स्वर्क्षतुंगमूलत्रिकोणगाः कण्टकेषु यावन्त आश्रिताः ।
सर्व एव केन्योन्यकारकाः कर्मगस्तु तेषां विशेषतः ।। 1 ।।
(वैतालीय)
जन्म समय जो ग्रह केन्द्र स्थानों में स्वक्षेत्री, मूलत्रिकोणी या स्वोच्च में स्थित हों तो वे परस्पर केन्द्र में स्थित ग्रह कारक संज्ञक होते हैं। उनमें भी दशमस्थ ग्रह विशेषतया कारक होता है ।
परस्पर कारक कहने का तात्पर्य है कि वे ग्रह परस्पर एक दूसरे के फलों को पुष्ट करते हैं। दशमस्थ ग्रह का तात्पर्य केवल लग्न से दशमस्थ ही नहीं, अपितु विचारणीय ग्रह से दशमस्थ होना भी विशेष है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए आगे उदाहरण दे रहे हैं। कारक अर्थात् फल का योग (सम्बन्ध) कराने वाले ग्रह, ऐसा अर्थ है
कर्कटोदयगते यथोडुपे स्वोच्चगाः कुजयमार्कसूरयः । कारका निगदिताः परस्परं लग्नगस्य सकलोऽम्बराम्बुगः । । 2 । ।
(रथोद्धता)
जैसे कर्क लग्न में चन्द्रमा लग्नस्थ बृहस्पति के साथ, उच्चस्थ मंगल मकर में सप्तमस्थ, शनि चतुर्थ में उच्चस्थ, सूर्य दशम में उच्चगत होकर स्थित हों, तो ये सब ग्रह परस्पर कारक अर्थात् फल योगकारक होंगे । इस उदाहरण में शनि से दशमस्थ गुरुचन्द्र, मंगल से दशम शनि, सूर्य से दशम मंगल तथा लग्न से दशमस्थ सूर्य विशेषतया कारक हुए।
चतुर्थ चरण में स्वर्क्षतुंग मूल त्रिकोण के बिना भी कारकत्व कहा गया है। अर्थात् लग्न से चतुर्थ दशम में जो भी ग्रह हो, चाहे वह स्वक्षेत्री, मूल त्रिकोणी या स्वोच्चगत न भी हो, तब भी लग्न के प्रति विशेष कारक हो जाता है।
कारक शब्द से क्या तात्पर्य है ? कारक अर्थात् फल योग कारक या उपकारक, एक दूसरे के फल को पुष्ट करने वाले ग्रह । 'स्वांस्वां दशा मुपगताः स्वफलप्रदाः स्युः' इस प्रोक्त नियम का यह अपवाद है। यद्यपि सभी ग्रह अपनी-अपनी दशा में फल देते हैं, लेकिन परस्पर कारक ग्रह एक-दूसरे का फल भी अपनी दशा में देंगे। जैसे सूर्य इस उदाहरण में गुरु व चन्द्र के प्रति कारक है, अतः सूर्य दशा में भी गुरु आदि परस्पर कारक ग्रहों का फल विशेषतया पुष्ट होगा।
चतुर्थ चरण में स्वर्क्ष त्रिकोणोच्च के बिना कारकत्व का कथन करके आचार्य ने राशि निरपेक्ष दशमस्थ ग्रह की कारकता कही है। अर्थात् जिससे दशम में कोई ग्रह स्थित हो, वह भी कारक होकर अपनी दशा में दूसरे कारक के फलों को पुष्ट करेगा। जिससे ग्रह दशमस्थ होगा तो दशमस्थ ग्रह से विचारणीय ग्रह चतुर्थस्थ रहेगा । अतः विचारणीय भाव से 4.10 में स्थित ग्रह तो कारक हैं ही, साथ ही 4.10 में स्थित ग्रह भी परस्पर कारक होंगे। कर्क लग्न का उक्त उदाहरण आदर्शभूत उपलक्षण उदाहरण है। अन्यथा मेष, मकर, तुला लग्नों में भी यही स्थिति रहती है। निष्कर्ष यह है कि स्वराशि या स्वोच्च या मूलत्रिकोण में होना तथा लग्न से केन्द्र में होना ये दो कारकत्व के हेतु हैं। यह लग्न का कारकत्व है। लग्न केन्द्र के अतिरिक्त भावों में भी परस्पर केन्द्रगतत्व हो तो भी कारकत्व होता है, इसका निरूपण आगे किया जा रहा है ।
अतः सभी परस्पर केन्द्रगत ग्रह (जैसे द्वितीय, पंचम, अष्टम, एकादश आदि भी कारक हैं। यदि वे स्वोच्चादिगत हों तो सविशेष कारक हैं। उच्च से मूलत्रिकोण व उससे स्वक्षेत्र, ततः मित्रक्षेत्र ततः समक्षेत्र में रहना क्रमशः उत्तरोत्तर कमजोर है, यह बात अन्यथा सिद्ध है ।
लग्न से चतुर्थ दशम में स्थित ग्रह यद्यपि परस्पर कारक नहीं होते लेकिन वे लग्न के प्रति विशेष कारक होते हैं। भट्टोत्पल के अनुसार 4.10 में स्थित ग्रहों की भी स्वर्धादि स्थिति अनिवार्य है। हमारा विचार रुद्रभट्ट के मत का अनुसरण करता है, अर्थात् 4.10 में किसी भी राशि में स्थित ग्रह लग्न के प्रति कारक ही है।
'लग्नगतस्य ग्रहस्य दशमस्थानगतश्चतुर्थस्थानगतश्च ग्रहः स्वक्षदिगतत्व रहितोऽपि कारको भवति । (रुद्रभट्ट)
इसी बात का निर्देश आचार्य ने 'लग्नगस्य' शब्द का प्रयोग करके किया है। बलवान् रहने पर कारक विशेष रूप से तथा साधारण बली होने पर साधारण नाम मात्र फल देगा। इससे फल की मात्रा में न्यूनाधिक्य होता है, लेकिन कारकत्व की हानि नहीं होती ।
स्वत्रिकोणोच्चगोहेतुरन्योन्यं यदि कर्मगः ।
सुहृत्तद्गुणसम्पन्नः कारकश्चापि स स्मृतः ।। 3 ।।
स्वक्षेत्र, स्वोच्च व मूलत्रिकोण में होना कारकत्व का सामान्य हेतु है । केन्द्र में होना आवश्यक नहीं है। अतः अन्य भावों में भी यदि परस्पर 4. 10 में स्थित ग्रह स्वर्धादिगत होकर चतुर्थस्थ ग्रह का कारक होगा, यदि वह उसका अधिमित्र हो। यह कारकत्व किसी भी ग्रह से दशमस्थ ग्रह से निर्णीत होता है। अर्थात् जिस ग्रह से दशम में ग्रह हो तो दशमस्थ ग्रह उसका कारक हुआ ।
उदाहरणार्थ पंचम में वृश्चिक में मंगल तथा द्वितीयस्थ सिंह में गुरु हो तो मंगल के प्रति गुरु कारक है, गुरु के प्रति मंगल नहीं। इसी तरह वृश्चिक में मंगल तथा कुम्म में शुक्र हो तो शुक्र के प्रति मंगल कारक है । यह कारकत्व केन्द्र भावों से बाहर भी होता है। लेकिन अधिमित्रता रहने पर विशेष बलवान् होता है। जैसे मंगल व गुरु में अधिमित्रता होने से यह विशेष बली हुआ । मंगल की कारकता शुक्र के प्रति मित्रता रहने से अपेक्षाकृत कम बली रहेगा ।