शिवकृतं दुर्गास्तोत्रम्
शिवकृतं दुर्गास्तोत्रम्——
इस स्तोत्र का स्तवन भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के
लिए भगवान् शिव ने किया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के उद्धृत इस स्तोत्र द्वारा स्तवन
करके शम्भु ने त्रिपुरासुर का वध किया था। यह
स्तोत्रराज संपूर्ण अज्ञान को नाश करने वाला तथा
मनोरथों को पूरा करने वाला है।
शिवकृतं दुर्गास्तोत्रम्—–
श्रीमहादेव उवाच—-
रक्ष रक्ष महादेवि दुर्गे दुर्गतिनाशिनि। मां भक्त
मनुरक्तं च शत्रुग्रस्तं कृपामयि॥
विष्णुमाये महाभागे नारायणि सनातनि। ब्रह्मस्वरूपे
परमे नित्यानन्दस्वरूपिणी॥
त्वं च ब्रह्मादिदेवानामम्बिके जगदम्बिके। त्वं साकारे
च गुणतो निराकारे च निर्गुणात्॥
मायया पुरुषस्त्वं च मायया प्रकृति: स्वयम्। तयो: परं
ब्रह्म परं त्वं बिभर्षि सनातनि॥
वेदानां जननी त्वं च सावित्री च परात्परा। वैकुण्ठे च
महालक्ष्मी: सर्वसम्पत्स्वरूपिणी॥
मर्त्यलक्ष्मीश्च क्षीरोदे कामिनी शेषशायिन:।
स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं राजलक्ष्मीश्च भूतले॥
नागादिलक्ष्मी: पाताले गृहेषु गृहदेवता।
सर्वशस्यस्वरूपा त्वं सर्वैश्वर्यविधायिनी॥
रागाधिष्ठातृदेवी त्वं ब्रह्मणश्च सरस्वती।
प्राणानामधिदेवी त्वं कृष्णस्य परमात्मन:॥
गोलोके च स्वयं राधा श्रीकृष्णस्यैव वक्षसि।
गोलोकाधिष्ठिता देवी वृन्दावनवने वने॥
श्रीरासमण्डले रम्या वृन्दावनविनोदिनी।
शतश्रृङ्गाधिदेवी त्वं नामन चित्रावलीति च॥
दक्षकन्या कुत्र कल्पे कुत्र कल्पे च शैलजा।
देवमातादितिस्त्वं च सर्वाधारा वसुन्धरा॥
त्वमेव गङ्गा तुलसी त्वं च स्वाहा स्वधा सती।
त्वदंशांशांशकलया सर्वदेवादियोषित:॥
स्त्रीरूपं चापिपुरुषं देवि त्वं च नपुंसकम्। वृक्षाणां
वृक्षरूपा त्वं सृष्टा चाङ्कुररूपिणी॥
वह्नौ च दाहिकाशक्ति र्जले शैत्यस्वरूपिणी। सूर्ये
तेज:स्वरूपा च प्रभारूपा च संततम्॥
गन्धरूपा च भूमौ च आकाशे शब्दरूपिणी। शोभास्वरूपा
चन्द्रे च पद्मसङ्घे च निश्चितम्॥
सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा च पालने परिपालिका।
महामारी च संहारे जले च जलरूपिणी॥
क्षुत्त्वं दया त्वं निद्रा त्वं तृष्णा त्वं बुद्धिरूपिणी।
तुष्टिस्त्वं चापि पुष्टिस्त्वं श्रद्धा त्वं च क्षमा
स्वयम्॥
शान्तिस्त्वं च स्वयं भ्रान्ति: कान्तिस्त्वं कीर्तिरेव
च। लज्जा त्वं च तथा माया भुक्ति मुक्ति
स्वरूपिणी॥
सर्वशक्ति स्वरूपा त्वं सर्वसम्पत्प्रदायिनी।
वेदेऽनिर्वचनीया त्वं त्वां न जानाति कश्चन॥
सहस्त्रवक्त्रस्त्वां स्तोतुं न च शक्त : सुरेश्वरि। वेदा न
शक्त ा: को विद्वान् न च शक्त ा सरस्वती॥
स्वयं विधाता शक्तो न न च विष्णु: सनातन:। किं
स्तौमि पञ्चवक्त्रेण रणत्रस्तो महेश्वरि॥
कृपां कुरु महामाये मम शत्रुक्षयं कुरु।
भावार्थ—–
श्रीमहादेवजी ने कहा – दुर्गति का विनाश करने
वाली महादेवि दुर्गे! मैं शत्रु के चंगुल में फँस गया हूँ;
अत: कृपामयि! मुझ अनुरक्त भक्त की रक्षा करो,
रक्षा करो। महाभगे जगदम्बिके! विष्णुमाया,
नारायणी, सनातनी, ब्रह्मस्वरूपा, परमा और
नित्यानन्दस्वरूपिणी- ये तुम्हारे ही नाम हैं। तुम
ब्रह्मा आदि देवताओं की जननी हो। तुम्हीं सगुण-रूप
से साकार और निर्गुण-रूप से निराकार हो।
सनातनि! तुम्हीं माया के वशीभूत हो पुरुष और माया
से स्वयं प्रकृति बन जाती हो तथा जो इन पुरुष-
प्रकृति से परे हैं; उस परब्रह्म को तुम धारण करती हो।
तुम वेदों की माता परात्परा सावित्री हो। वैकुण्ठ
में समस्त सम्पत्तियों की स्वरूपभूता महालक्ष्मी,
क्षीरसागर में शेषशायी नारायण की प्रियतमा
मर्त्यलक्ष्मी, स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी और भूतलपर
राजलक्ष्मी तुम्हीं हो। तुम पाताल में
नागादिलक्ष्मी, घरों में गृहदेवता, सर्वशस्यस्वरूपा
तथा सम्पूर्ण ऐश्वर्यो का विधान करने वाली हो।
तुम्हीं ब्रह्मा की रागाधिष्ठात्री देवी सरस्वती हो
और परमात्मा श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिदेवी भी
तुम्हीं हो। तुम गोलोक में श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर
शोभा पाने वाली गोलोक की अधिष्ठात्री देवी
स्वयं राधा, वृन्दावन में होने वाली रासमण्डल में
सौन्दर्यशालिनी वृन्दावनविनोदिनी तथा
चित्रावली नाम से प्रसिद्ध शतश्रृङ्गपर्वत की
अधिदेवी हो। तुम किसी कल्प में दक्ष की कन्या और
किसी कल्प में हिमालय की पुत्री हो जाती हो।
देवमाता अदिति और सबकी आधारस्वरूपा पृथ्वी
तुम्हीं हो। तुम्हीं गङ्गा, तुलसी, स्वाहा, स्वधा और
सती हो। समस्त देवाङ्गनाएँ तुम्हारे अंशांश की
अंशकाला से उत्पन्न हुई हैं। देवि! स्त्री, पुरुष और नपुंसक
तुम्हारे ही रूप हैं। तुम वूक्षों में वृक्षरूपा हो और अंकुर-
रूप से तुम्हारा सृजन हुआ है। तुम अगिन् में दाहिका
शक्ति , जल में शीतलता, सूर्य में सदा तेज:स्वरूप तथा
कान्तिरूप, पृथ्वी में गन्धरूप, आकाश में शब्दरूप,
चन्द्रमा और कमलसमूह में सदा शोभारूप, सृष्टि में
सृष्टिस्वरूप, पालन-कार्य में भलीभाँति पालन करने
वाली, संहारकाल में महामारी और जल में जलरूप में
वर्तमान रहती हो। तुम्हीं क्षुधा, तुम्हीं दया, तुम्हीं
निद्रा, तुम्हीं तृष्णा, तुम्हीं बुद्धिरूपिणी, तुम्हीं
तुष्टि, तुम्हीं पुष्टि, तुम्हीं श्रद्धा और तुम्हीं स्वयं
क्षमा हो।
तुम स्वयं शान्ति, भ्रान्ति और कान्ति हो तथा
कीर्ति भी तुम्हीं हो। तुम लज्जा तथा भोग-
मोक्ष्ज्ञ-स्वरूपिणी माया हो। तुम सर्वशक्ति
स्वरूपा और सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रदान करने वाली हो।
वेद में भी तुम अनिर्वचनीय हो, अत: कोई भी तुम्हें
यथार्थरूप से नही जानता। सुरेश्वरि! न तो सहस्त्र
मुखवाले शेष तुम्हारा स्तवन करने में समर्थ हैं, न वेदों में
वर्णन करने की शक्ति है और न सरस्वती ही तुम्हारा
बखान कर सकती है; फिर कोई विद्वान कैसे कर
सकता है? महेश्वरि! जिसका स्तवन स्वयं ब्रह्मा और
सनातन भगवान् विष्णु नहीं कर सकते, उसकी स्तुति
युद्ध से भयभीत हुआ मैं अपने पाँच मुखों द्वारा कैसे कर
सकता हूँ? अत: महामाये! तुम मुझपर कृपा करके मेरे शत्रु
का विनाश कर दो।