्रकार पापग्रह अशुभ फल ही देंगे, शुभ ग्रह केवल शुभ फल करेंगे, ऐसे दुराग्रह में कभी नहीं पडना चाहिए।
वक्री ग्रहों के बारे में फलादेश के लिए भले प्रकार से अभ्यास बनाना चाहिए, उसके बाद ही फल कहना चाहिए। वैसे वक्री ग्रह अपनी दशा में रोग, चिन्ता, संकट, स्थानांतरण, भटकाव आदि फल अवश्य देते हैं यह प्रत्यक्ष अनुभवों से बहुधा सिद्ध है।
बारहवें भाव में शनि हो तो पैर में बार बार चोट अवश्य लगती है।
बुध के साथ दो या अधिक ग्रह जिस भाव या राशि में हों. उस अंग में तिल का निशान निश्चय ही होता है।
कोई भी ग्रह लम्र कुंडली में जिस राशि में है, यदि वही ग्रह नवमांश कुंडली में भी उसी राशि में रहे तो वह वर्गोत्तमी कहलाता है। जैसे यदि मंगल लग्न कुंडली में मिथुन राशि में है और नवमांश कुंडली में भी मिथुन राशि में रहे तो मंगल को वर्गोत्तमी कहेंगे | वर्गोतमी ग्रह शुभ फल प्रदान करता है, विशेषकर वर्गोत्तमी गुरु बहुत शुभफल देता है। रुद्रभट्ट ने इनका उच्च जैसा फल बताया है। सत्याचार्य कहते है कि, ग्रह के वर्गोत्तमी रहने पर जातक अपने कुल में मुख्य (कुलगौरव) होता है।
॥ शुभमस्तु ॥