।।माहेश्वर सूत्र की व्याख्या।।

अ इ उ ण् । 

ऋ लृ क् । 

ए ओं ङ् । 

ऐ औ च् । 

ह य व र ट् । 

ल ण् । 

ञ म ङ ण न म् । 

झ भ ञ् । 

घ ढ ध ष् । 

ज ब ग ड द श् । 

ख फ छ ठ थ च ट त व् । 

क प य् । 

श ष स र् । 

ह ल् ।

उपर्युक्त्त १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के वर्णों (अक्षरसमाम्नाय) को एक विशिष्ट प्रकार से संयोजित किया गया है। फलतः, महर्षि पाणिनि को शब्दों के निर्वचन या नियमों मे जब भी किन्ही विशेष वर्ण समूहों (एक से अधिक) के प्रयोग की आवश्यकता होती है, वे उन वर्णों (अक्षरों) को माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाकर संक्षेप मे ग्रहण करते हैं। 

माहेश्वर सूत्रों को इसी कारण ‘प्रत्याहार विधायक’ सूत्र भी कहते हैं। प्रत्याहार बनाने की विधि तथा 

संस्कृत व्याकरण मे उनके बहुविध प्रयोगों को आगे दर्शाया गया है।

इन १४ सूत्रों में संस्कृत भाषा के समस्त वर्णों को समावेश किया गया है। प्रथम ४ सूत्रों (अइउण् – ऐऔच्) में स्वर वर्णों तथा शेष १० सूत्र व्यञ्जन वर्णों की गणना की गयी है। संक्षेप में स्वर वर्णों को अच् एवं व्यञ्जन वर्णों को हल् कहा जाता है। अच् एवं हल् भी प्रत्याहार हैं।

“प्रत्याहार” का अर्थ होता है – संक्षिप्त कथन। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’ (१-१-७१) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का श्री पाणिनि ने निर्देश किया है।

आदिरन्त्येन सहेता (१-१-७१): (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्सञ्ज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।

उदाहरण: =

अच् = प्रथम माहेश्वर सूत्र ‘ अइउण् ’ के आदि वर्ण ‘ अ ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ ऐऔच् ’ के अन्तिम वर्ण ‘ च् ’ से योग कराने पर ” अच् ” प्रत्याहार बनता है। यह ” अच् ” प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘ अ ’ से लेकर इत्संज्ञक ‘ च् ‘ के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है। 

अतः,

अच् = अ इ उ ॠ ॡ ए ऐ ओ औ।

इसी तरह ‘ हल् ‘ प्रत्याहार की सिद्धि ५ वें सूत्र ‘ हयवरट् ‘ के आदि अक्षर ‘ ह ’ को अन्तिम १४ वें सूत्र ‘ हल् ‘ के अन्तिम अक्षर ‘ ल् ‘ के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। 

फलतः,

हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध,

ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह।

उपर्युक्त सभी १४ सूत्रों में अन्तिम वर्ण की ” इत् संज्ञा ” श्री पाणिनि मुनिने की है। ” इत् संज्ञा ” होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है,

लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है।

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