' श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः'- श्रीयंत्र शिव-शिवा का विग्रह है । ' एक ज्योतिर्भूद् द्विधा' - सृष्टि के प्रारम्भ में अद्वैततत्त्व " आत्मतत्त्वम्" शब्द रूप परम सत्ता-शक्ति से आत्म- ज्योति प्रकट हुई, जो दो रूपों में परिणत हुई । यह जगत् ' जनकजननीमञ्जगदिदम्'- माता-पिता शिव-शक्ति के रूप में परिणत हुआ । फिर इस जगत् का स्वेच्छा से निर्माण करने के लिए शिव-शक्ति में स्फुरण हुआ और श्रीयंत्र का आविर्भाव हुआ --
इस प्रकार नवयोन्यात्मक श्रीचक्र 42 कोणों और 9 आवरणों वाला बन जाता है । श्री यंत्र साधना में मुख्य रूप में 98 शक्तियों का अर्चन होता है । ये शक्तियाँ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को नियंत्रित करती है । अतः श्रीयंत्र और विश्व का तादात्म्य है ।
पूज्य देवता ..... आवरण.... नाम ........ चक्रेश्वरी......
1. विंदु सर्वानंदमय ललिता महात्रिपुरसुन्दरी .
3. त्रिकोण सर्वसिद्धि त्रिपुराम्बा
8. अष्टकोण। सर्वरोगहर त्रिपुरासिद्धा
10. अन्तर्दशार सर्वरक्षाकर त्रिपुरमालिनी
10. बहिर्दशार सर्वार्थसाधक त्रिपुराश्री
14. चतुर्दशार सर्वसौभाग्यदायक त्रिपुरवासिनी
8. अष्टदल। सर्वसंक्षोभण त्रिपुरसुन्दरी
16. षोडशदल सर्वाशापरिपूरक त्रिपुरेशी
28. भूपुर त्रैलोक्य-मोहन त्रिपुरा ।
श्रीविद्या को धारण करने वाला ब्रह्मांडीय शक्तियों के साथ अपना सामंजस्य बनाते हुए अपने शरीर इन्द्रियों सहित मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार पर नियंत्रण करते हुए ब्रह्म को प्राप्त होता है । श्रीविद्या साधना में अपने शरीर को श्रीयंत्रवत भावित करते हुए सात्विक साधना का उत्तम स्वरुप विद्यमान है। एक अवस्था के पश्चात साधक का शरीर ही श्रीयंत्र रूप होजाता है । यह अवस्था भागवती पराम्बा की कृपा के बिना संभव नही ।।