*“ रावण - पराजय और सीता - हरण क्यों ?
“* नारायण ! श्रीमद् देवीभागवत पुराण में विचार आया है कि रावण की पराजय का क्या कारण है । यह तो निश्चित है कि रावण महातपस्वी और महान् विद्वान् था । वेदों का उसे बड़ा ज्ञान था , उसने " ऋग्वेद " पर भाष्य लिखा था जिसका कुछ अंश प्राप्त है । उसने मंत्रों का जो आध्यात्मिक रहस्य बताया है उसे पढ़कर मनुष्य को बड़ा आश्चर्य होता है । इसलिये यह नहीं समझ लेंगे कि रावण कुछ जानता नहीं था । वह अपने जीवन के उद्देश्य को न जानता हो , ऐसा भी नहीं था । कभी आपने रावणकृत स्तोत्र का पाठ किया होगा । उसमें वह अपने जीवन का उद्देश्य बताता है – " कदा निलिम्पनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिस्सदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन् । विलोल - लोल - लोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥ " महापण्डित रावण कहता है कि मेरा वह दिन कब आयेगा जब मैं सुखी होऊँगा । ऐसा क्यों कहा ? रावण तो बड़ा भारी राजा था , ब्रह्मा उसके यहाँ वेद पढ़ते थे , वरुण देवता जल बरसाते थे , पवन वायु का संचार करता था । आजकल लोग एक वातानुकूलित मकान मनाकर अपने आपको बड़ा समझते हैं और बड़े घमण्ड से कहते हैं कि " हम एयरकंडिशण्ड मकान में रहते हैं । " रावण ने पवन के द्वारा सारी लंका को वातानुकूलित बना रखा था , सड़कें तक भी वहाँ वातानुकूलित थीं । वहाँ वायु , वरुण और सूर्य देवता के प्रभाव से कभी सर्दी - गर्मी ज़्यादा नहीं हो पाती थी । वही रावण कहता है " कदा सुखी भवाम्यहं " मैं कब सुखी होऊँगा ? इतना ऐश्वर्य होने पर भी मैं सुखी नहीं हूँ । मैं गंगा जी के किनारे पेड़ की खोह अर्थात् कोटर में बैठा रहूँगा । झोंपड़ी भी बनाने की इच्छा नहीं है । अपनी इन सारी दुर्मतियोँ को छोड़ दूँगा कि " देवता मेरी बात मानें , मेरे जैसा पराक्रमी नहीं है , मेरे सामने कोई युद्ध में नहीं टिक सकता " - ये सारी दुर्मतियाँ हैं , इन सबसे मैं कब छूट जाऊँगा ! सबसे छूट जाओगे तब क्या करोगे ? कहता है अंजली बाँधकर मस्तक पर रखे रहुँगा कि भगवान् को प्रणाम होता रहे ।
भगवान् शङ्कर के प्रेम में ही मेरी आँखें चंचल होंगी । इतना ही नहीं , " शिव " इस मंत्र का उच्चारण करते हुए , हृदय में आनन्द का अनुभव करते हुए मैं कब सुखी होऊँगा ! " दृषद् - विचित्रतल्पयोः भुजंगमौक्तिकस्रजोः गरिष्टरत्नलोष्टयोः सुहृद् - विपक्षपक्षयोः । तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदा शिवं भजे ॥ " संसार के सब पदार्थों में मेरी समदृष्टि कब होगी ? कब ऐसा समय आयेगा जब पत्थर के ऊपर लेटने में और अत्यन्त सुखद विस्तर पर लेटने में , कमलनयना स्त्री में और तिनके के एक टुकड़े में , सारी पृथ्वी के अधिपति में और साधारण प्रजा में , मेरा मन एक जैसा रहेगा ? पत्थर की चट्टान पर लेटा तो , और विचित्र तल्प पर लेटा तो , राजा ने बुला लिया तो , साधारण व्यक्ति ने बुला लिया तो , इन सबके अन्दर एक होकर रहूँ - कब मेरी यह स्थिति होगी । नारायण ! रावण की विद्वता और तपस्या में कोई कमी नहीं , जीवन के उद्देश्य को भी वह जानता था । यह भी समझता था कि मेरा यह उद्देश्य पूरा नहीं हो रहा है । शास्त्र में विचार आया है कि वह यह सब क्यों नहीं कर पाया ? उसका मूल कारण यह बताया कि उसने शिव की पूजा और शिव का विचार करते हुए शक्ति का विचार और शक्ति की पूजा नहीं की ।
उपहित के विचार में रहकर उसने उपाधि को नहीं समझा । वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट आता है कि वह अपने पास " सोने का शिवलिङ्ग " रखता था लेकिन उसकी पूजा वह बिना पीठ के करता था । शक्ति के हिस्से को नहीं रखता था , केवल लिङ्ग को रखता था । " कृत्वा बालूमयीं वेदीं " जहाँ पूजा करनी हो वहाँ बाल की वेदिका बनाकर पूजा कर लेता था । उपाधि अथवा शक्ति - तत्त्व की तरफ उसकी दृष्टि नहीं थी , इसलिये उसे हारना पड़ा । केवल राम से ही नहीं , सबसे पहले काम से हारा । हृदय की कामनाओं को विजय नहीं कर सका । जब काम को नहीं जीत सकता तब राम के द्वारा ख़त्म किया गया । नारायण ! भगवान् श्रीराम जंगल में गये तब सीता - हरण हुआ ? इसका रहस्य बता देते हैं : सीता के कहने मात्र से राम चल दिये ! " चर्मानय स्वकान्तेति स्वाधीनपतिका यथा " उनकी कान्ता सीता ने कहा " इस मृग चर्म को ले आओ । " यहाँ शास्त्रकार दो शब्द देते हैं - " स्वकान्ता " और " स्वाधीनपतिका " । सीता ने कहा कि " यह चमड़ा मुझे पसन्द है , ले आओ । " राम ने सोचा तक नहीं कि यह लाना ठीक है या नहीं ! जैसे पति को मुट्ठी में रखने वाली औरत हो इस ढंग से सीता बोली । जिसका पति पर शासन चले , उसे " स्वाधीनपतिका " कहते हैं । सीता अपने को स्वाधीनपतिका इसलिये समझती थी कि राम ने उसे अपनी स्वकान्ता मान रखा था कि " यह कमनीय है , मेरी इच्छा का विषय है । " पति और पत्नी का सम्बन्ध हमारे यहाँ धर्मज सम्बन्ध है , कामज सम्बन्ध नहीं है । यही वैदिक विवाह और शादी अथवा मैरिज के अन्दर फर्क है । वैदिक विवाह का उद्देश्य है कि पति - पत्नी दोनों मिलकर परमात्मा की प्राप्ति के लिये आगे बढ़ें , यह विवाह की प्रतिज्ञा है । विवाह शब्द का अर्थ ही यह है । " वह " माने ढोना ; अर्थात् हम दोनों मिलकर धर्मशास्त्र की मर्यादाओं का अच्छी तरह वहन करेंगे । यह विवाह का उद्देश्य है । इसकी जगह जब " स्वकान्ता " माना अर्थात् माना कि " यह मेरी कामना का विषय है " तब शादी या मैरिज हो जाती है , विवाह नहीं रहता । इसलिए शास्त्रकारों ने यहाँ दो शब्द दिये कि भगवान् राम ने उसे स्वकान्ता समझा तो उसका फल हुआ " स्वाधीनपतिका यथा। " जब घरवाली हुक्म देती है तो पति सोचता है कि कड़ा बोलती है । इसका कारण यह है कि आपने उसे कामना का विषय बना रखा है , इसलिये वह भी स्वाधीनपतिका बनी है। जब कामसम्बन्ध होता है तब विवेकपूर्ण प्रवृत्ति नहीं रह जाती । " अविचार्याथ रामोऽपि तत्र संस्थाप्य लक्ष्मणम् " । राम ने भी आगे विचार नहीं किया कि ऐसा हिरन हो सकता है या नहीं , इसकी संभावना है या नहीं , जाना ठीक है या नहीं ; ऐसा कुछ विचार नहीं किया । बिना विचार के ही राम झट से वहाँ से चल दिये । स्वकान्ता समझा , पत्नी स्वाधीनपतिका हुई , तो उसका नतीजा अविचार है । नारायण ! इसके द्वारा बताया कि किस प्रकार संसार के पदार्थों में जीव की प्रगती होती है। पहले उपाधि को कमनीय मानता है । नामरूपकर्मात्मक जगत् को जिसने पहले अपनी कान्ता बना लिया कि " हमें यह चाहिये या यह हमारी कामना का विषय हो " वह उनके परतन्त्र होगा ही । जहाँ आपने नामरूपकर्मात्मक जगत् को कान्ता माना , वहाँ आपकी चोटी उसके हाथ गई ! " स्वाधीनपतिका यथा " फिर वे नाम , रूप , कर्म आपको नचायेंगे। खुद ही नहीं पता कि क्यों नाच रहे हैं , लेकिन नाचे चले जा रहे हैं ! इस नाचने में विचार भी नहीं रहता कि " मैं क्यों इनके पीछे इतना कार्य कर रहा हूँ ? ये सारे पदार्थ तो रह जाने हैं और जब यहाँ से छोड़कर जाऊँगा तब पुण्य - पाप की गठरी बाँध कर ले जाना है । " जिस रुपये को एकत्रित करने के लिये झूठ बोलना , ठगी करना आदि सब कुछ करते हैं , जब यहाँ से जायेंगे तब क्या साथ ले जायेंगे ? इसे न सोचने का नाम अविचार है । जाना अवश्य है यह जानते हैं , और यह भी जानते हैं कि जाते समय कुछ नहीं ले जायेंगे , फिर भी अविचार से प्रवृत्ति करते हैं ।
नारायण स्मृतिः