वर्ण-व्यवस्था हिन्दू धर्म में सामाजिक विभाजन का एक आधार है। हिंदू धर्म-ग्रंथों के अनुसार समाज को चार वर्णों में विभाजित किया गया है- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। विद्वानों का मत है कि आरंभ में यह विभाजन कर्म आधारित था लेकिन बाद में यह जन्माधारित हो गया। वर्तमान में हिंदू समाज में इसी का विकसित रूप जाति-व्यवस्था के रूप में देखा जा सकता है। जाति एक अंतर्विवाही समूह है। 1901 की जाति आधारित जनगणना के अनुसार भारत में दो हजार से अधिक जातियां निवास करती हैं।
वर्ण व्यवस्था हिन्दू धर्म में प्राचीन काल से चले आ रहे सामाजिक गठन का अंग है, जिसमें विभिन्न समुदायों के लोगों के आध्यात्मिक विवेक के आधार पर काम निर्धारित होता था। प्रायः इन लोगों की संतानों के कार्य भी इन्हीं पर निर्भर करते थे तथा विभिन्न प्रकार के कार्यों के अनुसार बने ऐसे समुदायों को वर्ण कहा जाता था। प्राचीन भारतीय समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्णों में विभाजित था। ब्राह्मणों का कार्य शास्त्र अध्ययन, वेदपाठ तथा यज्ञ कराना होता था जबकि क्षत्रिय युद्ध तथा राज्य के कार्यों के उत्तरदायी थे। वैश्यों का काम व्यापार तथा शूद्रों का काम सेवा प्रदान करना होता था। भारतीय परम्परा में वर्ण शब्द का प्राचीनतम उल्लेख यजुर्वेद के ३१वें अध्याय में मिलता है, लेकिन जातिशब्द का प्रयोग अपेक्षाकृत नया है।
ये चार वर्ण मनुष्यों की प्रकृति (स्वभाव या विवेक) के तीन गुणों के मिश्रण से बना था - सत, रज और तम। हाँलांकि आज वर्ण और जाति को एक ही व्यवस्था समझ लिया जाता है, लेकिन जाति अपेक्षाकृत नया विचार है। आधुनिक काल में इसी वर्ण व्यवस्था को जाति या जादि (तमिळ) या कुलम (तेलगु) कहते हैं। सिर्फ जन्म के आधार पर निर्धारित हो जाने के कारण इसे कालान्तर में जाति (या कुलम यानि वंशवार) कहा जाने लगा लेकिन गीता जैसी प्राचीन पुस्तकों में वर्ण शब्द का उल्लेख मिलता है लेकिन जाति का नहीं।
प्राचीन काल में यह सब संतुलित था तथा सामाजिक संगठन की दक्षता बढ़ाने के काम आता था। पर कालान्तर में ऊँच-नीच के भेदभाव तथा आर्थिक स्थिति बदलने के कारण इससे विभिन्न वर्णों के बीच दूरिया बढ़ीं हैं। दलितों को समाज में निम्न स्थान प्राप्त होने के कारण टकरार भी बढ़ा है और राजनीति में भी एक नया दृष्टिकोण आया है। जन्म के आधार पर सामाजिक वर्ग मिलने की वजह से आधुनिक काल में जाति प्रथा का सामाजिक और राजनैतिक विरोध हुआ है। भारतीय स्वतंत्रता के समय डॉक्टर अंबेडकर का काम इस दिशा में बहुत महत्वपूर्ण है। आज कई दलित नेता मनुस्मृति जैसे ग्रंथों को जन्म आधारित प्रथा का सृजनकर्ता गंथ समझकर बहुत विरोध करते हैं। भारत में आरक्षण के कारण भी विभिन्न वर्णों के बीच अलग सा रिश्ता बनता जा रहा है।
भारतीय दर्शन के १९वीं सदी में यूरोप पहुँचने के बाद इस विषय में पाश्चात्य विद्वानों का ध्यान गया। कहा जाता है कि हिटलर भारतीय वर्ण व्यवस्था से विदित था। भारतीय उपमहाद्वीप के कई अन्य धर्म तथा सम्प्रदाय भी इसका पालन आंशिक या पूर्ण रूप से करते हैं। इनमें सिक्ख, इस्लाम तथा इसाई धर्म का नाम उल्लेखनीय है।
वर्ण और जाति
जैसा कि उपर कहा गया है, वर्ण सिद्धांत आधारित प्रचीन शब्द है जबकि जाति अपेक्षाकृत नवीन और जन्म तथा कार्य आधारित शब्द है।
भारतीय दर्शन के अनुसार सत यथा-संभव उचित जानने और करने वाला गुण है, रज उचित जानना लेकिन तात्कालिक लाभ के लिए समय समय पर कर्तव्य से डिगने वाला गुण है और दुनिया को समझने की बजाय अज्ञान के अंधकार में रहने के गुण को तम कहते हैं। वास्तव में चार वर्ण मनुष्य जाति का मूलभूत स्वभाव है, ज्योतिष में भी इसके लक्षण मिलते हैं और श्रीमदभगवत गीता में भी। वे इस प्रकार है-
ब्राम्हण - ब्रम्हज्ञानी - ज्ञान प्रसार करने वाले, उचित (धर्म शब्द का वास्तविक अर्थ) और अनुचित को समझने वाला और दूसरों का बताने वाला।
क्षत्रिय - रज गुण प्रधान वाला - वीर एवं योद्धा - युद्ध में कभी पीछे न हटने वाला। लेकिन रज गुण के कारण राज्य, धन और अन्य कारणों से इनका धर्म (यानि स्थिति के अनुसार उचित कर्तव्य) में विश्वास अटल नहीं रहता और इनके मोह में गलतियाँ कर बैठते हैं।
वैश्य - व्यवसाय में निपुण, रज और तम गुणों के मिश्रण वाले लोग - बनिया या वैश्य। विश धातु का अर्थ है सभी स्थानों पर जाने वाले यानि (कर्मानुसार) धन अर्जित करने वाले। विश धातु से ही प्रवेश और विष्णु जैसे शब्द बने हैं।
शूद्र - तमोगुणी, दुःख-सुख के कारणों के न जानना और न जानने की इच्छा रखना। स्वभाव से बेपरवाह, मस्तमौला जीव- कल की फिक्र नहीं, मेहनत करो और खाओ-पियो मौज करो।
ध्यान दीजिये कि ये स्वभाव (गुण या प्रकृति) सभी मनुष्यों में है और उनके शारीरिक रंग से परे है। यानि एक अफ़्रीका का वासी भी इन्ही गुणों से मिलकर बना है और यूरोप वासी भी। यानि वर्ण शब्द एक सिद्धांत यानि दर्शन को बताता है, ना कि चमड़ी के रंग को।
वेदों के अनुसार क्षत्रिय का अर्थ होता है क्षत्या त्रायते इति क्षत्रियः अर्थात हानियों से बचाने वाला ही क्षत्रिय कहलाता है। प्रारम्भ मे क्षत्रियोँ का काम राज्य के शासन तथा सुरक्षा का था। क्षत्रिय आपस में खूब युद्ध लड़ते थे। क्षत्रिय लोग बल, बुद्धि और विद्या तीनों में पराँगत थे, क्षत्रिय लोग ही सबसे शक्तिशाली थे। भारत की मुख्य क्षत्रिय जातियां है: मराठा,राजपूत, जाट, कछवाह,चौहान, डोगरा, गोरखा, मीणा, पाटील, भील आदि।
शिक्षा देना, यज्ञ करना-कराना, वेद पाठ, मन्त्रोच्चारण, क्रियाकर्म तथा विविध संस्कार कराना जैसे कार्य ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित किये जाते थे। मन्दिरों की देखभाल तथा देवताओं की उपासना करने तथा करवाने का दायित्व भी उन्हीं के पास है। मंदिरों में वेदों का पाठ पढ़ाया जाता था। प्राचीनकाल में ब्राह्मण शिक्षक की भुमिका निभाता था, कालांतर में अधिकतर भ्रष्ट और लालची हो गये थे इसलिये इन्होंने अपनी ख्याति और सम्मान खो दिया। ये ब्राह्मण भारत के विभिन्न भागों में विभिन्न उपनामों से जाने जाते हैं।
ये विभिन्न कार्यों को करने के लिए जिम्मेवार थे जैसे किसान, कसाई, खटीक, चर्मकार (चमडा उद्योग) हरिजन, डोम (नाले कि सफाई करने वाले) इत्यादि।
उत्पत्ति
वर्ण का प्राचीनतम उल्लेख यजुर्वेद के अध्याय ३१ में मिलता है। लेकिन इन श्लोकों के अर्थांतरण को लेकर मतभेद हैं।
इस वर्गीकरण के मूल स्वभाव के बारे में गीता में बहुत प्रमाण मिलते हैं। गीता में सत (सात्विक), रज (राजसी) और तम (तामसी) गुणों को एकाधिक परिप्रेक्ष्य में बताया गता है। माना जाता है कि प्रय्तेक मनुष्य एक समय में इन्हीं तीनों गुणों से मिलकर बना होता है। जो सत गुण प्रधान हो उसे ब्राह्मण (सत्य यानि ब्रह्म में अग्रसर), जो रज गुण प्रधान हो उसे क्षत्रिय, जो रज और तमगुणों का मिश्रण हों उसे वैश्य तथा तम गुणी को शूद्र कहते हैं। भारतीय सिद्धांत के प्रचीनतम पुस्तक वेदों तथा गीता में वर्ण शब्द का उल्लेख मिलता है लेकिन जाति का नहीं। वर्ण शब्द के प्रचलित अर्थों में रंग समझ में आता है। लेकिन, जाति (या तेलगु के कुलम) शब्द से जन्म का ग्रहण होते है। इसी मूल से नवजात (नया जन्मा हुआ), जनन (जन्म लेना या देना) जननी (जन्म देने वाली, माता) इत्यादि शब्द बने हैं। इससे ये स्पष्ट होता है कि ये जन्म आधारित प्रथा नहीं रही होगी।
आधुनिक काल में, कार्य आधारित और सदियों से चली आ रही जन्म आधारित प्रथा को देखकर लोगों ने वर्णों की उत्पत्ति के दो मान्य सिद्धान्त बताए हैं -
धार्मिक उत्पत्ति
पौराणिक कथा के अनुसार सृष्टि के बनने के समय मानवों को उत्पत्त करते समय ब्रह्मा जी के विभिन्न अंगों से उत्पन्न होने के कारण कई वर्ण बन गये।
उपरोक्त कल्पित विचार का खंडन भगवान बुद्ध ने अपने जीवन काल में ही कर दिया था | दिघ निकाय के आगण सुत्त के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद जब जीवो का क्रमिक विकास हुआ और उनमे तृष्णा लोभ अभिमान जेसे भावो का जन्म हुआ तो उन प्रारंभिक सत्वो में विभिन्न प्रकार की विकृतिया हुइ और आयु में क्रमश: कमी होने लगी | इसके बाद वे लोग चोरी जेसे कर्मो में प्रवृत्त होने लगे और पकडे जाने पर क्षमा याचना पर छोड़ दिए जाने लगे किन्तु लगातार चोर कर्म करने के कारण सभी जन समुदाय परेशान होकर एक सम्म्नानीय व्यक्ति के पास गए और बोले तुम यहाँ अनुशासन की स्थापना करो, उचित और अनुचित का निर्णय करो हम तुम्हे अपने अन्न में से हिस्सा देंगे उस व्यक्ति ने यह मान लिया | चूँकि वह सर्व जन द्वारा सम्मत था इसलिए महा सम्मत नाम से प्रसिंद्ध हुआ, लोगो के क्षेत्रो (खेतों) का रक्षक था इसलिए क्षत्रिय हुआ और जनता का रंजन करने के कारण राजा कहलाया | उन सर्व प्रथम व्यक्ति को आज मनु कहा जाता हे जिसके आचार विचार पर चलने वाले मनुष्य कहलाये | इस प्रकार क्षत्रिय वर्ण की उत्पत्ति प्रजतात्त्रिक तरीके से जनता द्वारा रजा चुनने के कारण हुई | यह वर्ण का निर्णय धर्म (निति) के आधार पर हुआ न की किसी देविय सत्ताके कारण | इसी प्रकार ब्राहमण, वैश्य और शुद्र वर्ग की उत्पत्ति भी अपने उस समय के कर्मो के अनुसार हुई | पेज २४०[1]
शुद्रो के बारे में लिखित जानकारी सर्वप्रथम ऋग्वेद के दसवे मंडल के ९० वे मंत्र पुरुष सूक्त में मिलाती हे इसमे कहा गया हे की पुरुष के विभाजन करने के पश्चात उसके शरीर के भाग क्या -२ थे और उत्तर दिया जाता हे की उसका मुख ब्राहमण, बाहू क्षत्रिय, पैर वैश्य और शुद्र थे,[2]जबकि इसी तैत्तारिय ब्राहमण (I267) में लिखा हे की ब्राहमण की उत्पत्ति देवताओ से हुई हे और शुद्रो की उत्पत्ति असुरों से हुई हे [3]|इन उद्धरणों में चतुर्वर्ण और शुद्र वर्ना की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दिए गए सभी व्याख्यान्न भिन्न -२ हे|चतुर्वर्ण की उत्पत्ति कोई पुरुष से कोई ब्रह्माजी से जोई प्रजापति से, कोई असुरों से तो कोई शुन्य से बताता हे|इस प्रकार ये व्याख्याए ही काल्पनिक, मानव सृजित और उपद्रवी भावनाओ वाली हे |इनका कोई एतिहासिक महत्त्व नहीं है क्योकि ये स्वयं हे परस्पर एक दूसरे को काट रही हैं[4]|
इतिहासकारों के अनुसार उत्पत्ति
भारतवर्ष में प्राचीन हिंदू वर्ण व्यचस्था में लोगों को उनके द्वारा किये जाने वाले कार्य के अनुसार अलग-अलग वर्गों में रखा गया था।
पूजा-पाठ व अध्ययन-अध्यापन आदि कार्यो को करने वाले ब्राह्मण
शासन-व्यवस्था तथा युद्ध कार्यों में संलग्न वर्ग क्षत्रिय
श्रमकार्य व अन्य वर्गों के लिए सेवा करने वाले 'शूद्र कहे जाते थे। यह ध्यान रखने योग्य है कि वैदिक काल की प्राचीन व्यवस्था में जाति वंशानुगत नहीं होता था लेकिन गुप्तकाल के आते-आते आनुवंसिक आधार पर लोगों के वर्ण तय होने लगे। परस्पर श्रेष्ठता के भाव के चलते नई-नई जातियों की रचना होने लगी। यहाँ तक कि श्रेष्ठ समझे जाने वाले ब्राह्मणों ने भी अपने अंदर दर्जनों वर्गीकरण कर डाला। अन्य वर्ण के लोगों ने इसका अनुसरण किया और जातियों की संख्या हजारों में पहुँच गयी।
वैदिक काल में वर्ण-व्यवस्था जन्म-आधारित न होकर कर्म आधारित थी|
आरक्षण और वर्तमान स्थिति
उन्नीसवीं तथा बीसवी सदी में भी जाति व्यवस्था कायम है नीच जाति वालोँ को आरक्षण के नाम पर उनकी नीचता उन्हे याद दिलाई जा रही है।आरक्षण जहाँ पिछड़ी जातियोँ को अवसर दे रहा है वही वे उन्हे ये अहसास भी याद करवाता है कि वे उपेक्षित हैँ। भीमराव अंबेडकर जैसे लोगों ने भारतीय वर्ण व्यवस्था की कुरीतियों को समाप्त करने की कोशिश की। कई लोगों ने जाति प्रथा को समाप्त करने की बात की। पिछली कई सदियों से "उच्च जाति" कहे जाने वाले लोगों की श्रेष्ठता का आधार उनके कर्म का मानक होने लगा। ब्राह्मण बिना कुछ किये भी लोगों से उपर नहीं समझे जान लगे। भारतीय संविधान में जाति के आधार पर अवसर में भेदभाव करने पर रोक लगा दी गई। पिछली कई सदियों से पिछड़ी रही कई जातियों के उत्थान के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। यह कहा गया कि १० सालों में धीरे धीरे आरक्षण हटा लिया जाएगा, पर राजनैतिक तथा कार्यपालिक कारणों से ऐसा नहीं हो पाया।
धारे धीरे पिछड़े वर्गों की स्थिति में तो सुधार आया पर तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों को लगने लगा कि दलितों के आरक्षण के कारण उनके अवसर कम हो रहे हैं। इस समय तक जातिवादभारतीयराजनीति तथा सामाजिक जीवन से जुड़ गया। अब भी कई राजनैतिक दल तथा नेता जातिवाद के कारण चुनाव जीतते हैं। आज आरक्षण को बढ़ाने की कवायद तथा उसका विरोध जारी है। जाति स्ब एक् ह्वे कोइ हीन् नही ह्वे सब मनुष ह्वे।
क्षेत्रीय विविधता
दलितों को लेकर विभिन्न लोगों में मतभेद हैं। कुछ जातियां किसी एक राज्य मे पिछड़े वर्ग की श्रेणी में आती हैं तो दूसरे में नहीं इसके कारण आरक्षण जैसे विषयों पर बहुत अन्यमनस्कता की स्थिति बनी हुई है। कई लोग दलितों की परिभाषा को जाति के आधार पर न बनाकर आर्थिक स्थिति के आधार पर बनाने के पक्ष में हैं।