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हिन्दू तीर्थ स्थान

 

जगन्नाथपुरी धाम

 
हिन्दुओं के चार धामों में से एक गिने जाने वाला यह तीर्थ पुरी, ओड़िसा में स्थित है। यह भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। रथ यात्रा यहाँ का प्रमुख और प्रसिद्ध उत्सव है। यह मन्दिर वैष्णव परंपराओं और संत रामानन्द से जुड़ा हुआ है। गोड़ीय वैष्णव संप्रदाय के संस्थापक चैतन्य महाप्रभु कई वर्श तक भगवान श्रीकृष्ण की इस नगरी में रहे थे।

कथाओं के अनुसार भगवान की मूर्ति अंजीर वृक्ष के नीचे मिली थी। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा इस मंदिर के मुख्य देव हैं जिन्हे अति भव्य और विशाल रथों में सुसज्जित करके यात्रा पर निकालते हैं। यह यात्रा रथ यात्रा के नाम से जानी जाती है जो कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीय को आयोजित की जाती है। रथ यात्रा का उत्सव भारत के अनेकों वैष्णव कृष्ण मन्दिरों में भी बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है एवं भगवान की शोभा यात्रा पूरे हर्ष उल्लास एवं भक्ति भाव से निकाली जाती है।

जगन्नाथ मंदिर वास्तव में एक बहुत बड़े परिसर का हिस्सा है जो लगभग 40000 वर्ग फिट में फैला हुआ है, मुख्य मन्दिर के शिखर पर भगवान विष्णु का श्री चक्र स्थापित है इस आठ कोणों के चक्र को “नीलचक्र” भी कहतें है जो अष्टधातु का बना है। यह मन्दिर अपने उच्च कोटि के षिल्प एवं अदभुत उड़िया स्थापत्यकला के कारण भारत के भव्यतम मन्दिरों में गिना जाता है। मुख्य मंदिर के चारों ओर परिसर में करीब 30 छोटे-छोटे मंदिर हैं, जिनमें विभिन्न देवी-देवता विराजमान हैं। और वे अलग-अलग समय में बने  है। मंदिर के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि यहाँ विश्व का सबसे बड़ा रसोई घर है जहाँ भगवान को अर्पण करने के लिये भोग तैयार किया जाता है जिसे 500 रसोईये तथा उनके 300 सहयोगी पूर्ण मनोयोग से तैयार करते हैं। खास बात यह भी है की इस भोग को तैयार करने में किसी धातु पात्र का प्रयोग नहीं होता है वरन् मिट्टी के पात्रों में ही सामग्री पकाई जाती है। 

यूं तो शास्त्रों में खंडित प्रतिमाओं की पूजा निषिद्ध बताई गई है परन्तु जगन्नाथपुरी में असंपूर्ण विग्रह की सेवापूजा व दर्शन होते है। 

यहाँ पर भगवान जगन्नाथ, भगवान बलभद्र एवं देवी सुभद्रा की मुर्तियाँ एक रत्न मण्डित पाषाण चबूतरे पर गर्भ गृह में स्थापित है। इतिहास के अनुसार इन मूर्तियों की अर्चना मंदिर निर्माण के कही पहले से ही की जाती रही है। 

इस मन्दिर के महत्व का पता इस बात से ही चलता है कि महान सिक्ख सम्राट महाराजा रंणजीत सिंह जी ने स्वंर्ण मन्दिर से भी ज्यादा सोना इस मन्दिर को दान दिया था। आज भी विश्व के कोने कोने से हिन्दु श्रद्धालु लाखों की संख्या में यहाँ आकर भगवान के दर्शन कर बड़ी मात्रा में चढ़ावा चढ़ाते है।

द्वारिका धाम

 द्वारिका हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ स्थान है। द्वारिका भारत के पश्चिम में समुद के किनारे सौराष्ट्र प्रान्त में बसी है। यह चारों धामों में एक है। आज से हजारों वर्ष पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने इसे बसाया था। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ, गोकुल में वह पले बड़े परन्तु शासन उन्होंने द्वारिका में ही किया, पहले मथुरा ही श्रीकृष्ण की राजधानी थी परन्तु कालान्तर में उन्होंने मथुरा को छोड़कर द्वारिका को अपनी राजधानी बनाया। यही से उन्होंने सारे देश की बागडोर संभाली, धर्म की रक्षा की, अधर्म का नाश किया, पापियों को दंडित किया। 


द्वारिका एक छोटा कस्बा है, कस्बे के एक हिस्से में चहारदीवारी के अन्दर बड़े बड़े दिव्य मंदिर है। द्वारिका की सुन्दरता अद्वितीय है। द्वारिका के बारे में कहा जाता है कि इस नगर की स्थापना स्वयं विश्वकर्मा देव ने अपने हाथों से की थी तथा उन्ही के कहने पर श्रीकृष्ण जी ने तप करके समुद्रदेव से भूमि के लिये प्रार्थना की थी तथा प्रसन्न होकर समुद्रदेव ने उन्हें बीस योजन भूमि प्रदान की थी। यहाँ भगवान श्रीकृष्ण का द्वारिकाधीश मंदिर सुन्दरता एवं वास्तुकला का अदभुत उदाहरण है। चूँकि भगवान श्रीकृष्ण को सम्पूर्ण जगत का स्वामी माना गया है इसलिये द्वारिकाधीश मंदिर को जगत मंदिर भी कहते है। 

यह मंदिर लगभग 2500 वर्ष पुराना है तथा इसके गर्भगृह में भगवान द्वारिकाधीश की स्थापना है। यहाँ उनका काले रंग का विगृह चर्तुभुज विष्णु का रूप है। इस भव्य मंदिर का भवन पाँच मंजिला है तथा यह भवन 72 खम्बों पर टिका है, यह मंदिर लगभग 80 किट ऊँचा है। गुम्बद पर सूर्य एवं चन्द्रमा के चित्र अंकित लम्बी पताका लहराती रहती है। यह अति सुन्दर मंदिर आशचर्यजनक रूप से गोमती नदी एवं अरब सागर के संगम स्थल पर स्थित है। 

इस मंदिर में एक बहुत ऊँचा शानदार दुर्ग और श्रद्धालुओं के लिये एक विशाल भवन भी बना है। मंदिर में दो खूबसूरत प्रवेशद्वार बने है। इसके मुख्य द्वार को मोक्ष द्वार तथा दक्षिणी द्वार को स्वर्ग द्वार कहते है। 

यहाँ से मात्र 12 कि0मी0 की दूरी पर नागेश्वर महादेव जी का मंदिर है जो भगवान शिव के 12 ज्योतिलिंगों में एक माना जाता है। इसके अतिरिक्त गोपि तालाब, रूकमणि मंदिर, निश्पाप कुण्ड, रणछोड़ जी मंदिर दुर्वासा और त्रिविक्रम मंदिर, कशेश्रर मंदिर, शरदा मठ, चक्र तीर्थ, भेट द्वारिका, कैलाश कुण्ड, शेख तालाब आदि अति पर्वित्र एवं दर्शनीय स्थल है।

 बद्रीनाथ धाम

 

बद्रीनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य में स्थित है, यह पवित्र तीर्थ स्थल हिन्दुओं के चारों धाम में एक है। भगवान बद्रीनाथ धाम में विष्णू भगवान का मन्दिर है। बद्रीनाथ धाम चारों ओर से बर्फ से ढ़की पर्वत श्रंखलाओं से घिरा है। इस धाम का हिन्दु धर्मशास्त्रों, पुराणों में कई स्थान पर उल्लेख हुआ है।

 


यह इतना पवित्र धाम है कि यह मान्यता है कि स्वयं भगवान ब्रह्या ने यहां पर मानव एवं देवताओं के लिये पूजा का समय निर्धारित किया है। यहां पर देवता वैषाख माह के प्रारम्भ होने पर मनुष्यों को पूजा का भार सौंपकर अपने स्थान पर चले जाते है फिर कार्तिक माह में मनुष्यों से पूजा का भार पुनः ग्रहण करते है। यह मन्दिर अप्रैल में खुलकर नवम्बर में बन्द हो जाता है क्योंकि तब यहां पर सिर्फ बर्फ ही बर्फ जमी रहती है।

हिन्दु धर्म की मान्यता के अनुसार मन्दिर का पट बन्द होने से पूर्व यहां पर 6 महीने के लिये नहाने, खाने एवं भगवान बद्रीनाथ के लिये दातून की व्यवस्था की जाती है तथा 6 माह के लिये अखण्ड दीपक प्रज्जवलित किया जाता है जो 6 माह के बाद भी यहां पर जलता हुआ मिलता है।

भगवान बद्रीनाथ की मूर्ति को जगत गुरू शंकराचार्य ने 11 वर्ष की उम्र में नारद कुण्ड से निकालकर उसे स्थापित किया था। यह दिव्य मूर्ति एक मीटर लम्बी है, यह अद्भुत मूर्ति स्वयं निर्मित है इसे किसी ने भी नही बनाया है। वर्तमान में नम्बूरीपाद एवं डिमरी ब्राह्यणों द्वारा भगवान बद्रीनाथ की पूजा अर्चना की जाती है। मन्दिर के कपाट खुलने के बाद हर वर्ष लाखों लोग विश्व के कोने-कोने से अपने अराध्य देव के दर्शनों के लिये यहां आते है तथा अपनी समस्त इच्छाओं की पूर्ति की कामना के लिये प्रार्थना करते है। 

बद्रीनाथ के निकट ब्रह्म कपाल, संतोपथ सरोवर, चरण पादुका, शेषनेत्र, व्यास गुफा, भविष्य बदरी, आदि बदरी आदि अन्य पवित्र एवं अति दर्शनीय स्थल है। 

 रामेश्वरम धाम

 

रामेश्वर हिन्दुओं का एक अत्यन्त पवित्र तीर्थ है जो भारत के तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। रामेश्वरम नाम से ही पता लगता है कि यह कितनी पवित्र जगह होगी। रामेश्वरम अर्थात (राम + ईश्वर) कहते है कि भगवान राम ने लंका विजय के बाद अनगिनत योद्धाओं के मारे जाने एवं रावण जैसे चारों वेदों के ज्ञाता एवं शिव भक्त की मृत्यु से लगे ब्रहम हत्या का पाप धोने के लिये यहाँ पर शिवलिंग की स्थापना की थी। स्वयं भगवान राम द्वारा यह शिवलिंग स्थापित करने के कारण यह स्थान अत्यन्त पवित्र एवं मनुष्यों के सभी पापों का नाश करने वाला है। यहाँ स्थापित शिवलिंग 12 ज्योर्तिलिंगों में एक माना जाता है तथा रामेश्वर धाम की गणना हिन्दुओं के पवित्रतम चारो धामों में की जाती है। कहते है जिस प्रकार उत्तर में पवित्र नगरी काशी का स्थान है वही मान्यता दक्षिण में इस अति पूजनीय तीर्थ को प्राप्त है।

 रामेश्वर धाम चेन्नई से दक्षिण-पूर्व में लगभग 425 मील की दूरी पर स्थित है। यह शंख के आकार का अति सुन्दर द्वीप है जो हिन्द महासागर तथा बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा है। प्राचीन काल में यह भारत की मुख्य भूमि से जुड़ा था लेकिन धीरे-धीरे समुद्र की लहरों ने इसे काट दिया और यह एक टापू बन गया। यही पर भगवान राम ने नल नील तथा वानर सेना के सहयोग से एक पुल बनाया था जिस पर चड़कर लंका पर विजय प्राप्त की थी परन्तु बाद में यह पुल धनुषकोटि नामक स्थान पर विभिषण के कहने पर तोड़ दिया गया था। आज भी इस पुल के अवशेष सागर में दिखायी देते है। 

रामेश्वर का मंदिर अत्यन्त भव्य सुन्दर एवं विशाल है। यह मंदिर भारतीय वास्तु एवं शिल्प कला का उत्कर्ष नमूना है यह मंदिर 6 हेक्टेयर में फैला है, इसके प्रवेशद्वार का गोपुरम अत्यन्त भव्य एवं विशाल है तथा यह 38.4 मीटर ऊँचा है मंदिर के अन्दर और प्राकार में सैकड़ो विशाल खम्भें है जिन पर अलग-अलग अति सुन्दर बेल-बूटे उकेरे गये है। इस मंदिर का गलियारा विश्व का सबसे बड़ा गलियारा माना जाता है। इस मंदिर में कई लाख टन पत्थर लगे है मंदिर के अन्दर भीतरी भाग में चिकना काला पत्थर लगा हैं कहते है यह पत्थर लंका से नावों पर लादकर लाये गये थे। 

रामेश्वरम से लगभग 33 मील दूर रामनाथपुरम नामक स्थान है। कहते है मंदिर को बनाने एवं इसकी रक्षा करने में यहाँ के राजाओं का प्रमुख योगदान रहा है। यहाँ के राजभवन में एक काला पत्थर रखा हुआ है मान्यता है कि यह पत्थर भगवान राम ने केवटराज के राजतिलक में उसके चिन्ह के रूप में प्रदान किया था इस लिये श्रद्धालु इस पत्थर के दर्शन के लिये यहाँ जरूर आते है। 

यहाँ पर इसके अतिरिक्त विल्लीरणि तीर्थ, सेतू माधव, बाइस कुण्ड, एकांत राम, सीता कुण्ड, आदि सेतु, राम पादुका मंदिर, कोदण्ड स्वामी मंदिर आदि प्रमुख एतिहासिक, पवित्र एवं दर्शनीय स्थल है।

वैष्णोदेवी

"वैष्णो देवी" मंदिर शक्ति को समर्पित एक पवित्रतम हिंदू मंदिर है, जो भारत के जम्मू और कश्मीर में .त्रिकूट पर्वत की पहाड़ी पर स्थित है. हिंदू धर्म में वैष्णो देवी , जो माता रानी और वैष्णवी के रूप में भी जानी जाती हैं, देवी मां का अवतार हैं. कहते हैं कि पहाड़ों वाली माता वैष्णो देवी सबकी मुरादें पूरी करती हैं। उसके दरबार में जो कोई सच्चे दिल से जाता है, उसकी हर मुराद पूरी होती है। ऐसा ही सच्चा दरबार है - माता वैष्णो देवी का माता के भक्त मानते हैं कि माता जब बुलाती है तो भक्त किसी न किसी बहाने से उसके दरबार पहुँच ही जाता है। जो बिना बुलाए जाता है, वह कितना ही चाह ले माता के दर्शन नहीं कर पाता है। यहाँ आदिशक्ति के तीन रूप हैं - पहली महासरस्वती जो ज्ञान की देवी हैं, दूसरी महालक्ष्मी जो धन - वैभव की देवी और तीसरी महाकाली या दुर्गा शक्ति स्वरूपा मानी जाती है। मां वैष्णो देवी के गुफा में महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती पिंडी रूप में स्थापित हैं ।

 

मां वैष्णो देवी का यह प्रसिद्ध दरबार हिन्दू धर्मावलम्बियों का एक प्रमुख तीर्थ स्थल होने के साथ - साथ 51 शक्तिपीठों में से एक मानी जाती हैं, जहाँ दूर - दूर से लाखों श्रद्धालु माँ के दर्शन के लिए आते हैं। यह उत्तरी भारत में सबसे पूजनीय पवित्र स्थलों में से एक है। भूगर्भ शास्त्री भी इस गुफा को कई अरब साल पुरानी बताते हैं। मंदिर, जम्मू और कश्मीर राज्य के जम्मू जिले में कटरा नगर के समीप है. यह उत्तरी भारत में सबसे पूजनीय पवित्र स्थलों में से एक है. मंदिर, 5,200 फ़ीट की ऊंचाई और कटरा से लगभग 12 किलोमीटर (7.45 मील) की दूरी पर स्थित है. हर साल लाखों तीर्थयात्री मंदिर का दर्शन करते हैं और यह भारत में तिरूमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला धार्मिक तीर्थ-स्थल है. इस मंदिर की देख-रेख श्री माता वैष्णो देवी तीर्थ मंडल द्वारा की जाती है. तीर्थ-यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए उधमपुर से कटरा तक एक रेल संपर्क बनाया जा रहा है। 

हिन्दू पौराणिक मान्यताओं में जगत में धर्म की हानि होने और अधर्म की शक्तियों के बढऩे पर आदिशक्ति के सत, रज और तम तीन रूपमहासरस्वती, महालक्ष्मी और महादुर्गा ने अपनी सामूहिक बल से धर्म की रक्षा के लिए एक कन्या प्रकट की। इस कन्या ने त्रेतायुग में भारत के दक्षिणी समुद्री तट रामेश्वर में पण्डित रत्नाकर की पुत्री के रूप में जन्म लिया । रत्नाकर ने बच्ची को त्रिकुता नाम दिया, परन्तु भगवान विष्णु के अंश रूप में प्रकट होने के कारण वैष्णवी नाम से विख्यात हुई। लगभग 9 वर्ष की होने पर उस कन्या को जब यह मालूम हुआ है भगवान विष्णु ने इस पृथ्वी में भगवान श्रीराम के रूप में अवतार लिया है। तब वह भगवान श्रीराम को पति मानकर उनको पाने के लिए कठोर तपस्या करने लगी। जब श्रीराम सीता हरण के बाद सीता की खोज करते हुए रामेश्वर पहुंचे। तब उन्होंने समुद्र तट पर ध्यानमग्र कन्या को देखा। उस कन्या ने भगवान श्रीराम से उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करने को कहा। भगवान श्रीराम ने उस कन्या से कहा कि उन्होंने इस जन्म में सीता से विवाह कर एक पत्नीव्रत का प्रण लिया है। किंतु कलियुग में मैं कल्कि अवतार लूंगा और तुम्हें अपनी पत्नी रूप में स्वीकार करुंगा। उस समय तक तुम हिमालय स्थित त्रिकूट पर्वत की श्रेणी में जाकर तप करो और भक्तों के कष्ट और दु:खों का नाश कर जगत कल्याण करती रहो। जब श्री राम ने रावण के विरुद्ध विजय प्राप्त किया तब मां ने नवरात्र मनाने का निर्णय लिया। श्री राम ने वचन दिया था कि समस्त संसार द्वारा मां वैष्णो देवी की स्तुति गाई जाएगी, त्रिकुटा, वैष्णो देवी के रूप में प्रसिद्ध होंगी और सदा के लिए अमर हो जाएंगी। 

कटरा के पास हंसाली गांव में मां वैष्णवी के परम अनुयायी श्रीधर रहते थे। वह नि:संतान होने से दु:खी रहते थे। एक बार उसने नवरात्रि पूजा में कन्या पूजन हेतु कन्याओं को बुलाया। उन कन्याओं के साथ माता वैष्णोंदेवी भी आई। पूजन के बाद सभी कन्याएं तो चली गई पर माँ वैष्णोदेवी वहीं रहीं और श्रीधर से कहा कि पूरी बस्ती को भोजन करने का बुलावा दे दो। श्रीधर ने उस कन्या रुपी माँ वैष्णवी की बात मानकर पूरे गांव को भोजन के लिए निमंत्रण देने चला गया। वहां से लौटकर आते समय बाबा भैरवनाथ और उनके शिष्यों को भी भोजन का निमंत्रण दिया। 

इसके बाद श्रीधर के घर में अनेक गांववासी आकर भोजन के लिए एकत्रित हुए। तब कन्या रुपी माँ वैष्णोदेवी ने सभी को भोजन परोसना शुरु किया। भोजन परोसते हुए जब वह कन्या भैरवनाथ के पास गई। तब उसने कहा कि मैं तो मांस भक्षण और मदिरापान करुंगा। तब कन्या रुपी माँ ने उसे समझाया कि यह ब्राह्मण के यहां का भोजन है, इसमें मांसाहार नहीं किया जाता। किंतु भैरवनाथ ने जान-बुझकर अपनी बात पर अड़ा रहा। तब माँ ने उसके कपट को जान लिया। माँ ने वायु रुप में बदलकर त्रिकूट पर्वत की ओर चली गई। भैरवनाथ भी उनके पीछे गया। माना जाता है कि माँ की रक्षा के लिए पवनपुत्र हनुमान भी थे। इस दौरान माता ने एक गुफा में प्रवेश कर नौ माह तक तपस्या की। भैरवनाथ भी उनके पीछे वहां तक आ गया। तब एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे तू एक कन्या समझ रहा है, वह आदिशक्ति जगदम्बा है। इसलिए उस महाशक्ति का पीछा छोड़ दे।भैरवनाथ साधु की बात नहीं मानी। तब माता गुफा के दूसरे मार्ग से बाहर निकली। यह गुफा आज भी अद्र्धकुंवारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है। गुफा से बाहर निकल कर कन्या ने देवी का रुप धारण किया। माता ने भैरवनाथ को चेताया और वापस जाने को कहा। फिर भी वह नहीं माना। माता गुफा के भीतर चली गई। तब तक वीर हनुमान ने भैरव से युद्ध किया। भैरव ने फिर भी हार नहीं मानी तब माता वैष्णवी ने महाकाली का रुप लेकर भैरवनाथ का संहार कर दिया। भैरवनाथ का सिर कटकर त्रिकूट पर्वत की भैरव घाटी में गिरा। मृत्यु के पूर्व भैरवनाथ ने माता से क्षमा मांगी। तब माता ने उसे माफ कर वर भी दिया कि मेरा जो भी भक्त मेरे दर्शन के बाद भैरवनाथ के दर्शन करेगा उसके सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। 

उसी मान्यता के अनुसार आज भी भक्त माता वैष्णो देवी के दर्शन करने के बाद 8 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़कर भैरवनाथ के दर्शन करने को जाते हैं। इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं। इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो गए। वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था, अंततः वे गुफ़ा के द्वार पर पहुंचे, उन्होंने कई विधियों से 'पिंडों' की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली, देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं, वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया। तब से, श्रीधर और उनके वंशज देवी मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं । 

अपने सभी भक्तों के मनोरथ को पूर्ण करने वाली माँ वैष्णों के दरबार में वैसे तो पूरे वर्ष ही भक्तों का ताँता लगा रहता है लेकिन वैष्णो देवी में चैत्र और आश्विन दोनों नवरात्रियों में श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ता है। इस काल में यहां पर यज्ञ, रामायण पाठ, देवी जागरण आयोजित होते हैं। नवरात्रों के दौरान माँ वैष्णो देवी के दर्शन करने की विशेष मान्यता है।

तिरूपति बालाजी

 

तिरूपति बालाजी का मंदिर आध्रप्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित है। यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। यह मंदिर सात पहाड़ों से मिलकर बने तिरूमाला के पहाड़ों पर स्थित है, कहते है कि तिरूमाला की पहाड़ियाँ विश्व की दूसरी सबसे प्राचीन पहाड़ियाँ है। इस तिरूपति मंदिर में भगवान वेंकटश्वर निवास करते है। भगवान वेंकटश्वर को विष्णुजी का अवतार माना जाता है। यह मंदिर समुद्र तल से अट्ठाइस सौ फिट की ऊँचाई पर स्थित है। 

 

तिरूपति हिन्दुओं का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण तीर्थस्थान है। इस मंदिर को तमिल राजा ‘थोडईमाननें’ ने बनवाया था। कालान्तर में कई चोल तथा तेलुगु राजाओं ने इसे और भी ज्यादा विकसित किया। इस वजह से इस मंदिर पर तमिल कला की छाप स्पष्ट दिखायी पड़ती है। विजयनगर के प्रसिद्ध राजा कृष्णदेव राय की इस मंदिर पर अटूट आस्था थी, उन्होंने इस मंदिर में बहुत सा सोना-चाँदी, हीरे-जवाहरात आदि का दान दिया था। आज भी श्रद्धालु, भक्तगण इस मंदिर में चढ़ावे के रूप में करोड़ों की धनराशि, हीरे-जवाहरात, सोना-चाँदी आदि चढ़ाते है। 

यहाँ पर सभी धर्म के लोग लाखों की संख्या में पूरे विश्व से भगवान बालाजी के दर्शनों के लिए आते है तथा ऐसी मान्यता है कि बालाजी उनकी सभी इच्छाएँ पूरी करते है। तमाम बड़े-बड़े नेता, कलाकार एवं समाज के गणमान्य व्यक्ति इन पर अटूट श्रद्धा रखते है तथा भगवान के दर्शनों के लिए घंटों इन्तजार भी करते है। इस मंदिर का सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र इसका गोपुरम् है। मंदिर के गर्भग्रह के ऊपर आनन्द निलयम स्थित है जो सोने का बना है। मंदिर स्थल पर विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय और उनकी पत्नी की मूर्ति तथा अकबर के प्रसिद्ध मंत्री टोडरमल की मूर्ति लगी हुयी है। मुख्य मंदिर में भगवान बालाजी की अत्यन्त मनोहर मूर्ति स्थापित है जिसमें भगवान विष्णु और शिव दोनों का ही अद्भुत रूप समाया हुआ है।

तिरूपति मंदिर में प्रतिदिन भगवान वेंकटेश्वर की पूजा-अर्चना होती है। मंदिर में दिन की शुरूआत सुबह तीन बजे ‘सुप्रभातम्’ यानि भगवान को जगाने से होती है तथा सबसे अन्त में लगभग रात एक बजे ‘एकान्त सेवा’ यानि भगवान को सुलाया जाता है। भगवान की प्रार्थना, स्तुति जिसे सेवा और उत्सव कहते है प्रतिदिन, साप्ताहिक, पाक्षीय रूप में पूर्ण श्रद्धा से आयोजित की जाती है। तिरूपति बालाजी के मंदिर में हर वर्ष सितम्बर के महीने में ब्रहमोत्सव मनाया जाता है जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु देश-दुनिया के लोग कोने-कोने से भाग लेकर अपना जीवन सफल बनाते है।

गया


बिहार राज्य में स्थित गया भारत का प्रमुख पितृ तीर्थ है। पुराणों के अनुसार यह एक मुक्तिप्रद तीर्थस्थल है। यहाँ प्रत्येक वर्ष भाद्रपक्ष की चतुर्दशी से आश्विन पक्ष की अमावस्या तक 17 दिनों का पितृपक्ष मेला लगता है। पित्तर कामना करते है कि उनके वंश में कोई ऐसा पुत्र उत्पन्न हो जो गया जाकर वहाँ उनका श्राद्ध तथा पिण्डदान कर सके। 

ऐसी मान्यता है कि इस पुण्यक्षेत्र में पिता का श्राद्ध करके पुत्र अपने पितृऋण से मुक्त हो जाते है। यहाँ पर श्राद्ध करने से पूर्वजों की भटकती आत्मा को शान्ति मिलती है वे प्रेत योनि से मुक्त हो जाते है तथा प्रसन्न होकर श्राद्ध करने वाले को धन-धान्य, सुख समृद्धि एवं यशस्वी होने का आशीर्वाद देते है। 

 

गया में यात्री के श्राद्ध कर्म सात दिन के है परन्तु वर्तमान में एक दृष्टि गयाश्राद्ध ही ज्यादा चलन में है। इस एक दिन में गया श्राद्ध एवं पिण्डदान कराने वाले लोग फाल्गु नदी, विष्णु पद मन्दिर अक्षयवट में श्राद्ध, पिण्डदान कर गया पण्ड़ों द्वारा सुफल प्राप्त कर अनुष्ठान समाप्त करते है। 

इस जगह पर किये जाने वाले श्राद्ध एवं पिण्डदान का महत्व इसी बात से पता चलता है कि यहाँ पर भगवान राम ने अपने पिता राजा दशरथ का, भीष्म जी ने अपने पिता राजा शान्तनु का, भगवान कृष्ण ने अपने पिता वासुदेव जी का तथा युधिष्ठिर ने अपने पिता राजा पाण्डु का श्राद्ध एवं पिण्डदान किया था। 

फाल्गु तीर्थ, विष्णूपद मन्दिर, गदाधर भगवान, आदि गया, सूर्यकुण्ड, रामगया, सीताकुण्ड, उत्तर मानस, रामशिला, काकबलि, प्रेतशिला, ब्रह्मकुण्ड, अक्षयवट, मंगलागौरी, आकाशगंगा, ब्रह्मयोनि आदि यहाँ के पौराणिक, धार्मिक, अतिपूजनीय एवं महात्वपूर्ण तीर्थ है। 

गया क्षेत्र का महत्व इसी बात से पता चलता है कि प्राचीन काल से लेकर आज तक प्रति वर्ष लाखों मनुष्य विश्व के कोने-कोने से यहा आकर अपने पूर्वजों का श्राद्ध एवं पिण्डदान करके अपना जीवन सफल बनाते है तथा इस पूरे समय में पूर्ण संयम, निष्ठा एवं आत्म अनुशासन का परिचय देते हुये सभी प्रकार के व्यसनों का पूरी तरह से परित्याग करके स्वयं भी पुण्य अर्जित करते है।

 वाराणसी

 

हिन्दु धर्म में वाराणसी/बनारस का अत्यन्त पवित्र स्थान है यह भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित है। वाराणसी का प्राचीन नाम काशी है जो विश्व के प्राचीनतम नगरों में माना जाता है। यह भगवान शिव-पार्वती की नगरी है तथा वाराणसी का हिन्दु धर्म ग्रन्थों, पुराणों में बहुत ही उल्लेख हुआ है। इस नगर में हिन्दुओं की पवित्र पावन गंगा नदी बहती है तथा इसके घाट पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। हिन्दुओं के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक भगवान भोलेनाथ का विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मन्दिर यही पर स्थित है वैसे तो यहां पर पूरे वर्ष ही शिव भक्तों का तांता लगा रहता है परन्तु महाशिव रात्रि एवं पूरे सावन भर बनारस में श्रद्धालुओं का रेला उमड़ पड़ता है तथा वाराणसी का कोना-कोना हर-हर महादेव, बम-बम भोले के नाद से गूँजने लगता है। 

 

 

 वाराणसी विश्व में ज्योतिष, संस्कृत, योग और आर्युवेद के अध्ययन का प्रमुख केन्द्र है। वाराणसी में चार विश्वविद्यालय स्थित है इसमें B.H.U. अर्थात बनारस हिन्दु विश्व विद्यालय का नाम पूरे देश में प्रसिद्ध है। वाराणसी अपनी विशिष्ट साड़ियों एवं ज़री के काम के लिये भी जग प्रसिद्ध है। वाराणसी की सभ्यता अति प्राचीन है, प्राचीन समय से भारतीय शास्त्रीय संगीत का जाना-माना घराना बनारस से ही है। भारत के विश्व प्रसिद्ध अनेकों दार्शनिक, कवि, लेखक, साहित्यकार, संगीतकार, बनारस से ही निकले है। इसमें प्रसिद्ध शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ, प्रसिद्ध बांसुरीवादक पंड़ित हरि प्रसाद चैरसिया तथा विख्यात गायिका गिरजा देवी आदि प्रमुख है। हिन्दु धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ रामचरित्र मानस की रचना गोस्वामी तुलसीदास जी ने यहीं से की थी।

वाराणसी के बारे में कहते है कि माँ अन्नपूर्णा के आशीर्वाद से शहर की सीमा रेखा के अन्दर कोई भी व्यक्ति भूखा नही सो सकता है। यहां पर मृत्यूजंय महादेव मन्दिर, काल भैरवी मन्दिर, दुर्गा मन्दिर, माँ अन्नपूर्णा मन्दिर, संकट मोचक मन्दिर, तुलसी मानस मन्दिर, भारत माता मन्दिर अति पूज्य एवं दर्शनीय स्थल है।

हरिद्वार तीर्थ स्थल

 

हरिद्वार अर्थात हरि (ईश्वर) का द्वार यह पवित्र एवं मोक्षदायनी नगर भारत के उत्तराखण्ड राज्य में स्थित है। इस नगर को आदिकाल से ही बहुत पवित्र माना गया है। हिन्दुओं के वेदों, पुराणों, उपनिशदों आदि सभी धर्मशास्त्रों में इसका पूर्ण आदर के साथ कई बार उल्लेख हुआ है।, इसके तमाम धार्मिक एवं पौराणिक कारण भी है। 

 


अपने स्त्रोत गोमुख से निकलने के बाद गंगा नदी हरिद्वार से ही पहली बार मैदानी क्षेत्र में पहुँचती है अतः हरिद्वार को गंगाद्वार भी कहते है। समुद्र मंथन के बाद अमृत के घड़े से कुछ बूंदे हरिद्वार में गिरी थी अतः यहाँ पर कुंभ के मेले का आयोजन किया जाता है जिन अन्य स्थानों पर अमृत की बूँदे गिरी थी और कुंभ के मेले का आयोजन होता है वह है उज्जैन, नासिक एवं प्रयाग। इनमें उज्जैन, नासिक एवं हरिद्वार में हर 3 वर्ष के अन्तराल में तथा इलाहाबाद (उ0प्र0) में 12वें वर्ष महाकुम्भ का आयोजन किया जाता है। गंगाद्वार हरिद्वार में आयोजित इस कुंभ मेले का बहुत ही धार्मिक महत्व बताया गया है कहते है कुंभ में स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। अमृत की बूँदे हरिद्वार में जिस स्थान पर गिरी थी वह स्थान हर की पौड़ी में ब्रह्य कुण्ड कहलाता है कहते है ब्रह्य कुण्ड में अदभुत शक्ति है यहाँ नहाने से सभी शारीरिक रोगों में लाभ मिलता है। इस पवित्र जल में स्नान करने से श्रद्धालुओं को यहीं धरती पर ही स्वर्ग की प्राप्ति हो जाती है।

हरिद्वार या हरिद्वार का अर्थ हैः- हर (शिव) हरि (विष्णू) क्योंकि यह चार धाम यात्रा का प्रवेशद्वार है उत्तराखण्ड में 4 पवित्र धाम माने गये है बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमनोत्री। इन धामों की यात्रा गर्मी के महीने में ही हो पाती है। इस दौरान बड़ी संख्या में श्रद्धालु वहाँ पर जाते है। हरिद्वार में हर की पौड़ी का विशेष महत्व है हर की पौड़ी अर्थात प्रभु के चरण, कहते है भगवान विष्णू ने यहीं पर अपने चरण चिन्ह एक पत्थर पर छोड़े थे जहाँ पर हर समय गंगा जी इन्हे छूती रहती है। हर की पौड़ी में संध्या के समय होने वाली गंगा आरती को देखना और उसमें शामिल होना एक अदभुत अनुभव देता है। हरिद्वार में आने वाला प्रत्येक श्रद्धालु किसी भी सूरत में इस गंगा आरती में जरूर शामिल होता है, इस आरती में भक्तगण अपने पूर्वजों की आत्मा की शान्ति के लिये गंगा नदी में दिये बहाते है यह दृश्य बहुत ही मनोरम होता है। 

यहाँ पर कपिल मुनि का आश्रम भी है पुराणों के अनुसार राजा भगीरथ ने (जो भगवान श्री राम के पूर्वज थे) सतयुग में वर्षों की तपस्या के बाद अपने 60000 पूर्वजों की कपिल मुनि के श्राप से मुक्ति कराने के लिये गंगा नदी को पृथ्वी पर लाये थे जिसके बाद ही उनके पूर्वजों को श्राप से मुक्ति मिली थी, इसी कारण आज भी करोड़ो हिन्दु अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिये उनकी चिता की राख, उनकी अस्थियां यहीं पर गंगा नदी पर विसर्जित करते है। 

हरिद्वार में ब्रह्य कुण्ड तथा हर की पौड़ी के चारों ओर अनेकों प्राचीन भगवान शिव, विष्णू, दुर्गाजी एवं गंगा माँ के खूबसूरत मंदिर है अधिकांश मंदिर संगमरमर के बने है जिन पर बहुत ही सुन्दर नक्काशी है। 

हरिद्वार के पण्डों ने हिन्दु परिवारों को कई पीढ़ियों की विस्तृत वंशावली अपने पास संजों कर रखी है, जो कि गाँवों, नगरों, जिलों के आधार पर विशिष्ट पण्डों के पास उपलब्ध होती है। हिन्दु धर्म के मानने वाले तीर्थयात्रा शवदाह, अस्थियों या चिता की राख के विसर्जन के बाद इन वंशावली धारक पण्डों के पास जाकर अपने परिवार में जन्म, विवाह एवं मृत्यु आदि सभी जानकारियां अपनी वंशावली में अंकित कराते है समान्यतः किसी भी हिन्दु का जिसका जन्म भारत में हुआ है या पाकिस्तान में यहाँ पर अपने वंश के बारे में जानकारी प्राप्त हो सकती है इतनी प्राचीन, इतनी बृहद जानकारियों का रिकार्ड रखना सचमुच आश्चर्य में डाल देता है। 

हरिद्वार में चंडा देवी मंदिर, माया देवी मंदिर, मनसा देवी मंदिर आदि परम श्रद्धा के स्थान है।
 
 

तीर्थराज पुष्कर

 

ब्रह्म पुष्कर तीर्थ को सब तीर्थों का गुरू माना जाता है तथा सब तीर्थों की यात्रा का फल पुष्कर स्नान व दर्शन से ही मिलता है। अतः पुष्कर को तीर्थराज पुष्कर कहा जाता है। यह स्थान विश्व में भगवान ब्रह्म जी के एकमात्र प्रतिष्ठित मन्दिर के कारण भी विख्यात है। 

तीर्थराज पुष्कर अजमेर से 13 किमी0 की दूरी पर स्थित है। पुष्कर तीर्थ तीन ओर से अरावली श्रंखला की अति प्राचीन पहाड़ियों से घिरा है तथा एक ओर स्वर्णिम बालू मट्टी के टीले है जहाँ पर विश्व प्रसिद्ध पुष्कर मेला लगता है। 

पुष्कर सरोवर में यात्रियों के स्नानार्थ 52 घट बने हुये है। इनमें गऊ घाट, ब्रह्मघाट एवं वाराह घाट प्रमुख है। यहाँ पर प्रातः एवं सांयकाल पुष्करराज की आरती श्रंगार, स्तुति, भजन आदि में बड़ी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित रहते है। 

गऊ घाट में सिक्खों के गुरू गोविन्द सिंह जी ने सम्वत 1762 ई0 में गुरू ग्रन्थ साहब का पाठ कराया था। जार्ज पन्चम की पत्नी क्वीन मेरी ने भी यहाँ पर जनाना घाट बनवाया था। हमारे देश के कई प्रमुख राजनेताओं, महात्मा गाँधी, जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, श्रीमती इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी आदि की अस्थियां यही गऊ घाट पर ही विसर्जित की गयी है। 

ब्रह्मघाट यहा का प्रमुख घाट है यहाँ आदि शंकराचार्य एवं महामण्डलेश्वरों ने स्नान पूजा की थी तथा जयेन्द्र सरस्वती जी ने ब्रह्मघाट पर आदि शंकराचार्य का मंदिर बनवाया था। 

पुष्कर जैनियों का पद्मावती तीर्थ कहलाता है। यहाँ पर खुदाई में जैन मन्दिर के तमाम अवशेष प्राप्त हुये हैं। यहाँ पर दिगम्बर तथा श्रावेतम्बर नये जैन मन्दिर भी अति दर्शनीय है। 

हमारे देश के अनेक महान ऋषि मुनियों ने पुष्कर तीर्थ में अनेकों वर्षों तक कठिन तपस्या कर इच्छित वरदान प्राप्त किया है। इस पवित्र यज्ञस्थल पर इन ऋषि मुनियों के अनेक दर्शनीय स्थल है :- अत्रि जी, वसिष्ठ जी, कश्यप ऋषि, गौतम ऋषि, भारद्वाज ऋषि, विष्वामित्र जी, जमदग्नि जी ये सप्त ऋषि है, इसके अतिरिक्त अनेकों ऋषि मुनियों के तप एवं यज्ञ के कारण यह स्थान अत्यन्त पवित्र माना गया है। 

पुष्कर आदि अनादि तीर्थ है यह अत्यन्त पवित्र, पुण्य तपोभूमि क्षेत्र है इस तीर्थ में लाखों लोग पूरे विश्व से दान-पुण्य धर्म-कर्म स्नान दर्शन करके अपने पापों से मुक्ति एवं मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से आते है। इस अति पवित्र तीर्थ स्थल में सतयुग से ही जंगली जानवारों के शिकार, माँस, मछली, अण्डा, मदिरा तथा अन्य किसी भी प्रकार के नशीलें पदार्थों के सेवन पर पूरी तरह से रोक लगी है। 

पुष्कर में लगभग 500 मन्दिर है, इनमें से प्राचीन ब्रह्म मन्दिर, विष्णु वाराह भगवान का मन्दिर, अटपटेश्वर महादेव जी का मन्दिर ये सतयुग के मन्दिर है जिनके दर्शन का बहुत ही महात्मय बताया गया है। इस सभी मन्दिरों का विभिन्न काल खण्डों में समय-समय पर अनेक राजाओं मन्त्रियों, सेठों एवं श्रद्धालुओं ने जीणोद्वार करवाया है। नया एवं पुराना रंगनाथ मन्दिर भी अति दर्शनीय है। इसके अतिरिक्त 108 महादेव नवखण्डी हनुमान जी, ग्वालियर घाट शिवालय, रामाधाम, बड़ा गणेश जी, सन्तोषी माता मन्दिर, भटवाय गणेश जी, कपालेश्वर महादेव, झूलेलाल मन्दिर भी अति दर्शनीय है। 
 

इलाहाबाद संगम

 

इलाहाबाद भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित है प्राचीन समय में इसे तीर्थराज प्रयाग के नाम से जाना जाता था। इस शहर का प्राचीन नाम ‘अग्ग्र’ था जो संस्कृत का शब्द है तथा इसका अर्थ है त्याग स्थल। कहते है कि सृष्टि के रचयिता भगवान ब्रम्हा जी ने सृष्टि कार्य पूर्ण होने के बाद यहाँ पर प्रथम बलिदान दिया था। प्रयाग स्वयं ब्रम्हा जी एवं अनेको ऋषि मुनियों की तप एवं यज्ञस्थली रहा है। अतः इस क्षेत्र को बहुत ही पवित्र माना गया है। 


यहाँ पर तीन महा नदियों का मिलन होता है पहली है गंगा जी दूसरी है यमुना जी और तीसरी सरस्वती जी। यहाँ पर यह तीनों नदियाँ शान्त रूप से बहती है। सफेद निर्मल जल गंगा जी का, हल्का हरा यमुना जी का एवं सरस्वती जी की धारा यहाँ पर विलुप्त है इनके मिलन के स्थल को संगम कहते है। यह स्थान सबसे बड़े महाकुंभ की स्थली है यहाँ पर हर 12 वर्ष के पश्चात महाकुंभ के मेले का आयोजन किया जाता है। कहते है यहाँ पर कुंभ में स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप कट जाते है तथा वह जन्म-मरण के चक्र से छूटकर मोक्ष को प्राप्त करता है। इलाहाबाद में प्रत्येक वर्ष माघ माह में एक माह का माघ मेला लगता है जिसमें लोग दूर-दूर से आकर कल्पवास करते है। यह जगह इतनी पवित्र एवं मोक्षदायनी कही गयी है कि लोग दूर-दूर से अपने प्रियजनों की अस्थियां संगम के जल में प्रवाहित कर उनकी मुक्ति की कामना करते है। यहीं पर सन् 1945 ई0 में राष्ट्रपति महात्मा गाँधी की अस्थियां भी विसर्जित की गयी थी। 

इलाहाबाद का भारत पर बहुत अधिक प्रभाव है। भारत के सात प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी, गुलजारी लाल नन्दा, राजीव गाँधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह और चन्द्रशेखर जी यहाँ से सम्बन्धित है ये या तो यहाँ जन्मे है या यहाँ से पढ़े है या इलाहाबाद निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव में विजयी हुये है इसके अतिरिक्त बहुत से बुद्धिजीवी कवि, साहित्यकार, नेता, अभिनेता, गायक, वादक, वैज्ञानिक आदि यही से है। 

इलाहाबाद का किला, संगम, अशोक का एतिहासिक स्तम्भ, हनुमान मंदिर, शिव कुटी, भरद्वाज आश्रम, स्वराज भवन, खुसरौ बाग, आनन्द भवन, चन्द्रशेखर आजाद पार्क आदि अन्य दर्शनीय स्थल है। 

 

कुरूक्षेत्र


कुरूक्षेत्र भारत के हरियाणा राज्य के उत्तर में स्थित एक जिला है जो अम्बाला, यमुना नगर कैथल और करनाल से जुड़ा है। यही वह जगह है जहाँ पर कौरवों और पाण्डवों के मध्य महाभारत का भीषण युद्ध हुआ था जिसमें बड़ी संख्या में योद्धाओं की मौत हुयी थी, शायद इसीलिये आज भी खुदाई करने पर यहाँ की मिट्टी का रंग लाल दिखायी पड़ता है। 


यही पर युद्ध के दौरान भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था इस जगह को ज्योतिसर के नाम जाना जाता है जो यहाँ से मात्र 4 कि0मी0 की दूरी पर है। कुरूक्षेत्र को बहुत ही पवित्र तीर्थ माना जाता है, इसका हमारे वेदों, पुराणों एवं स्मृतियों में जगह-जगह में उल्लेख मिलता है। यहाँ की पौराणिक नदी संरस्वती भी अति वंदनीय है। कुरूक्षेत्र का सबसे प्रमुख आकर्षण ब्रह्म सरोवर है, सूर्यग्रहण के अवसर पर यहाँ एक विशाल मेले का आयोजन होता है जिसमें देश विदेश के लाखों लोग इस सरोवर में स्नान करके दान देकर पुण्य कमाते है, इस सरोवर का उल्लेख महाभारत तथा तमाम पुराणों में भी हुआ है। यहाँ का ‘सन्निहित सरोवर’ भी बहुत महत्व रखता है कहते है कि महाभारत के अति रक्तरंजित युद्ध के बाद पाण्डवों ने सभी दिंवगतों की मुक्ति के लिये यहाँ पर पिण्डदान किया था तभी से इस जगह में पिण्डदान का बहुत ही महत्व माना जाता है तथा प्रति वर्ष लाखों लोग अपने पूर्वजों का पिण्डदान यहाँ पर करवाते है तथा उनके मोक्ष की कामना करते है। समीप ही बाण गंगा का भी बहुत महत्व है कहते है यहाँ पर शर-शय्या पर लेटे भीष्म पितामह को प्यास लगने पर अर्जुन ने अपने बाण द्वारा धरती से जल निकाल कर पिलाया था। यहाँ पर श्री देवीकूप भद्रकाली मंदिर जो दुर्गा माँ के शक्तिपीठों में है श्रद्धा एवं आस्था का बहुत बड़ा केन्द्र है यहाँ पर माँ दुर्गा का दायां टखना गिरा था। कहते है इस सिद्ध शक्तिपीठ में पाण्डवों ने महाभारत के युद्ध से पूर्व अपनी विजय के लिये माँ भद्रकाली की पूजा-अर्चना की थी। मान्यता है कि श्रीकृष्ण एवं बलराम जी का मुण्डन संस्कार भी यहीं पर हुआ था। यहाँ का स्थानेश्रर महादेव मंदिर भी श्रद्धा का प्रमुख केन्द्र है, कुरूक्षेत्र में आने वाले श्रद्धालु भगवान भोलेनाथ के यहाँ पर अवश्य ही दर्शन करते है

 

सांई बाबा

 

शिरडी के सांई बाबा द्वारा शरीर त्यागे लगभग 90 वर्ष बीत गये है परन्तु उनकी ख्याति दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है आज ना केवल भारत में वरन पूरे विश्व में उनके करोड़ों अनुयायी हो गये है कहते है सांई सदैव अपने भक्तों का मार्गदर्शन करने उनकी चिन्ताओं, परेशानियों को दूर करने के लिये उनके साथ सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहते है कहा जाता है कि सन् 1854 को सत्यश्री सांई नाथ 15 साल की उम्र में पहली बार शिरडी आये थे, उनका दिव्य रूप अनायस ही लोगों का अपनी ओर आकर्शित कर लेता था, उनका आचरण सन्त महात्माओं की तरह था। कुछ दिन शिरडी में रहने के बाद सांई नाथ वापस चले गये। साई नाथ के जन्म, उनके परिवार, उनके बचपन के बारे में कोई भी पर्याप्त जानकारी नही है वह पूरे विश्व को ही अपना घर अपना परिवार समझते थे। 

 

 

 

जब सांई नाथ दोबारा शिरडी आये तो उस बार उन्होंने एक पुरानी वीरान मस्जिद में अपना निवास बनाया, यहाँ पर बाबा लगभग 60 वर्ष तक रहे, इस मस्जिद को बाबा ने द्वारिका माई नाम दिया जहाँ हर धर्म, हर वर्ग के लोगों को आश्रय मिलता था। धीरे-धीरे लोग बाबा की अदभुत शक्तियों को पहचानने लगे, लोग अपने दुख अपनी परेशानियाँ लेकर बाबा के पास आते और उनके आर्शीवाद से अपने कष्टों से छुटकारा पाते, बाबा के चमत्कार चारों दिशाओं में फैलने लगे चाहे कोई छोटा हो या बड़ा, अमीर हो या गरीब, साधू महात्मा, बड़े बड़े विद्वान, अधिकारी, राजनेता आदि सब इनकी शरण में आने लगे, बाबा ने हमेशा सबका ख्याल रखा सबके कष्टों को दूर किया। इनकी इसी ख्याति के कारण कुछ लोग उनसे जलने लगे उन्होंने बाबा के खिलाफ षड़यन्त्र भी रचे लेकिन अन्त में वह सभी बाबा के चरणों के दास हो गये। 

15 अक्टूबर 1918 को विजयदषमी के दिन बाबा ने महासमाधि ले ली, इसका पूर्वानुमान बाबा को पहले से ही हो गया था कहते है बाबा के पास एक ईंट थी जिसे वह हमेशा अपने साथ रखते थे, सांई दिन में इस पर हाथ टेकते थे तथा रात को यही ईंट इनका तकिया बन जाती थी, एक दिन 1918 ई0 के सितम्बर माह में एक भक्त से सफाई के समय यह ईंट टूट गयी बाबा उस समय बाहर भिक्षा लेने गये थे, लौटकर आने पर वह टूटी ईंट देखकर सांई बाबा ने अपने शरीर त्यागने की घोषणा कर दी और 15 अक्टूबर सन् 1918 के विजयदशमी के दिन सांई बाबा ने दोपहर लगभग 2:30 बजे महासमाधि ले ली। महासमाधि से पूर्व सांई बाबा ने अपने भक्तों को यह आशीर्वाद दिया कि उनके बाद उनकी समाधि भक्तों का कल्याण करेंगी वह सदैव अपने भक्तों के दिलों में निवास करेंगे। 

नागपुर के एक प्रसिद्ध सेठ बाबू साहिब बूटी सांई बाबा के परम भक्त थे वह बाबा के कहने से शिरडी में मन्दिर सहित बाड़ा बना रहे थे जिसमें भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति स्थापित होनी थी अपनी महासमाधि से पूर्व बाबा ने अपनी सेविका लक्ष्मीबाई षिंइ को 9 सिक्के आषीर्वाद के रूप में देते हुये कहां मुझे मस्जिद में अब अच्छा नही लगता है इसलिये मुझे बूटी के पत्थर बाड़े में ले चलों मैं वहीं पर सुखपूर्वक रहूँगा और फिर वही बाड़ा उनकी समाधि स्थल बन गया। 

बाबा के उपदेशों में संसार के सभी धर्मों का सार है बाबा कहते थे सबका मालिक एक है, उन्होंने सभी धर्मों के लोगों को मिलजुल कर एक साथ प्रेम से रहने को कहा। उन्होंने अपने सभी भक्तों को श्रद्धा और सबूरी (संयम) का पाठ पढ़ाया जो आज उनके करोड़ों भक्तों का गुरू यन्त्र है। 

शिरडी में बाबा की समाधि को दिव्य स्थान के रूप में मान्यता है और शिरडी स्थान को तीर्थ स्थान का दर्जा प्राप्त है आज विश्व के कोने-कोने से सभी धर्मों के लोग सांई बाबा के दर्शनों के लिये एक बार नहीं बार-बार यहाँ पर आते है और उनके दिव्य स्वरूप से अभिभूत होकर चारों तरफ उनकी शिक्षाओं को फैलाते है, इसी कारण भारत के कोने-कोने में सांई भक्तों ने बाबा के मंदिर बना रखे है।

 

सालासर बालाजी


 

सालासर बालाजी भगवान हनुमान के भक्तों के लिए एक धार्मिक स्थल है। यह राजस्थान के चूरू जिले में स्थित है। वर्ष भर में असंख्य भारतीय भक्त दर्शन के लिए सालासर धाम जाते हैं। हर वर्ष चैत्र पूर्णिमा और अश्विन पूर्णिमा पर बड़े मेलों का आयोजन किया जाता है। इस समय 6 से 7 लाख लोग अपने इस देवता को श्रद्धांजलि देने के लिए यहां एकत्रित होते हैं।

श्रावण शुक्ल नवमी, संवत् 1811- शनिवार को एक चमत्कार हुआ. नागपुर जिले में असोटा गांव का एक गिन्थाला-जाट किसान अपने खेत को जोत रहा था। अचानक उसके हल से कोई पथरीली चीज़ टकराई और एक गूंजती हुई आवाज पैदा हुई. उसने उस जगह की मिट्टी को खोदा और उसे मिट्टी में सनी हुई दो मूर्तियां मिलीं। उसकी पत्नी उसके लिए भोजन लेकर वहां पहुंची.किसान ने अपनी पत्नी को मूर्ति दिखाई. उसने अपनी साड़ी (पोशाक) से मूर्ति को साफ़ किया। यह मूर्ति बालाजी भगवान श्री हनुमान की थी. उन्होंने समर्पण के साथ अपने सिर झुकाए और भगवान बालाजी की पूजा की। भगवान बालाजी के प्रकट होने का यह समाचार तुरन्त असोटा गांव में फ़ैल गया। असोटा के ठाकुर ने भी यह खबर सुनी. बालाजी ने उसके सपने में आकर उसे आदेश दिया कि इस मूर्ति को चुरू जिले में सालासर भेज दिया जाये। उसी रात भगवान हनुमान के एक भक्त, सालासर के मोहन दासजी महाराज ने भी अपने सपने में भगवान हनुमान या बालाजी को देखा। भगवान बालाजी ने उसे असोटा की मूर्ति के बारे में बताया। उन्होंने तुरन्त असोटा के ठाकुर के लिए एक सन्देश भेजा. जब ठाकुर को यह पता चला कि असोटा आये बिना ही मोहन दासजी को इस बारे में थोडा बहुत ज्ञान है, तो वे चकित हो गए। निश्चित रूप से, यह सब सर्वशक्तिमान भगवान बालाजी की कृपा से ही हो रहा था. मूर्ति को सालासर भेज दिया गया और इसी जगह को आज सालासर धाम के रूप में जाना जाता है। दूसरी मूर्ति को इस स्थान से 25 किलोमीटर दूर पाबोलाम (भरतगढ़) में स्थापित कर दिया गया। पाबोलाम में सुबह के समय समारोह का आयोजन किया गया और उसी दिन शाम को सालासर में समारोह का आयोजन किया गया।

 

मंदिर में अखंड ज्योति (दीप) है, जो उसी समय से जल रही है। मंदिर के बाहर धूणां है। मंदिर में मोहनदासजी के पहनने के कड़े भी रखे हुए हैं। ऐसा बताते हैं कि यहां मोहनदासजी के रखे हुए दो कोठले थे, जिनमें कभी समाप्त न होनेवाला अनाज भरा रहता था, पर मोहनदासजी की आज्ञा थी कि इनको खोलकर कोई न देखें। बाद में किसी ने इस आज्ञा का उल्लंघन कर दिया, जिससे कोठलों की वह चमत्कारिक स्थिति समाप्त हो गयी।इस प्रकार यह श्रीसालासर बालाजी का मंदिर लोक-विख्यात है, जिसमें श्रीबालाजी की भव्य प्रतिमा सोने के सिंहासन पर विराजमान है। सिंहासन के ऊपरी भाग में श्रीराम-दरबार है तथा निचले भाग में श्रीरामचरणों में हनुमानजी विराजमान हैं। मंदिर के चौक में एक जाल का वृक्ष है, जिसमें लोग अपनी मनोकांक्षा की पूर्ति के लिए नारियल बांध देते हैं । 

सालासर धाम के मंदिर परिसर में हनुमान-भक्त मोहनदास और कानी दादी की समाधि है । मंदिर के सामने के दरवाजे से थोड़ी दूर पर ही मोहनदासजी की समाधि है, जहां कानीबाई की मृत्यु के बाद उन्होंने जीवित-समाधि ले ली थी। पास ही कानीबाई की भी समाधि है । यहां मोहनदासजी के जलाए गए अग्नि कुंड की धूनी आज भी जल रही है। यहाँ आने वाले भक्त इस अग्नि कुंड की विभूति अपने साथ ले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह विभूति भक्तों के सारे कष्टों को दूर कर देती है । पिछले बीस वर्षो से यहां निरंतर पवित्र रामायण का अखंड कीर्तन हो रहा है, जिसमें यहां आने वाला हर भक्त शामिल होता है और बालाजीके प्रति अपनी आस्था प्रकट करता है। प्रत्येक भाद्रपद, आश्विन, चैत्र तथा वैशाख की पूर्णिमा के दिन प्रतिवर्ष यहां बहुत विशाल मेले का आयोज़न होता है । इस विशाल मेले में देश-विदेश के लाखों की संख्या में श्रृद्धालु अपने आराध्य श्री बालाजी (सालासरजी) के दर्शनों से लाभान्वित होते हैं |।