हिंदू धर्म में भगवान श्रीराम के अनन्य भक्त और भारतीय महाकाव्य रामायण में सबसे महत्वपूर्ण पौराणिक चरित्र हैं। वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान एक वानर वीर थे। (वास्तव में वानर एक विशेष मानव जाति ही थी, जिसका धार्मिक लांछन (चिह्न) वानर अथवा उसकी लांगल थी। पुरा कथाओं में यही वानर (पशु) रूप में वर्णित है।) भगवान राम को हनुमान ऋष्यमूक पर्वत के पास मिले थे। हनुमान जी राम के अनन्य मित्र, सहायक और भक्त सिद्ध हुए। सीता का अन्वेषण (खोज) करने के लिए ये लंका गए। राम के दौत्य (सन्देश देना, दूत का कार्य) का इन्होंने अद्भुत निर्वाह किया। राम-रावण युद्ध में भी इनका पराक्रम प्रसिद्ध है। वाल्मीकि रामायण सुन्दर काण्ड के अनुसार लंका में समुद्रतट पर स्थित एक 'अरिष्ट' नामक पर्वत है, जिस पर चढ़कर हनुमान ने लंका से लौटते समय, समुद्र को कूद कर पार किया था। रामावत वैष्णव धर्म के विकास के साथ हनुमान का भी दैवीकरण हुआ। वे राम के पार्षद और पुन: पूज्य देव रूप में मान्य हो गये। धीरे-धीरे हनुमंत अथवा मारूति पूजा का एक सम्प्रदाय ही बन गया। 'हनुमत्कल्प' में इनके ध्यान और पूजा का विधान पाया जाता है। रामभक्तों द्वारा स्नान ध्यान, भजन-पूजन और सामूहिक पूजा में हनुमान चालीसा और हनुमान जी की आरती के विशेष आयोजन किया जाता है। अप्सरा पुंजिकस्थली (अंजनी नाम से प्रसिद्ध) केसरी नामक वानर की पत्नी थी। वह अत्यंत सुंदरी थी तथा आभूषणों से सुसज्जित होकर एक पर्वत शिखर पर खड़ी थी। उनके सौंदर्य पर मुग्ध होकर वायु देव ने उनका आलिंगन किया। व्रतधारिणी अंजनी बहुत घबरा गयी किंतु वायु देव के वरदान से उसकी कोख से हनुमान ने जन्म लिया।जन्म लेने के बाद हनुमान ने आकाश में चमकते हुए सूर्य को फल समझा और उड़कर लेने के लिए आकाश-मार्ग में गये। मार्ग में उनकी टक्कर राहु से हो गयी। राहु घबराया हुआ इन्द्र के पास पहुंचा और बोला- 'हे इन्द्र, तुमने मुझे अपनी क्षुधा के समाधान के लिए सूर्य और चंद्रमा दिए ।आज अमावस्या है, अत: मैं सूर्य को ग्रसने गया था, किंतु वहां तो कोई और ही जा रहा है।' इन्द्र क्रुद्ध होकर ऐरावत पर बैठकर चल पड़े। राहु उनसे भी पहले घटनास्थल पर गया। हनुमान ने उसे भी फल समझा तथा उसकी ओर झपटे। उसने इन्द्र को आवाज़ दी। तभी हनुमान ने ऐरावत को देखा। उसे और भी बड़ा फल जानकर वे पकड़ने के लिए बढ़े। इन्द्र ने क्रुद्ध होकर अपने वज्र से प्रहार किया, जिससे हनुमान की बायीं ठोड़ी टूट गयी और वे नीचे गिरे। यह देखकर पवनदेव हनुमान को उठाकर एक गुफ़ा में चले गये। संसार-भर की वायु उन्होंने रोक ली। लोग वायु के अभाव से पीड़ित होकर मरने लगे। मनुष्य-रूपी प्रजा ब्रह्मा के पास गयी। ब्रह्मा विभिन्न देवताओं को लेकर पवनदेव के पास पहुंचे। उनके स्पर्शमात्र से हनुमान ठीक हो गये। साथ आए देवताओं से ब्रह्मा ने कहा- 'यह बालक भविष्य में तुम्हारे लिए हितकर होगा। अत: इसे अनेक वरदानों से विभूषित करो।' इन्द्र ने प्रसन्नता से स्वर्ण के कमल की माला देकर कहा- 'मेरे वज्र से इसकी हनु टूटी है, अत: यह हनुमान कहलायेगा। मेरे वज्र से यह नहीं मरेगा।' सूर्य ने अपना सौंवा भाग हनुमान को दे दिया और भविष्य में सब शास्त्र पढ़ाने का उत्तरदायित्व लिया। यम ने उसे अपने दंड से अभय कर दिया कि वह यम के प्रकोप से नहीं मर पायेगा।वरुण ने दस लाख वर्ष तक वर्षादि में नहीं मरने का वर दिया।कुबेर ने अपने अस्त्र-शस्त्रों से निर्भय कर दिया।महादेव ने किसी भी अस्त्र से न मरने का वर दिया।ब्रह्मा ने हनुमान को दीर्घायु बताया और ब्रह्मास्त्र से न मरने का वर दिया। साथ ही यह वर भी प्रदान किया कि वह इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ होगा।विश्वकर्मा ने अपने बनाये अस्त्र-शस्त्रों से उसे निर्भय कर दिया। वर-प्राप्ति के उपरांत हनुमान उद्धत भाव से घूमने लगे। यज्ञ करते हुए मुनियों की सामग्री बिखेर देते या उन्हें तंग करते। पिता वायु और केसरी के रोकने पर भी वे रुकते नहीं थे। अंगिरा और भृगुवंश में उत्पन्न ऋषियों ने क्रुद्ध होकर उन्हें शाप दिया कि ये अपने बल को भूल जायें। जब कोई उन्हें फिर से याद दिलाए तब उनका बल बढ़े। अंजनी ने हनुमान नामक पुत्र वानर रूप में देखा तो उसे शिव के रूप से भिन्न जानकर वह पवन देव से रुष्ट हो गयी। उसने हनुमान को शिखर से नीचे फेंक दिया। उसके गिरने से पर्वत चूर-चूर हो गया। धरती कांपी, सब व्याकुल हो गये। हनुमान ने पृथ्वी पर गिरकर आकाश में सूर्य उगता देख उसे निगलना चाहा। राहु भाग गया। हनुमान इन्द्र की ओर भी झपटा। इन्द्र ने उस पर प्रहार किया। शिव ने आकाशवाणी में बताया कि वह उनका पुत्र है, उसे समस्त देवताओं के वर प्राप्त हैं। पवन ने अंजनी को सब कह सुनाया और बालक थमा दिया। हनुमान ने सूर्य से विद्या सीखी और गुरु-दक्षिणास्वरूप यह वचन दिया कि वह सूर्य-पुत्र सुग्रीव का साथ देंगे। सीता-हरण के उपरांत राम रावण से युद्ध करने की तैयारी में लग गये। सुग्रीव की वानर सेना ने राम का पूरा साथ दिया। सुरसा रामायण के अनुसार समुद्र में रहने वाली नागमाता थी। सीताजी की खोज में समुद्र पार करने के समय सुरसा ने राक्षसी का रूप धारण कर हनुमान का रास्ता रोका और उन्हें खा जाने के लिए उद्धत हुई। समझाने पर जब वह नहीं मानी, तब हनुमान ने अपना शरीर उससे भी बड़ा कर लिया। जैसे-जैसे सुरसा अपना मुँह बढ़ाती जाती, वैसे-वैसे हनुमान शरीर बढ़ाते जाते। बाद में हनुमान ने अचानक ही अपना शरीर बहुत छोटा कर लिया और सुरसा के मुँह में प्रवेश करके तुरंत ही बाहर निकल आये। सुरसा ने प्रसन्न होकर हनुमान को आशीर्वाद दिया तथा उनकी सफलता की कामना की। सुरसा का सामना करने के बाद रामभक्त हनुमान सीताजी की खोज के लिए आगे बढ़ गये। रामचंद्र ने हनुमान को अपना दूत बनाकर लंका नगरी में रावण के पास भेजा। लंका के निकट पहुंचकर हनुमान ने बहुत छोटा रूप धारण किया तथा रात्रि के अंधकार में उसमें प्रवेश किया। लंका एक भयंकर नारी का रूप धारण करके हनुमान के पास पहुंची और बोली- 'मैं इस नगरी की रक्षा करती हूं, तुम मुझे परास्त किये बिना इसमें प्रवेश नहीं पा सकते।' साथ ही लंका ने हनुमान के मुंह पर एक चपत लगायी। हनुमान ने उसे नारी जानकर एक हल्का-सा घूंसा मारा किंतु वह गिर पड़ी और परास्त हो गयी। तदनंतर अत्यंत मुदित भाव से बोली-'मुझे ब्रह्मा ने वरदान दिया था कि जब कोई वानर आकर तुम्हें परास्त कर देगा तब समझ लेना, राक्षसों का नाश हो जायेगा। रावण ने सीता-हरण के द्वारा राक्षसों के नाश को आमन्त्रित किया है। तुम सीता को जाकर ढूंढ़ो।' हनुमान ने अशोकवाटिका में सीता को राम का संदेश दिया तथा लंका नगरी में उत्पात खड़ा कर दिया। अनेक राक्षसों को परास्त करके हनुमान ने अपनी वीरता का प्रदर्शन किया। अंत में रावण ने मेघनाद को भेजा। मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करके हनुमान को बांध लिया तथा उसे रावण के पास ले गया। रावण ने पहले तो हनुमान को मृत्युदंड देने का विचार किया किंतु विभीषण के यह सुझाने पर कि किसी के दूत को मारना उचित नहीं है, रावण ने उनकी पूंछ जलवाकर छोड़ दिया। जलती हुई पूंछ से हनुमान ने समस्त लंका जला डाली, फिर सीता को प्रणाम करके, समुद्र पार करके अंगद के पास पहुँचे। राम-रावण के प्रत्यक्ष युद्ध में भी हनुमान का अद्वितीय योगदान था। युद्धक्षेत्र में शत्रुओं के नाश और मित्रों की परिचर्या में वह समान रूप से दत्तचित्त रहते थे। एक बार युद्ध करते समय मेघनाद ने युद्धस्थल में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। उससे अधिकांश वानर सेना तथा राम-लक्ष्मण मूर्च्छित होकर गिर गये। मेघनाद प्रसन्नतापूर्वक लंका में लौट गया। विभीषण और हनुमान जांबवान को ढूंढ़ने लगे। घायल जांबवान ने विभीषण को देखते ही हनुमान का कुशल-क्षेम पूछा। विभीषण के यह पूछने पर कि आपने राम-लक्ष्मण, सेना आदि सबको छोड़कर हनुमान के विषय में ही क्यों पूछा तो जांबवान ने उत्तर दिया कि हनुमान ही एक मात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो हिमालय से औषधि ला सकते हैं, जो सबके जीवन की रक्षा करने में समर्थ है। तदनंतर जांबवान ने औषधिपर्वत का मार्ग तथा औषधियों की पहचान बतलायी। उसने मृत संजीवनी, विशल्यकरणी, सावर्ण्यकरणी तथा संधानकरणी नामक चार औषधियां लाने के लिए कहा। हनुमान ने अविलंब प्रस्थान किया। औषधि पर्वत पर पहुंचकर हनुमान ने देखा कि औषधियां विलुप्त हो गयीं, अत: दिखनी बंद हो गयीं। उन्होंने क्रुद्ध होकर औषधि पर्वत का शिखर उठा लिया और उड़ते हुए वानर सेना तथा राम-लक्ष्मण के निकट पहुंचे। पर्वत से ऐसी सुंगध आ रही थी कि राम और लक्ष्मण उठ बैठे। युद्ध के कारण जितने भी वानर मृतप्राय पड़े थे, वे सभी उस गंध से उठ बैठे, किंतु राक्षसों को उनसे कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि मृतकों के सम्मानार्थ उन सभी राक्षसों को समुद्र में फेंक दिया गया था जो युद्ध में मारे गये थे। तदनंतर हनुमान उस पर्वत-शृंग को पुन: पर्वत पर रख आये।उन्होंने रामचंद्र की सहायता की। रावण शिव-भक्त थे किंतु राम ने शिव की आज्ञा ग्रहण करके ही रावण का नाश किया। शिव की भक्ति से मदमस्त होकर रावण ने एक बार कैलाश पर्वत को उखाड़ लिया था, फलत: रुष्ट होकर शिव ने शाप दिया था- 'कोई मनुष्य तुम्हारा नाश करेगा।' इसी कारण रावण कुमार्गगामी हो गया। वरुण से रावण के युद्ध में रावण की ओर से हनुमान ने युद्ध किया तथा उसके समस्त पुत्रों को बंदी बना लिया।वरुण ने अपनी पुत्री सत्यवती का तथा रावण ने अपनी दुहिता अनंगकुसुमा का विवाह हनुमान से कर दिया। सीता-हरण के संदर्भ में खर दूषण-वध का समाचार लेकर राक्षस-दूत हनुमान की सभा में पहुंचा तो अंत:पुर में शोक छा गया। अनंगकुसुमा मूर्च्छित हो गयी। तभी सुग्रीव के दूत ने वहां पहुंचकर कृत्रिम सुग्रीव (साहसगति) के वध का समाचार दिया तथा कहा कि सुग्रीव ने हनुमान को बुलाया है। हनुमान ने राम के पास पहुंचकर कृतज्ञता-ज्ञापन किया तथा कृतज्ञतावश श्रीराम का साथ देने का निश्चय किया। वह राक्षस समुदाय को शांत करके सीता को राम से मिलाने के लिए चल पड़े। मार्ग में महेंद्र आदि को राम की सहायतार्थ पहुंचने के लिए कहते गये। ससैन्य हनुमान ने लंका में पहुंचकर विभीषण को प्रेरित किया कि वह रावण को नर-नारी संग से बचने के लिए कहे। विभीषण पहले भी प्रयत्न कर चुका था तथापि उसने फिर से रावण से बात करने की ठानी। हनुमान ने रामप्रदत्त मुद्रिका सीता को दी। राम की विरहजन्य व्यथा बताकर तथा सीता को न घबराने का संदेश देकर हनुमान ने सीता का दिय। हनुमानजी ने सीता को राम का कुशल-क्षेम सुनाकर भोजन करने के लिए तैयार किया। हनुमान की कुलकन्याओं ने भोजन प्रस्तुत किया। तदनंतर हनुमान ने सीता से कहा- "आप मेरे कंधे पर चढ़ जाइये, मैं आप को रात तक पहुंचा देता हूं।" सीता ने पर-पुरुष का स्पर्श करना उचित न समझकर ऐसा नहीं किया और राम तक यह संदेश पहुंचाने के लिए कहा कि वे अपने पूर्व वीर कृत्यों का स्मरण कर सीता को छुड़ा ले जायें। रावण को हनुमान के नंदन वन में पहुंचकर सीता से बात करने का समाचार मिला तो उसने उसे पकड़ लाने के लिए सेवकों को भेजा। हनुमान ने नंदन वन के वृक्ष तोड़-ताड़कर उन्हें मारा-पीटा। लंका को तहस-नहस करके वह रावण के पास पहुंचा। रावण के कहने से उसे जंजीरों से बांध दिया गया। हनुमान उन बंधनों को तोड़कर किष्किंधापुरी की ओर चल दिये। राम-लक्ष्मण को सीता का संदेश देकर पवन-पुत्र ने अपने सहयोगियों को एकत्र किया तथा राम ने सभा मंडल को संदेश भेजा।