स्थापत्य शास्त्र-१ : नगर रचना के श्रेष्ठतम उदाहरण

 

लेखक - सुरेश सोनी

 

 

हमारे यहां स्थापत्य शास्त्र की परिधि काफी व्यापक रही है। इसमें नगर रचना, भवन, मन्दिर, मूर्तियां, चित्रकला- सब कुछ आता था। नगरों में सड़कें, जल-प्रदाय व्यवस्था, सार्वजनिक सुविधा हेतु स्नानघर, नालियां, भवन के आकार-प्रकार, उनकी दिशा, माप, भूमि के प्रकार, निर्माण में काम आने वाली वस्तुओं की प्रकृति आदि का विचार किया गया था और यह सब प्रकृति से सुसंगत हो, यह भी देखा जाता था। जल प्रदाय व्यवस्था में बांध, कुआं, बावड़ी, नहरें, नदी आदि का भी विचार होता था।

 

किसी भी प्रकार के निर्माण हेतु शिल्प शास्त्रों में विस्तार से विचार किया गया है। हजारों वर्ष पूर्व वे कितनी बारीकी से विचार करते थे, इसका भी ज्ञान होता है। शिल्प कार्य के लिए मिट्टी, एंटें, चूना, पत्थर, लकड़ी, धातु तथा रत्नों का उपयोग किया जाता था। इनका प्रयोग करते समय कहा जाता था कि इनमें से प्रत्येक वस्तु का ठीक से परीक्षण कर उनका निर्माण में आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिए। परीक्षण हेतु वह माप कितने वैज्ञानिक थे, इसकी कल्पना हमें निम्न उद्धरण से आ सकती है-

 

महर्षि भृगु कहते हैं कि निर्माण उपयोगी प्रत्येक वस्तु का परीक्षण निम्न मापदंडों पर करना चाहिए।

 

वर्णलिंगवयोवस्था: परोक्ष्यं च बलाबलं।

यथायोग्यं, यथाशक्ति: संस्कारान्कारयेत्‌ सुधी:॥

(भृगु संहिता)

 

अर्थात्‌ वस्तु का वर्ण (रंग), लिंग (गुण, चिन्ह), आयु (रोपण काल से आज तक) अवस्था (काल खंड के परिणाम) तथा इन सबके कारण वस्तु की ताकत देखकर उस पर जो खिंचाव पड़ेगा, उसे देख-परखकर यथोचित रूप में सभी संस्कारों को करना चाहिए।

 

इनमें वर्ण का अर्थ रंग है। पर शिल्प शास्त्र में इसका उपयोग प्रकाश को परावृत करता है। अत: इसे उत्तम वर्ण कहा गया।

 

निर्माण के संदर्भ में अनेक प्राचीन ऋषियों के शास्त्र मिलते हैं, जैसे-

 

(१) विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र-इसमें विश्वकर्मा निर्माण के संदर्भ में प्रथम बात बताते हैं- ‘पूर्व भूमिं परिक्ष्येत पश्चात्‌ वास्तु प्रकल्पयेत्‌‘ अर्थात्‌ पहले भूमि परीक्षण कर फिर वहां निर्माण करना चाहिए। इस शास्त्र में विश्वकर्मा आगे कहते हैं उस भूमि में निर्माण नहीं करना चाहिए जो बहुत पहाड़ी हो, जहां भूमि में बड़ी-बड़ी दरारें हों आदि।

 

(२) काश्यप शिल्प-इसमें कश्यप ऋषि कहते हैं नींव तब तक खोदनी चाहिए जब तक जल न दिखे, क्योंकि इसके बाद चट्टानें आती हैं।

 

(३) भृगु संहिता-इसमें भृगु कहते हैं कि जमीन खरीदने के पहले भूमि का पांच प्रकार अर्थात्‌ रूप, रंग, रस, गन्ध और स्पर्श से परीक्षण करना चाहिए। वे इसकी विधि भी बताते हैं।

 

इसके अतिरिक्त भवन निर्माण में आधार के हिसाब से दीवारें, उनकी मोटाई, उसकी आन्तरिक व्यवस्था आदि का भी विस्तार से वर्णन मिलता है। इस ज्ञान के आधार पर हुए निर्माणों के अवशेष सदियां बीतने के बाद भी अपनी कहानी कहते हैं, जिसके कुछ निम्नानुसार हैं-

 

मोहनजोदड़ो (सिंध)-पुरातात्विक उत्खनन में प्राप्त ईसा से ३००० वर्ष पूर्व के नगर मोहनजोदड़ो की रचना देखकर आश्चर्य होता है। अत्यंत सुव्यवस्थित ढंग से बसा हुआ है यह नगर मानो उसके भवन तथा सड़कें - सब रेखागणितीय माप के साथ बनाए गए थे। इस नगर में मिली सड़कें एकदम सीधी थीं तथा पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण बनी हुई थीं। दूसरी आश्चर्य की बात यह कि ये एक-दूसरे से ९० अंश के कोण पर थीं।

 

भवन निर्माण अनुपात में था। एंटों के जोड़, दीवारों की ऊंचाइयां बराबर थीं। भोजनालय, स्नानघर रहने के कमरे आदि की उचित व्यवस्था थी। नगर में रिहायशी भवन, बगीचे, सार्वजनिक भवन के साथ ही बहुत बड़ा सार्वजनिक स्नानागार भी मिला था, जो ११.८२ मीटर लम्बा, ७.०१ मी. चौड़ा तथा २.४४ मीटर ऊंचा है, जिसमें पानी हेतु दो धाराएं थीं। दूसरी बात, दीवारों में एंटों पर ऐसा पदार्थ लगा था जिस पर पानी का असर न हो। इस नगर को देखकर ध्यान में आता है कि नगर को बसाने वाले निर्माण शास्त्र में बहुत पारंगत थे।

 

(२) द्वारका- इसी प्रकार डा. एस.आर.राव ने पुरातात्विक उत्खनन में द्वारका को खोजा और वहां जो पुरावशेष मिले वे बताते हैं कि द्वारका नगर भी सुव्यवस्थित बसा था। नगर के चारों ओर दीवार थी। भवन निर्माण जिन पत्थरों से होता था उनका समुद्री पानी में क्षरण नहीं होता था। दो मंजिले भवन, सड़कें तथा पानी की व्यवस्था वहां दृष्टिगोचर होती है। इस खुदाई में तांबा, पीतल व कुछ मिश्र धातुएं प्राप्त हुई हैं जिनमें जस्ता ३४ प्रतिशत तक मिश्रित है। निर्माण में आने वाले स्तंभ, खिड़कियों के पट आदि का माप व आकार पूर्ण गणितीय ढंग से था।

 

(३) लोथल बंदरगाह (सौराष्ट्र)-ईसा से २५०० वर्ष पूर्व लोथल का बंदरगाह बनाया गया, जहां छोटी नावें ही नहीं अपितु बड़े-बड़े जहाज भी रुका करते थे। यहां बंदरगाह होने के कारण एक बड़ा शहर भी बसा था। इसकी रचना लगभग मोहनजोदड़ो, हड़प्पा जैसी ही थी। सड़कें, भवन, बगीचे, सार्वजनिक उपयोग के भवन आदि थे। दूसरे, यहां श्मशान शहरी बस्ती से दूर बनाया गया था।

 

लोथल बंदरगाह ३०० मीटर उत्तर-दक्षिण तथा ४०० मीटर पूर्व-पश्चिम था और बाढ़, तूफान रोकने हेतु १३ मीटर की दीवार एंट, मिट्टी आदि की बनी थी। यह बंदरगाह बाद के काल बने में फोनेशियन और रोमन बंदरगाहों से बहुत विकसित था।

 

(४) वाराणसी-क्लॉड वेटली ने भारतीय शिल्प के बारे में लिखा है कि भारत की महान शिल्प विरासत की उपेक्षा की गयी है। बहुत सारी आधुनिक इमारतें भव्यता के बाद भी भारत को आबोहवा, मानसूनी हवाओं, जलवृष्टि और लंबरूप सूर्य के प्रकाश के कारण प्रतिकूल हैं।

 

भारत के परम्परागत वास्तु शिल्प की आवश्यक बातें पत्थर की कुर्सी, मोटी दीवारें, खिड़कियों का फर्स की ओर झुकाव, जिससे हवा का आगम-निर्गम (सरकुलेशन) उन्मुक्त रहे, भीतरी आंगन, तलघर, टेरेसनुमा छप्पर का निर्माण प्रचलित रहे हैं। भारतीय वास्तु शिल्प में इन बातों का ध्यान समुदाय की सुविधाओं और वृद्धिशील स्वास्थ्य के मद्देनजर रखा गया। वाराणसी विश्व का पहला नियोजित नगर माना गया है। प्राचीन भारत में जलशक्ति अभियांत्रिकी के विद्वान प्रो. भीमचन्द्र चटर्जी भारत के जल अभियांत्रिकी विज्ञान के बारे में लिखते हैं कि अयोध्या की राज्य परम्परा की चार पीढ़ियां अनवरत हिमालय से गंगा को लाने के लिए समर्पित रहीं और महान भगीरथ गंगा अवतरण में सफल हुए। गंगा का प्रवाह बंगाल की खाड़ी की ओर प्रवर्तित किया गया। वाराणसी के सामने गंगा को घुमाव दिया गया। यहां यह उत्तरामुखी होती है और इसकी दो शाखाएं होती हैं- वरुणा और असी। इनका जल पोषण गंगा ने किया। ऐसे घनत्व के स्थान जहां बाढ़ में जलागम बढ़ने पर अति जलागार को दूर प्रवाहित किया जा सके। बाढ़ रोकने का ऐसा अप्रतिम उदाहरण दूसरा नहीं।

 

(५) नगर नियोजन की नौ आवश्यक बातें (नवागम नगरम्‌ प्राहु:)

 

१. जलापूर्ति- पेयजल, जल-मल की शुद्धि।

 

२. मंडप-यात्रियों के लिए विश्रामालय, धर्मशालाएं, अतिथि गृह।

 

३. हाट-उपभोक्ता सामग्री क्रय-विक्रय स्थल।

 

४. दांडिक और पुलिस- अपराध अनुसंधान, दंड विधान की व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अराजक तत्वों से सुरक्षा।

 

५. बगीचा उद्यान- बाग-बगीचा, आमोद-प्रमोद और शिक्षा संस्थाओं के लिए।

 

६. आबादी- आवासीय व्यवस्था, कार्यशालाएं, कल कारखाने।

 

७. श्मशान- अन्तेष्टि स्थल और अस्थि विसर्जन की व्यवस्था।

 

८. स्वास्थ्य- अस्पताल, स्वास्थ्य निदान केन्द्र।

 

९. मन्दिर- देवी-देवता स्थल, सभी मतावलंबियों की सुविधा, समागम स्थल, सार्वजनिक समारोह।

 

(६) प्राचीन भारत में नगर नियोजन का दुर्लभ उदाहरण- कांजीवरम्‌ नगर नियोजन का अनुपम उदाहरण है। विश्व के नगर नियोजन विज्ञानी कांजीवरम्‌ का नियोजन देखकर दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। प्राचीन भारत में दक्षिण के नगर नियोजन के विशिष्ट वैभव के विषय में सी.पी.वेंकटराम अय्यर ने १९१६ में लिखा है कि प्राचीन नगर कांजीवरम्‌ परम्परागत श्रेष्ठ नगर नियोजन का एक दुर्लभ नमूना है। प्रोफेसर गेडेड ने इसे नगर नियोजन के भारत के चिन्तन और नागरिक सोच का उत्कर्ष कहा है और उसकी भूरि-भूरि सराहना की है। यहां अनुकूल आराम, कामकाजी दक्षता के अनुरूप नगर नियोजन ने प्रो.गेडेड की अत्यंत प्रभावित किया है। यह प्राचीन भारत में नगर नियोजन का ठोस सबूत है। प्रोफेसर गेडेड के विचार से नगर की योजना की यह उत्कृष्ट सोच है। नागरिक सोच की जितनी उत्कृष्ट कल्पना हो सकती है, शिल्पियों ने यहां उसे मूर्त रूप दिया है। उन्होंने मौलिक रूप से मन्दिरों के नगर को बहुत ही विलक्षण कल्पना से संवारा है। नगर को मंदिरों से मात्र आकार ही नहीं दिया गया है अपितु अनेक दृष्टियों से यह छोटी-छोटी बातों में समृद्ध है, जो आनंदित करता है। यहां समुदायों का अलग-अलग सपना साकार होता है। मानव की कल्पना तथा व्यवहार की गरिमा मूर्तरूप होती है। साथ ही व्यक्तिगत कलाकार को अपनी सुरुचिपूर्ण स्वायत्तता सुलभ है। अन्यत्र कहीं भी, यहां तक कि दुनिया के समृद्धतम नगरों में भी यह दुर्लभ है।

 

सेंट एम्ड्रयूज से ईडन, लिंकन से न्यूयार्क, आक्सफोर्ड से सेल्सबरी, एक्सेला चोपेले से कोलोग और फ्र्ीबर्ग रोबर से नाइम्स तक इसके विपरीत परिस्थितियां दृष्टिगोचर होती हैं। वहां नगर नियोजन के मामले में सम्यक्‌ बोध का अभाव और गिरावट है। झुग्गी-झोपड़ियों की बसावट है। इस सब विकृति से भारतीय नगर नियोजन कल्पना का मुक्त होना भारत के वास्तुवैभव, शिल्प की श्रेष्ठता और नगर नियोजन की समृद्धि का प्रमाण है। 

 

स्थापत्य शास्त्र-२ : अजंता, एलोरा, कोणार्क, खजुराहो - ये हैं भारतीय शिल्प की चमत्कारिक धरोहर

 

 

लेखक - सुरेश सोनी

 

२५००-३००० ई.पू. से लेकर १७वीं शताब्दी तक के देश के विविध हिस्सों में जल प्रदाय की व्यवस्था के आश्चर्यजनक नमूने मिलते हैं जिसमें बड़े तालाब, नहरें तथा अन्य स्थान से पानी का मार्ग परिवर्तित कर पानी लाने के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं।

 

कौटिल्य आज से २५०० वर्ष पूर्व अपने अर्थशास्त्र में कहते हैं कि राजा जिस पवित्र भाव से मन्दिर का निर्माण करता है उसी भाव से उसे जल रोकने का प्रयत्न करना चाहिए। आज पानी को लेकर चारों ओर हाहाकार है। लोग कहते हैं कि कहीं तीसरा विश्वयुद्ध पानी को लेकर न हो जाए। ऐसे समय में चाणक्य की बात ध्यान देने योग्य है। चाणक्य राजा को पवित्र भाव से जल रोकने का प्रयास करने की सलाह देकर ही नहीं रुके, अपितु आगे वे कहते हैं कि जनता को भी जल संरक्षण के लिए प्रेरित करना चाहिए। उस हेतु आर्थिक सहयोग देना चाहिए, आवश्यकता पड़ने पर वस्तु का सहयोग करना चाहिए, इतना ही नहीं तो व्यक्ति का भी सहयोग करना चाहिए।

 

कौटिल्य जल रोकने हेतु बांध बनाने का भी उल्लेख करते हैं तथा इसका भी वर्णन करते हैं कि बांध वहां नहीं बनाना चाहिए जहां दो राज्यों की सीमाएं मिलती हैं, क्योंकि ऐसा होने पर वह झगड़े की जड़ बनेगा। आज कावेरी तथा नर्मदा नदी के विवादों को देखकर लगता है वे बहुत दूरद्रष्टा थे।

 

दक्षिण में पेरुमामिल जलाशय अनंतराजा सागर ने बनवाया था। यह भारत में सिंचाई, शिल्प और प्रौद्योगिकी की कहानी कहता है। समीप के मंदिर की ओर दो पत्थर-शिलाओं पर बने शिलालेख (सन्‌ १३६९) से पता लगता है कि जलागार के निर्माण में दो वर्ष लगे। एक हजार श्रमिक लगाए गए और एक सौ गाड़ियां पत्थर निर्माण स्थल तक पहुंचाने में प्रयुक्त हुएं। शिलालेख में इस जलागार (जलाशय) के निर्माण स्थल के चयन और निर्माण के संबंध में बारह विशेष बातों का उल्लेख हैं, जो एक अच्छे तालाब के निर्माण के लिए आवश्यक हैं।

 

(१) शासक में कुछ भलाई, समृद्धि, खुशहाली के माध्यम से यश पाने की अभिलाषा हो। (२) पायस शास्त्र यानी जल विज्ञान में निपुणता हो। (३) जलाशय का आधार सख्त मिट्टी पर आधारित हो। (४) नदी जल का भण्डार करीब ३८ किलोमीटर से ला रही हो। (५) बांध के दो तरफ किसी पहाड़ी के ऊंचे शिखर हों। (६) इन दो पहाड़ी टीलों के बीच बांध ठोस पत्थर का बने। भले ही लंबा न हो, लेकिन सख्त हो। (७) ये पहाड़ियां ऐसी जमीन से भिन्न हों जो उद्यानिकी के अनुकूल और उर्वर होती हैं। (८) जलाशय का वेड (तल) लंबा, चौड़ा और गहरा हो। (९) सीधे, लम्बे पत्थरों वाली जमीन हो। (१०) समीप में निचली, उर्वर जमीन सिंचाई के लिए उपलब्ध हो। (१२) जलाशय बनाने में कुशल शिल्पी लगाए जाएं।

 

छह वर्जनाएं भी शिलालेख में उत्कीर्ण हैं, इन्हें हर हाल में टाला जाना चाहिए-

 

(१) बांध से रिसाव। (२) क्षारीय भूमि। (३) दो अलग शासित क्षेत्रों की सीमा में जलाशय का निर्माण। (४) जलाशय बांध के बीच में ऊंचाई वाला क्षेत्र। (५) कम जलापूर्ति आगम और सिंचाई के लिए अधिक फैला क्षेत्र। (६) सिंचाई के लिए अपर्याप्त भूमि और अधिक जलागम।

 

इसके अतिरिक्त ग्यारहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी में जल संरक्षण की संरचना के लिए जलाशयों के निर्माण को रोचक इतिहास देश में दर्ज है।

 

(१) अरिकेशरी मंगलम्‌ जलाशय (१०१०-११) के साथ मन्दिर की संरचना। (२) गंगा हकोदा चोपुरम्‌ जलाशय (१०१२-१०१४) के बांध, स्तूप और नहरों का विस्तार १६ मील लम्बा है। (३) भोजपुर झील (११वीं सदी) भोपाल से लगी हुई २४० वर्गमील में फैली है। इसका निर्माण राजा भोज ने किया था। इस झील में ३६५ जल धाराएं मिलती हैं। (४) अलमंदा जलाशय (ग्यारहवीं) विशाखापट्टनम्‌ में है। (५) राजत टाका तालाब (ग्यारहवीं शताब्दी) (६) भावदेव भट्ट जलाशय बंगाल में (७) सिंधुघाटी जलाशय (११०६-०७) मैसूर में स्लूस तक निर्माण किया गया है। (८) पेरिया क्याक्कल स्लूस (१२१९) त्रिचलापल्ली जिले में। (९) पखाला झील (१३वीं शताब्दी)। वारंगल जिले में हल संरचना का उदाहरण है। (१०) फिरंगीपुरम्‌ जलाशय (१४०९) गुंटूर जिले में शिल्प की विशिष्टता है। (११) हरिद्रा जलाशय (१४१०) व्राह्मणों ने अपने खर्चे से निर्मित कराया था। तब विजयनगर में राजा देवराज सत्तासीन थे। (१२) अनंतपुर जिले में नरसिंह वोधी जलाशय (१४८९) का उल्लेख भी आवश्यक है। (१३) १५२० में नागलपुर जलाशय-राजा कृष्णराज ने नागलपुर की पेयजल पूर्ति के लिए बनवाया था। कृष्णराज को भूजल सुरंग बनाने का पहला गौरव प्राप्त हुआ। विजयपुर, महमदनगर, औरंगाबाद, कोरागजा, वासगन्ना चैनलों का निर्माण इसी श्रृंखला की कड़ी है। (१४) शिवसमुद्र (१५३१-३२) आज भी बंगलुरू की जलपूर्ति का स्रोत है। (१५) तुगलकाबाद में बांध के जनक अनंगपाल (११५१) थे (१६) सतपुला बांध दिल्ली (१३२६) में ३८ फुट ऊंची महराबें है। (१६) जमुना की पुरानी नहर, जिसे फिरोजशाह तुगलक नहर (१३वीं शताब्दी) कहा गया, रावी पर बनी है।

 

कलात्मक स्थापत्य के अमर उदाहरण-

प्राचीन मंदिर

प्राचीनकाल में शिल्पियों के समूह होते थे, जो एक कुल की तरह रहते थे और कोई राजकुल या धनिक व्यक्ति भक्ति भावना से भव्य मन्दिर निर्माण कराना चाहता तो ये वहां जाकर वर्षों अंत:करण की भक्ति से, पूजा के भाव से, व्यवसायी बुद्धि से रहित होकर, मूर्ति उकेरने की साधना में संलग्न रहते थे। उनकी मूक साधना प्रस्तर में प्राण फूंकती थी। इसी कारण आज भी प्राचीन मंदिरों की मूर्तिकला मानो जीवंत हो अपनी कहानी कहती है। कोणार्क के सूर्य मन्दिर का निर्माण लगातार १२ वर्ष तक अनेक शिल्पियों की साधना का परिणाम है।

 

इस श्रेष्ठ भारतीय कला के अनेक नमूने देश के विभिन्न स्थानों पर दिखाई देते हैं।

 

एलोरा के मन्दिर जिनमें व्राह्मण मंदिर कैलास सबसे विशाल और सुन्दर है, इसके सभी भाग निर्दोष और कलापूर्ण हैं। इसकी लंबाई १४२ फुट, चौड़ाई ६२ फुट तथा ऊंचाई १०० फुट है। इस पर पौराणिक दृश्य उत्कीर्ण हैं।

 

एलीफेंटा की गुफा में शिव-पार्वती के विवाद वाले दृश्यों में मानो शिल्पी की सारी साधना मुखर हुई है।

 

उड़ीसा का लिंगराज मंदिर कला का श्रेष्ठतम नमूना है। यह मन्दिर ५२०न्४६५ वर्गफुट में स्थित है, मंदिर की ऊंचाई १४४.०५ फुट है तथा ७.५ फुट भारी दीवार से घिरा है। इसके चार प्रमुख भाग हैं:- विमान-जगमोहन-नट मन्दिर-भाग मंडप। मंदिर में अनेक देवताओं की सुंदर उकेरी गई मूर्तियों के साथ-साथ रामायण और महाभारत के अनेक प्रसंगों को उकेरा गया है।

 

खजुराहो के मन्दिर-यह नवीं शताब्दी के मंदिर हैं। पहले ८५ मंदिर थे, अब लगभग २० ही शेष रह गए हैं। खजुराहो के मन्दिर शिल्पकला के महान्‌ प्रतीक हैं। बाह्य दीवारों पर भोग मुद्रायें हैं। गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है।

 

इसके अतिरिक्त गुजरात में गिरनार के मन्दिर प्रसिद्ध हैं। दक्षिण भारत में श्रीरंगपट्टन का मंदिर सबसे बड़ा और स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना है। यहां पर एक सहस्र स्तंभों वाला (१६न्७०) मण्डप है, जिसका कमरा ४५०न्१३० फुट है। यहां गोकुल जैसा बड़ा और कलात्मक गोपुर और कहीं-कहीं कुण्डलाकार बेलें, पुष्पाकृतियों आदि अनोखी छटा उत्पन्न करते हैं।

 

११वीं शताब्दी का रामेश्वरम्‌ मंदिर चार धामों में से एक धाम है। मदुरई का मीनाक्षी मन्दिर कला का अप्रतिम नमूना है। इसकी लम्बाई ८४७ फुट, चौड़ाई ७९५ फुट ऊंचाई १६० फुट है। इसके परकोटे में ११ गोपुर हैं। एक सहस्र स्तंभों वाला मंडप यहां भी है और इसकी विशेषता है कि प्रत्येक स्तंभ की कारीगीरी, मूर्तियां व मुद्राएं भिन्न-भिन्न है। दक्षिण भारत में कला का यह सर्वश्रेष्ठ नमूना है।

 

इस प्रकार पूरे भारत में सहस्रों मंदिर, महल, प्रासाद प्राचीन शिल्पज्ञान की गाथा कह रहे हैं।

 

शिल्प के कुछ अद्भुत नमूने- (१) अजंता की गुफा में एक बुद्ध प्रतिमा है। इस प्रतिमा को यदि अपने बायीं ओर से देखें तो भगवान बुद्ध गंभीर मुद्रा में दृष्टिगोचर होते हैं, सामने से देखें तो गहरे ध्यान में लीन शांत दिखाई देते हैं और दायीं ओर देखें तो उनके मुखमंडल पर हास्य अभिव्यक्त होता है। एक ही मूर्ति के भाव कोण बदलने के साथ बदल जाते हैं।

 

(२) दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य में बना विट्ठल मंदिर शिल्पकला का अप्रतिम नमूना है। इसका संगीत खण्ड यह बताता है कि पत्थर, उनके प्रकार, विशेषता और किस पत्थर को कैसे तराशने से और किस कोण पर स्थापित करने पर उसमें से विशेष ध्वनि निकलेगी। इस खण्ड के विभिन्न स्तंभों से संपूर्ण संगीत व वाद्यों का अनुभव होता है। इसमें प्रवेश करते ही सर्वप्रथम सात स्तंभ हैं। इसमें प्रथम स्तंभ पर कान लगाएं और उस पर आघात दें। तो स की ध्वनि निकलती है और सात स्वरों के क्रम से आगे के स्तम्भों में से रे,ग,म,प,ध,नी की ध्वनि निकलती है। आगे अलग-अलग स्तंभों से अलग-अलग वाद्यों की ध्वनि निकलती है। किसी स्तम्भ से तबले की, किसी स्तंभ से बांसुरी की, किसी से वीणा की। जिन्होंने यह बनाया, उन्होंने पत्थरों में से संगीत प्रकट कर दिया। आज भी उन अनाम शिल्पियों की ये अमर कृतियां भारतीय शिल्प शास्त्र की गौरव गाथा कहती हैं।

 

चित्रकला

महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास स्थित अजंता की प्रसिद्ध गुफाओं के चित्रों की चमक हजार से अधिक वर्ष बीतने के बाद भी आधुनिक समय से विद्वानों के लिए आश्चर्य का विषय है। भगवान बुद्ध से संबंधित घटनाओं को इन चित्रों में अभिव्यक्त किया गया है। चावल के मांड, गोंद और अन्य कुछ पत्तियों तथा वस्तुओं का सम्मिश्रमण कर आविष्कृत किए गए रंगों से ये चित्र बनाए गए। लगभग हजार साल तक भूमि में दबे रहे और १८१९ में पुन: उत्खनन कर इन्हें प्रकाश में लाया गया। हजार वर्ष बीतने पर भी इनका रंग हल्का नहीं हुआ, खराब नहीं हुआ, चमक यथावत बनी रही। कहीं कुछ सुधारने या आधुनिक रंग लगाने का प्रयत्न हुआ तो वह असफल ही हुआ। रंगों और रेखाओं की यह तकनीक आज भी गौरवशाली अतीत का याद दिलाती है।

 

व्रिटिश संशोधक मि। ग्रिफिथ कहते हैं ‘अजंता में जिन चितेरों ने चित्रकारी की है, वे सृजन के शिखर पुरुथ थे। अजंता में दीवारों पर जो लंबरूप (खड़ी) लाइनें कूची से सहज ही खींची गयी हैं वे अचंभित करती हैं। वास्तव में यह आश्चर्यजनक कृतित्व है। परन्तु जब छत की सतह पर संवारी क्षितिज के समानान्तर लकीरें, उनमें संगत घुमाव, मेहराब की शक्ल में एकरूपता के दर्शन होते हैं और इसके सृजन की हजारों जटिलताओं पर ध्यान जाता है, तब लगता है वास्तव में यह विस्मयकारी आश्चर्य और कोई चमत्कार है।‘