छाया शास्त्र - परछाई पर से भविष्य
आदि काल से मनुष्य अपने भविष्य ओर अगोचर जगत के रहस्यो को जानने उसे उजागर करने को उत्सुक रहा है | शायद तभी हमारे वेद के षड अंगो मे ज्योतिष शास्त्र को स्थान दिया गया है | साथ ही नभमंडल मे विचरते अवकाशीय ग्रह का मनुष्य ओर प्रकृति पर प्रभाव विस्तार से समझाया गया हे | ज्योतिष शास्त्र संगत ओर भविष्य कथन की अनेकों प्रणाली विश्व भर मे प्रसिद्ध है | सूक्ष्म सटीक गणना ओर आध्यात्मिक जगत से जोड़ कर इस रहस्यो को उजागर करने के प्रयास होते रहे है | अनुभवी ज्योतिषी अपनी गणना ओर अनुभूत आध्यात्मिक ज्ञान से सटीक भविष्यवाणी करते है|
ज्योतिष की अनेकों प्रणाली मे से कुछ तो कालचक्र मे नष्टप्राय हो गयी तो कुछ विलुप्त होने की कगार परे देखि जाती है |
इनहि अनेकों प्रणाली मे से एक हे मनुष्य की परछाई ( छाया पर से ) के माध्यम से गणना कर उसका भुतकाल वर्तमान ओर भविष्य जानने की पद्धति जिसे छायाशास्त्र भी कहा जाता है |
ऋषि प्रसादी के अनेको दुर्लभ ग्रंथ जो आज भी भविष्य कथन करने मे उतने ही सटीक बने रहे है|
सूर्यसंहिता , भृगुसंहिता ,पराशर संहिता आदि ग्रंथ आज भी उतने ही उपयुक्त देखे जाते है |
जरूरी हे की उनका सटीक अध्ययन हो ओर अपने अनुभव जोड़ कर वर्तमान मे उसका उचित आंकलन होता रहे | केवल अर्थोपार्जन नहीं ज्ञानोपार्जन का प्राधान्य बना रहे |
चंद्र प्रज्ञाप्ति - ज्योतिष इतिहास
चंद्र प्रज्ञाप्ति ग्रन्थ में सूर्य और चंद्र दोनों का वर्णन किया गया है. चन्द्र प्रज्ञाप्ति ग्रन्थ विशेष रुप से "छाया साधना" पर आधारित है. इस ग्रन्थ में 25 प्रकार की मुख्य छाया बताई गई है. इन छायाओं का विश्लेषण कर व्यक्ति के भविष्य का ज्योतिष निर्णय किया जाता है. इन 25 छायाओं में से प्रमुख कीलक छाया और शंकू छाया है. इस शास्त्र का आधार चन्द्र की कलाओं या छायाओं के आधार पर फलित करना है.
यह ग्रन्थ भी अपने मौलिक रुप में आज संपूर्ण उपलब्ध नहीं है. सूर्या प्रज्ञाप्ति और चन्द्र प्रज्ञाप्ति दोनों लगभग एक समान ग्रन्थ है. यह सूर्य प्रज्ञाप्ति ग्रन्थ का सुधरा हुआ रुप है. इस ग्रन्थ में सूर्य की प्रतिदिन की गति को वर्गीकृ्त किया गया है. तथा उत्तरायण और दक्षिणायण की गणना करने के बाद सूर्य और चन्द्र की गति से अनुपात निश्चित किया गया है. यह शास्त्र यह भी बताता है, कि चन्द्र व सूर्य दोनों का ताप क्षेत्र किस प्रकार निर्धारित किया जाता है. चन्द्र की सोलह कलाओं के आकार के आधार पर सोलह विथियों का वर्णन किया गया है. इस शास्त्र में कृ्ष्ण पक्ष में श्रावण माह की प्रतिपदा तिथि से वर्ष का प्रारम्भ माना गया है.
चंद्र प्रज्ञाप्ति छाया साधन ग्रन्थ
चंद्र प्रज्ञाप्ति ग्रन्थ विशेष रुप से छाया साधन ग्रन्थ् के रुप में जाना जाता है. जब छाया अर्धपुरुष रुप में बन रही हो तो, दिन का कितना समय व्यतीत हो चुका है, और कितना समय बचा हुआ है. दोपहर के समय छाया का आकार कितना होगा, और दिन के चौथाई समय पर छाया किस आकार -प्रकार की होती है.
चन्द्र प्रज्ञाप्ति ग्रन्थ विवरण
इस ग्रन्थ में गोल, त्रिकोण, लम्बी, चौकोर वस्तुओं की छाया पर से दिनमान जानना चाहिए. इस ग्रन्थ के कुछ् भागों में नक्षत्रों की गति, और चन्द्र के साथ नक्षत्रों के बनने वाले योगों का वर्णन किया गया है. इन योगों में श्रवण, घनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, अश्चिनी, कृ्तिका, मृ्गशिरा, पुष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुणी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल, पूर्वाषाढा पन्द्रह नक्षत्रों को शामिल किया गया है.
इस ग्रन्थ के अध्याय में चन्द्र स्वप्रकाशवान बताया गया है. और साथ ही इसके घटने बढने का कारण भी दिया गया है. व राहू केतु के अन्य नाम भी दिए गये है.
सूर्य प्रज्ञाप्ति ग्रंथ वर्णन
ज्योतिष के इस महान ग्रन्थ के अनुसार उत्तरायन में बाहरी मार्ग से पश्चिम दिशा की ओर जाता है. इस मार्ग पर चलते हुए सूर्य की गति मन्द होती है. यही कारण है, कि उत्तरायण को शुभ कार्यो के मुहूर्त के लिए प्रयोग किया जाता है. ग्रन्थ में 24 घटी का दिन माना गया है. इसके विपरीत जब सूर्य दक्षिणायन होता है, तो उसकी गति मन्द होती है. इस अवधि में 12 मुहूर्त अर्थात 9 घण्टे, 36 मिनट का दिन होता है. और 18 मुहूर्त की रात होती है.
इस शास्त्र में यह भी उल्लेख किया गया है, कि पृ्थ्वी पर सभी जगह दिनमान एक समान नहीं होता है. इस शास्त्र में कहा गया है, कि पृ्थ्वी के मध्य नदी, समुद्र, पर्वत, पहाड और महासागरों के होने के कारण सभी जगह की उंचाई, नीचाई, अक्षांश, देशान्तर एक जैसे नहीं रहते है. इनहि कारणो को ध्यान मे रख कर दिनमान ओर इष्ट घटी की गणना का सूक्ष्म गणित समझाया है|
ज्योतिष्करण्डक शास्त्र
ज्योतिष का यह ग्रंथ प्राचीन और मौलिक है. वर्तमान में उपलब्ध यह ग्रन्थ अधूरी अवस्था में है. इस ग्रन्थ में भी नक्षत्र का भी वर्णन किया गया है. इस ग्रंथ में अस्स नाम अश्चिनी और साई नाम स्वाति नक्षत्र ने विषुवत वृ्त के लग्न नक्षत्र माने गये है. इस ग्रन्थ में राशि की अवस्थाओं के अनुसार नक्षत्रों का लग्न माना जाता है. इस ज्योतिष ग्रन्थ में व्यक्ति के जन्म नक्षत्र को लग्न मानकर फलित करने के नियम का प्रतिपादन किया गया है.
ज्योतिष्करण्डक ग्रंथ विवरण
यह ग्रंथ प्राकृ्ति भाषा में लिखा गया है, जैन न्याय, ज्योतिष और दर्शन का ग्रन्थ है. इस ग्रन्थ में माना जाता है, कुल 167 गाथाएं दी गई है. इस ग्रन्थ का उल्लेख कल्प, सूत्र, निरुक्त और व्याकरण नामक ग्रन्थों में मिलता है. सोलह संस्कारों में प्रयोग होने वाले मूहुर्तों का भी यहां वर्णन किया गया है.
ज्योतिष्करण्डक ग्रंथ में कृ्तिका नक्षत्र, घनिष्ठा, भरणी, श्रवण, अभिजीत आदि नक्षत्रों में गणना का विश्लेषण किया गया है. यह ग्रन्थ विवाह संबन्धी नक्षत्रों में उत्तराफाल्गुणी, हस्त, चित्रा, उत्तराषाढा, श्रवण, घनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, रेवती और अश्चिनी आदि नक्षत्र विवाह के नक्षत्र बताये गये है.
यह ग्रन्थ ई. पू़ 300 से 400 का है. इस समय के अन्य ज्योतिष ग्रंथो में राशियों की विशेषताओं का विस्तृ्त रुप में वर्णन किया गया है. इन ग्रन्थों में दिन-रात्रि,शुक्ल-कृ्ष्ण पक्ष, उत्तरायण, दक्षिणायन का कई स्थानों पर वर्णन किया गया है. संवत्सर, अयन, चैत्रादि, मास, दिवस, मुहूर्त, पुष्य, श्रवण, विशाखा आदि नक्षत्रों की व्याखा की गई है.
प्रकृतिं स्वां अधिष्टाय स्थूल-सूक्ष्म-शरीरभृत्।
तदा दृश्यं मोहकारि यद्ग्रासश्च सुषुप्तिता॥३८०॥
दृश्यं किं भूतजातं वा अभूताद्वेति दृश्यताम्।
अजातवस्तुनि भ्रान्त्या जातञ्चेतीदृशी मतिः॥३८१॥
अविचारकृतभ्रान्तिः अभूताभिनिवेशतः।
लोकरीत्या सत्यमिदं छायावद्दृश्यतेऽकले॥३८२॥
छायारूपाः कला ज्ञेयाः सन्मात्रारोपिताः खलु।
कलाध्यारोपापवाद-भासकं सत्स्वरूपकम्॥३८३
विकल्पिताश्च सन्मात्रे प्राणश्रद्धाम्बरादयः।
एतेषाञ्च पृथक्सत्ता सन्मात्रादन्यतो न हि॥३८४॥
अकलात्पुरुषाज्जाताः अज्ञानाभ्रेण वर्षिताः।
कलाष्षोडशविज्ञेयाः अस्तं यान्त्यकले नरे॥३८५॥
षोडशकलात्मप्रकृतिः अकले पुरुषे लयं याति। द्वैतसम्स्कारेण जातानां प्राणिनां कलाध्यारोपः पूर्वमेव
कृतः। तस्मात् तदपवादाय प्रवृत्ता श्रुतिः। येन रीत्या आगतं तेन रीत्या लयः कर्तव्यः।
अतः कलासृष्टिः उच्यते शास्त्रेषु यथाद्वैतं अनूद्यते।
छायादेहस्सूर्यभानं सूर्यान्नास्ति पृथक्त्विति।
छायाहेतुर्यदुपाधिः तत्र सूर्यः प्रकाशते॥३८६॥
पृथ्वी पाङ्तं सूर्यव्याप्तं भासते चाप्युपाधिषु।
सूक्ष्मतो दृश्यमाने च छायाप्यत्र प्रकाश्यते॥३८७॥
प्रतिबिम्बो यथा मिथ्या तथा छायापि निश्चिता।
छायेति नाम-मात्रं च वाङ्मात्रेण निरूप्यते॥३८८॥
घटादिवच्च न ग्राह्यः अवस्तुत्वाच्च सर्वतः।
सूर्याद्वारस्समुद्भूताः तथा छाया मनोहरा॥३८९॥
निर्गुणाच्च गुणा जाताः मायिकं सर्वमेव च।
सैवाहमिति सन्मात्रं अन्नपूर्णा-श्रुतिर्यथा॥३९०॥
छायेति पृथङ्निरूपितायामपि सूर्यादभिन्नतैव तस्या भवति।
यस्मिन्स्थले छायादर्शनं तत्र सूर्यः अस्ति वा न वा। सूर्यः नास्ति चेत् कथं छायाया आगमनम्। छायाहेतुभूत उपाध्युपरि सूर्यप्रकाशस्य सत्वादेव छायेति नाम श्रूयते।
सूर्यादाविर्भूता छाया सूर्य एव लयं गच्छति उपाधिविरामे।
स्थलान्तरगमनस्य छायाया अशक्यत्वात्।
छायासम्ज्ञे रूपनाम्नी सूर्यस्यैव पत्नीत्वेन उच्येते।
तथैव निर्गुणादेव गुणानामाविर्भावः।सगुणे निर्गुणः देवः।
मायाच्छादनमेतस्य मेघेनैव विहाय सः।
मायाया अपि भास्यत्वात् सन्मात्रं द्योततेत्विह ॥३९१॥
स्वयमस्पृष्टरूपेण नित्यानन्दं परामृतम्।
सुप्तेषु करणेष्वेव बुद्ध्या सह विपश्चितः॥३९२॥
मेघच्छन्नस्य अह्नः दुर्दिनत्वेन उक्तत्वात् स्वरूपं अज्ञानाख्यमेघेन यावता आच्चाद्यते तावत्पर्यन्तं दुर्दिनमेवास्माकं मेघापाये अम्शुमान् यथा प्रकाशते तथा अज्ञानपगमे विज्ञानसूर्यः मङ्गलत्वेन मोदकरो भवेत्। करणेषु जाग्रत्सु पूर्णसुखं नानुभूयते। करणप्रवृत्ते बाह्यप्रधानत्वात्।
मायानिरीक्षणादेव माया चापि विनश्यति।
निरीक्षणं ध्यानपूजा संध्यायाश्च विधीयते॥३९३॥
निरीक्षणं मुहूर्तं तु रामानुग्रहसाधकम्।
नादरूपो हि भरतः गुर्वीं मूर्तं तदाकरोत्॥३९४॥
नैर्गुण्यं परमं तेजः दृष्टवान् परमाद्भुतम्।
मायायास्सन्ततध्यानं स्वाखण्डशरणागतिः॥३९५॥
सुप्तिकाल-सुखद्रष्टा नित्यशुद्धस्सनातनः।
पादत्रयैरुपायाख्यैः पद्यते ह्यक्षरं पदम्॥३९६॥
विकारजातमश्नोति व्याप्नोतीत्यक्षरं विदुः।
अमूर्तमक्षरं व्योम दक्षिणामूर्तिरीश्वरः॥३९७॥
दृश्यस्य सर्वस्यापि मायारूपत्वात् तद्द्वारा निरीक्षणं परमात्मनः विहितं यथा भरतः चित्रकूटे मुहूर्तं रामं निरीक्ष्य गुर्वीं मूर्तिं तमकरोत्। तस्मात् दृश्य-निरीक्षण-पाटवं सम्पाद्यं।
तत्रैव गीतामृतमहोदधिमपि पश्यन् नानाविध अवतारमूर्तीरपि द्रष्टुं पारयति स्वानन्यया भक्त्या॥
प्राचीन ऋषियों ने इस छाया शरीर की महत्ता को समझा, इसपर अध्ययन व शोध किया।
छाया साधन की विधि जानें। स्नान कर दिन के किसी निश्चित समय में एकांत स्थल पर बैठकर अपनी छाया को अपलक देखते रहें। शुरू में यह छाया काली दिखेगी। धीरे-धीरे यह भूरी, फिर धवल वर्ण की दिखेगी। धरती पर छाया को देखने के बाद अपनी दृष्टि को आकाश पर ले जाना चाहिए। आकाश में यही उजली छाया विशाल नज़र आएगी और दृष्टि के सम्मुख होगी। इसके उपरांत धूप में छाया को देखकर कमरे में आंखें बंद किए चले आना है, फिर कमरे को सब ओर से बंद कर आंख खोल कर देखना है। आंखें खोलने पर यही उजली छाया आपके सम्मुख होगी। इसी छाया शरीर से व्यक्ति को आत्मदर्शन होता है।
आगे जानें, कैसी छाया का क्या अर्थ...
शरीर की छाया से करें आत्मदर्शन...
सिर न दिखा : आंखें खोलने पर छाया पुरुष का सिर न दिखे व कृष्णवर्ण का दिखे तो तीन माह के भीतर मृत्यु समझनी चाहिए।
पीतवर्ण छाया का अर्थ : छाया पुरुष यदि पीतवर्ण का दिखे तो रोग की आशंका होती है।
रक्तवर्ण छाया का अर्थ : छाया पुरुष यदि रक्तवर्ण का दिखे तो व्यक्ति अवसादग्रस्त होने वाला है।
छाया और बांह : छाया पुरुष की बांह न दिखे तो शत्रुपक्ष हावी होंगे व वाद-विवाद होंगे।
नीलवर्ण की छाया : नीलवर्ण की छाया भविष्य की आर्थिक हानि बतलाती है।
अनेक रंगों की छाया : छाया पुरुष अनेक रंगों की दिखे तो कार्य सिद्धि दर्शाती है।
छाया में बायीं बांह न होना : छाया पुरुष की बायीं भुजा न दिखे तो मामा की मृत्यु एवं दायीं भुजा न दिखे तो भाई की मृत्यु समझी जाती है।
ऐसे अनेकों गूढ रहस्य हमारी परछाई से उजागर होते है | इस छाया के माध्यम से हे जेसे जन्म कुंडली, भृगु कुंडली का निर्माण होता हे वैसे ही छाया कुंडली को सूक्ष्म गणना के आधार पर निर्मित किया जाता है | इस कुंडली की विशेषता ये हे की जब जातक के पास अपनी जन्म तिरही तारीख वार समय या स्थल का सटीक अनुपात उपलभ्ध ना हो तब भी अनुभवी ज्योतिषी केवल परछाई (छाया ) के माप से ही ये सारी जानकारी प्राप्त कर सकते है |
ये गूढ तत्व को श्लोक ओर मंत्रो मे समाहित किया होने से इस पद्धति का प्रसार सीमित देखा गया है |
|| अथ जातकताजक प्रकरणम् ||
जन्मकालविचार:
उतमं च जलस्त्रावे मध्यमं शीर्षदर्शने |
पतने तु कनिष्ठं स्यातित्रविधं जम्न्लक्षणं ||
बालक के जन्म से पहेले जब पानी बहने लगे वही जन्म का समय लेने से उत्तम ,
क्यो की प्रथम द्वार खुल कर बालक को प्रथम स्वास मिलता है |उसके बाद उसका सिर दिखाई देता है वह समय यदि जन्म समय माना जाये तो मध्यम |ओर बालक क पूर्ण प्रसव होकर बहार आने से जातक पुरुष है या स्त्री इसका निर्णय करने पर जन्म समय मानने मे आये तो वह समय कनिष्ठ है एसा जाने |
| अङ्गुलशडकोरुपरि इष्टघट्यानयनम् |
रामान्गुलिकृता छाया छाया रामेण संयुता |
चतु:षष्ट्या हरेभ्दागं लभ्दं घट्यादिकं भवेत् ||
तीन अंगुल के माप की छड़ी से छाया मापने पर जितने अंगुल हो उसमे तीन जोड़ कर चौसठ से भाग देने पर जो भाग फल प्राप्त हो वह घटी ओर जो शेष रहे वह पल ऐसा जाने ओर वह घटी पल सवेरे से मध्यान तक हो तो गत ,ओर उसके उपरांत हो तो शेष रही ऐसा जानना चाहिये |
| कलाकोपरि इष्टघटया नयनम |
दिनार्धत्प्राग्यदा जन्म तदार्कत्तध्विशोंधयेत् |
सार्धद्विगुणिता घट्यस्ता दिनार्धोन्नितास्तथा ||
यदि मध्यान बारह बजे के अंदर जन्म हो तो बारह घंटो मे से जन्म के घंटे ओर मिनट निकाल कर जो घंटे-मिनट रहे उनको ढाई से गुणाकरके दिनार्ध मे से घटा कर जो आवे वह इष्ट घटी होती है |
रात्र्यर्धात्प्राग्यदा जन्म दिनार्धान्न्तरं तथा |
सार्धद्विगुणिता घटयस्ता दिनार्धयुतास्तदा ||
यदि माध्यान बारह बजे के बाद रात्री के बारह बजे के अन्दर जन्म हो तो जितने घंटे बारह बजे के उपर हो उनको ढाई से गुणा कर के उसे दिनार्ध मे जोडने से जो आये वह इष्ट घटि होती है |
रातर्य्धानन्नतरं जन्म सार्धद्विगुणिताश्च ताः |
त्रिंशधुते दिनार्धे तु युताः स्युर्घटिकास्तदा ||
यदि रात्रि के बारह बजे से प्रातः तक मे जन्म हो तो रात्री के बारह बजे के उपर जितने घंटे अधिक हो उसे ढाई से गुणा कर उसे दिनार्ध मे 30 जोड कर जो आये वह इष्ट घटि होती है |
| आत्मछायोपरि इष्टघटयानयनम् |
छायापादौ रसोपेतैकविंशच्छतं भजेत् |
लब्धांके घटिका ज्ञेयाः शेषांके च पलाः स्मृताः ||
स्वयं के शरीर की छाया को अपने पैरो से (डग भरके /पगलां थी ) माप कर जितने कदम हो उनमे 6 जोड कर 121 से भाग देना , जो भागफल आए वह घटी ओर जो शेष रहे वह पल समझना चाहिये |
| रात्रौ इष्टघटया नयनम |
सुर्यभादभ्रमध्यस्थं सप्तोनं खाश्विभिहर्तम |
नवभिस्तु हरेभ्दागं रात्रे: स्युर्गतनाडीका: ||
रात्री को जिस समय की इष्ट घटि करना हो उस समय आकाश मे मध्य मे सिर पर जो नक्षत्र हो उसके सूर्य के महानक्षत्र से गिन कर जो संख्या हो उस मे से सात नक्षत्र घटा कर जो रहे उसे 20 गुणा कर के 9 से भाग कर जो आये वह सुर्यास्त की इष्ट घटि जानना चाहिये | उसमे दिनमान जोडने से सुर्योदयात इष्ट घटि होती है |
यहा विस्तार से समझना तो व्याप हो रहा है | संक्षिप्त समझे तो आज भी ये नष्टप्राय हो रही पद्धति उतनी ही सटीक हे जीतनी आधुनिक ज्योतिष पद्धति| बस ज्ञान पिपासा ओर जन कल्याण का भाव होने से मार्मिक तथ्य उजागर करना संभव बना हुआ है |
सादर ॐ नमो नारायण ....