" दहेज एक अभिशाप "

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आदि आनादि काल से दहेज प्रथा चली

आ रही है।

प्राचीन काल में माता-पिता की सम्पति

में केवल उसके पुत्रों का ही अधिकार

माना जाता था ।

 

इसीलिये माता-पिता पुत्री को यही समझ 

कर कि उनके न रहने पर कहीं बहिन के 

साथ भाई उपेक्षा का व्यवहार न करें ,

इसीलिये अपनी सामर्थ्यानुसार पुत्री को 

उसके विवाह में दहेज में उसको व उसके 

पति व ससुराल पक्ष के लिये इच्छानुसार 

वस्त्र,रसोई हेतु बर्तन,स्वर्णाभूषण (जो उसे समय-असमय कठिन घड़ी में काम आ

सकें )और जीवन-यापन हेतु आवश्यक

सामग्री देकर खुशी-२ विदा करते थे,ताकि

जीवन में उसे किसी अभाव का सामना न

करना पड़े।

 

प्राचीन काल में किसी भी पारिवारिक

समस्या के हल हेतु हर समुदाय में 

पंचायतें,पारिवारिक विवादों का निपटारा

बिना पक्षपात के कारगर ढंग से किया

करती थीं,इसीलिये परिवार में सभी एक

दूसरे से जुड़े भी रहते थे।

 

माता-पिता तो पुत्री को दहेज में सब कुछ

देकर उसके सुखद भविष्य की कामना

करते हैं,परन्तु अनेक बार देखा गया है कि

उनकी उसी लाडों से पली पुत्री को दहेज

की और अधिक मांग के कारण ससुराल

पक्ष में आये दिन कठिन परिस्थितियों का

सामना करना पड़ता है।

 

पहिले लोग पुत्रियों को पुत्रों की तुलना में 

या तो पढ़ाते ही नहीं थे या दो-चार जमात

पढ़ा के विद्यालय से निकाल दिया करते थे

परन्तु आज वह स्थिति नहीं है।

 

वास्तव में माता-पिता द्वारा स्वेच्छा से दिये

गये दहेज की परम्परा तो आरम्भ से.ही.

उत्तम रही है,परन्तु शिक्षा के अधिक 

व्यवसायीकरण ने न केवल अमीर,

अपितु गरीब को भी कहीं न कहीं 

दहेज का लोभी बना दिया है।

 

जो व्यक्ति भी आज इंजीनियर, ऐम.बी.ए.,

डाक्टर,प्रशासनिक, पुलिस अधिकारी या

और कोई भी खर्चीली पढ़ाई करने के बाद

उत्तीर्ण होकर स्थायी या अस्थायी काम पर

लगता है तो उसके अभिभावक उसके

विवाह हेतु कन्या पक्ष से लाखों करोड़ों

रुपये ही नहीं अपनी पसंदीदा महिंगी कार,

विलासिता पूर्ण जीवन जीने हेतु भव्य

मकान तक की मांग दहेज में रख बैठते 

हैं।

 

समाज में अच्छे लड़कों की कमी होने के 

कारण अनेक बार अभिभावकों को यह

सोचकर कि कहीं पैसों की कमी के कारण

यह रिश्ता हाथ से न निकल जाये , बाहर 

से कर्ज लेकर भी वर पक्ष की अनुचित

मांगों को पूरा करना पड़ता है।

 

यद्यपि यह कोई गारंटी नहीं ले सकता कि

दहेज अधिक देने से पुत्री को ससुराल में

कोई कष्ट नहीं होगा और वह सुखी होगी।

 

वास्तव में पुत्री को स्वेच्छा से दिया गया

दहेज तो माता-पिता द्वारा दिया गया

उसका वह हिस्सा है जो उसका कानूनी 

व सामाजिक अधिकार है जो उसके जन्म

से ही उसे मिल चुका होत है।

 

समस्या तब आती है जब समाज के 

अनेक दहेजलोभी लोग पुत्र के विवाह में

मनमाना व मुहंमांगा दहेज मांग कर दहेज

की समस्या को विकराल रूप देते हैं।

 

इस समस्या का उपचार भी वर पक्ष भली

भांति कर सकता है।

    "तुम्हीं ने दर्द दिया है,तुम्हीं दवा देना"

 

यदि वर पक्ष वह भी "वर विशेष" कहे कि 

कि "दुल्हन ही दहेज है" और आप जो भी

अपनी इच्छा से अपनी पुत्री को दें या न दें

मुझे स्वीकार होगा तो दहेज एक प्रथा के 

रूप में तो रहेगा परन्तु आये दिन पति-

पत्नी के दाम्पत्य जीवन.में आने वाली

समस्या या सम्बम्ध-विच्छेद की समस्या

का भी अंत होगा ।

 

दहेज रूपी रोग नासूर ( कैंसर ) तो बन

चुका है उसे और विकराल रूप धारण

करने में देर नहीं लगेगी।

    " जब जागो तब सवेरा "

आइये हम सब भी अपना कर्तव्य निभायें।