Welcome to Devwani Devwani is a first web-portal of world which is written in Sanskrit language and Devanagari Lipi developed in year 2012 for Development of Sanskrit language on the web and Computer world. Devwani is a Social Group work under vedic anu

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    Welcome to Devwani

    Devwani is a first web-portal of world which is written in Sanskrit language and Devanagari Lipi developed in year 2012 for Development of Sanskrit language on the web and Computer world. Devwani is   a Social Group work under vedic anusandhan and adhyyan peeth:VAAP. Please help us to promotion and development of Sanskrit language in the world.

    Sanskrit is a language containing many scientific book like four veda,18 puranas,and many upanishad and samhita which is written about thousand and lakes year before Islam and Isaiah religion calendars. According to hindu calendar these books was written before Mahabharata war  and four vedas and many sastras was written before the Ramayana.

    In now days many organisation including nasa and other research organisation also proved that the hinduism is a oldest religion and Sanskrit Vedas and many hiduism book are the first book of the world many vedas Slokas pandulipi was written in stone of indian forest and other places in brahmi lipi So this proved that Hindustani peoples also know reading and writing about 7000 years.

    So you can help to reintroduce this language in world and  here you can use many sanskrit software,sanskrit converter sanskrit os and many of sanskrit books can be read and download by this website.You can read sanskrit daily news,blogging and chating features also available in our portal you can share any of content of this scientific language in our portal dostsabha.com or by downloading our Social app Dstsabha for android mobile in google playstore .

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    Thanks 

  • इशोपनिषद

    इशोपनिषद

    ईशोपनिषद् शुक्ल यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद् अपने नन्हें कलेवर के कारण अन्य उपनिषदों के बीच बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें कोई कथा-कहानी नहीं है केवल आत्म वर्णन है। 

  • यन्त्राधिगम

    इस पुस्तक में मैं सरल उदाररणों द्वारा संस्कृत की समझ बढाने का प्रयत्न करुँगा । संस्कृत में थोड़ा थोड़ा समझने के लिये पहले शास्त्रों मे से लिये गये शब्दों, श्लोकों को थोड़ा थोड़ा समझना एक उत्तम तरीका है ।
    नींचे दिए गए चल चित्रफलक के माध्यम से आप हमारी एनिमेटेड़ चलचित्र देखकर संस्कृत लिखना और बोलना आसानी से सीख सकते हैं हम आपके लिए प्रशिद्ध संस्कृत कहानियों और प्रचलित कथाओं एवं सरलता से संस्कृत सीखने का सरलतम तरीका उपलब्ध करा रहें हैं।
    विशेषतः सनातन धर्मालंबियो को संस्कृत न आना तो शर्म की बात है जिनके सभी ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए हों जिनकी मातृभाषा संस्कृत होनी चाहिए उनके लिए बेहद दुर्भाग्य पूर्ण समय है की संस्कृत बोलना पढना तो दूर वो संस्कृत समझने में भी असमर्थ हैं और एक विदेशी भाषा अंग्रेजी के गुलाम होकर बैठें हैं , अतः हम इसी समस्या को देखते हुए 2012 से लगातार आपको संस्कृत के लिए सरलतम् माध्यम उपलब्ध कराने के लिए प्रतिबद्ध हैं । और हमारे संगठन एक ही लक्ष्य है संस्कृत को जन भाषा बनाना और जन जन तक संस्कृत पहुंचाना और वैदिक शिक्षा के महत्व को पुनः स्थापित करके भारत को विश्वगुरू बनाना
    आप इस लेख को अधिकतम शेयर करें और सभी ऐसे लोगों तक पहुचाएं जो संस्कृत नहीं जानते और जानना चाहते हैं।

    अव्यय

    इन शब्दों के रूप बदलते नहीं हैं । इसलिये इन्हें अव्यय कहा जाता है

    • सर्वत्र - सब जगह

    • कुत्र - कहाँ

    • अद्य - आज

    • ह्यः - कल (बीता हूआ)

    • श्वः - कल (आने वाला)

    • परश्वः - परसों

    • अत्र - यहाँ

    • तत्र - वहाँ

    • यथा - जैसे

    • तथा - तैसे

    • एवम् - ऐसे

    • कथम् - कैसे

    • सदा - हमेशा

    • कदा - कब

    • यदा - जब

    • तदा - तब

    • अधुना - अब

    • अधुनैव - अभी

    • कदापि - कभीभी (नहीं के साथ)

    • पुनः - फिर

    • च - और

    • न - नहीं

    • हि - ही

    • वा - या

    • अथवा - या

    • अपि - भी

    • तु - लेकिन (तो)

    • शीघ्रम् - जल्दी

    • शनैः - धीरे धीरे

    • धिक् - धिक्कार

    • प्रति - ओर

    • विना - बिना

    • सह - साथ

    • कुतः - कहाँ से

    • नमः - नमस्कार

    • स्वस्ति - कल्याण हो

    लट् लकार

    लट् लकार वर्तमान को कहते हैं । ये सब लकार verbs को बदलने के लिये प्रयोग किये जाते हैं ।

    जैसे भू धातु है । जिसका मतलब है 'होना' तो अगर हमें वर्तमान में इसका प्रयोग करना है, तो हम लट् लकार का प्रयोग करते हैं । लकार है कि धातु में क्या बदलाव आयेगा । उसका क्या भाव होगा।


    भू (लट्लकार मतलब वर्तमान काल)

    प्रथम (अन्य) पुरुष : भवति - भवतः - भवन्ति

    मध्यम पुरुष : भवसि - भवथः - भवथ

    उत्तम पुरुष : भवामि - भवावः - भवामः


    प्रथम पुरुष होता है कोई तीसरा (अन्य) आदमी । मध्यम पुरुष है 'तुम, आप, तुम लोग आदि' । उत्तम पुरुष मतलब 'मैं, हम सब' ।

    तो एक संख्या के लिये भवति (प्रथम पुरुष), भवसि (मध्यम पुरुष) और भवामि (उत्तम पुरुष) प्रयोग होगा । उसी तरह दो संख्याओं के लिये भवतः भवथः भवावः, और दो से अधिक संख्याओं के लिये भवन्ति, भवथ, भवामः का प्रयोग होगा ।

    जैसे

    अहम् पठामि (मैं पढ रहा हूँ । )

    अहम् खादामि (मैं खा रहा हूँ )

    अहम् वदामि । (मैं बोल रहा हूँ)

    त्वम गच्छसि । (तुम जा रहे हो)

    सः पठति (वह पढता है)

    तौ पठतः (वे दोनो पढते हैं)

    ते पठन्ति (वे सब पढते हैं)

    युवाम वदथः (तुम दोनो बताते हो )

    युयम् वदथ (तुम सब बताते हो, बता रहे हो)

    आवाम् क्षिपावः (हम दोनो फेंकते हैं)

    वयं सत्यम् कथामः (हम-सब सत्य कहते हैं)

    तो अगर अभी कुछ हो रहा है, उसे बताना है तो धातुयों को लट् लकार का रूप देते हैं ।

    उसी प्रकार और भी कई लकार हैं ।

    लोट् लकार

    जैसे लट् वर्तमान काल या वर्तमान भाव बताने के लिये होता है, उसी प्रकार लोट् लकार होता है आज्ञार्थक भाव बताने या आज्ञा देने के लिये अथवा आदेश देने के लिए ।

    आज्ञा देना, या याचना करने के लिये या आज्ञा लेने के लिये भी ।

    जैसे

    भवतु भवताम् भवन्तु

    भव भवतम् भवत

    भवानि भवाव भवाम

    (आप को याद होगा श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान् अर्जुन को कहते हैं 'योगी भव अर्जुन')

    Some Shlokas and Random Stuff for learning Sanskrit
    ॐ नमः भगवते वासुदेवाय - भगवान वासुदेव को मैं नमस्कार करता हूं ।

    येषां न विद्या, न तपो, न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।

    ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।

    जो विद्या के लिये प्रयत्न नहीं करते, न तप करते हैं, न दान देते हैं, न ज्ञान के लिये यत्न करते हैं, न शील हैं और न ही जिनमें और कोई गुण हैं, न धर्म है (सही आचरण है), ऍसे लोग मृत्युलोक में इस धरती पर बोझ ही हैं, मनुष्य रुप में वे वास्तव में जानवर ही हैं ।

    पिता रत्नाकरो यस्य, लक्ष्मीर्यस्य सहोदरी ।

    शङ्खो भिक्षाटनं कुर्यात्, फलं भाग्यानुसारतः ।।

    रत्नकरो - रत्न करः - सागर

    सहोदरी - सह + उदर (गर्भ योनि)

    भिक्षाटनं - भिक्षा + अटन (विचरना)

    पिता जिसका सागर है, और लक्ष्मी जिसकी बहन है (यहाँ शंख की बात हो रही है, जो सागर से उत्पन्न होता है, और क्योंकि लक्ष्मी जी सागर मंथन में जल से प्रकट हुईं थीं, इसलिये वो उसकी बहन हैं) । वह शंख भिक्षा माँगता सडकों पर भटक रहा है । देखिये! फल भाग्य के अनुसार ही मिलते हैं ।


    अस्मद् (मम):

    अर्थ

    एकवचन

    द्विवचन

    बहुवचन

    मैं, हम

    अहम

    आवाम्

    वयम्

    मुझे, हमें

    माम्

    आवाम्

    अस्मान्

    मेरे द्वारा, हमारे द्वारा, साथ

    मया

    आवाभ्याम्

    अस्माभिः

    लिये

    मह्यम्

    आवाभ्याम्

    अस्मभ्यम्

    मुझ से, हमसे

    मत्

    आवाभ्याम्

    अस्मत्

    मेरा, हमारा

    मम

    आवयोः

    अस्माकम्

    मुझ में, हम में

    मयि

    आवयोः

    अस्मासु

    युष्माद् (तुम):

    अर्थ

    एकवचन

    द्विवचन

    बहुवचन

    तुम

    त्वम्

    युवाम्

    यूयम्

    तुम्हें

    त्वाम्

    युवाम्

    युष्मान्

    तुम्हारे द्वारा, साथ

    त्वया

    युवाभ्याम्

    युष्माभिः

    लिये

    तुभ्यम्

    युवाभ्याम्

    युष्मभ्यम्

    तुम से

    त्वत्

    युवाभ्याम्

    युष्मत्

    तुम्हारा

    तव

    युवयोः

    युष्माकम्

    तुम में

    त्वयि

    युवयोः

    युष्मासु

    पुरुषः एक - कः, कम्, केन कस्मै कस्मात् कस्य कस्मिन् दो - कौ कौ काभ्याम् काभ्याम् कयोः कयोः बहु - के कान् कैः केभ्यः केभ्यः केषाम् केषु स्त्री लिंगः एक - का काम् कया कस्यै कस्याः कस्याः कस्याम् दो - के के काभ्याम् काभ्याम् काभ्याम् कयोः कयोः बहु - काः काः काभिः काभ्यः काभ्यः कासाम् कासु पुरुषः एक - यः यम् येन यस्मै यस्मात् यस्य यस्मिन् दो - यौ यौ साभ्याम् याभ्याम् याभ्याम् ययोः ययोः बहु - ये यान् यैः येभ्यः येभ्यः येषाम् येषु स्त्री लिंग : या याम् यया यस्यै यस्याः यस्याः यस्याम् ये ये याभ्याम् याभ्याम् याभ्याम् ययोः ययोः याः याः याभिः याभ्यः याभ्यः यासाम् यासु


    उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्य मरणं तृणम् ।

    विरक्तस्य तृणं भार्या निःस्पृहस्य तृणं जगत् ।।

    उदार मुनुष्य के लिये धन घास के बराबर है । शूर के लिये मृत्यु घार बराबर है । जो विरक्त हो चुका हो (स्नेह हीन हो चुका हो) उसके लिये उसकी पत्नी का कोई महत्व नहीं रहता (घास बराबर) । और जो इच्छा और स्पृह से दूर है, उसके लिये तो यह संपूर्ण जगत ही घास बराबर, मूल्यहीन है ।

    आरभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचै:

    प्रारभ्य विघ्नविहता विरमंति मध्या:

    विघ्नै: पुन: पुनरपि प्रतिहन्यमाना:

    प्रारभ्य चोत्तमजना: न परित्यजंति

    विघ्न (रस्ते की रुकावटों) के भय से जो कर्म को आरम्भ ही नहीं करते हैं, वे नीचे हैं । लेकिन जो आरम्भ करने पर विघ्नों के आने पर उसे बीच में छोड देते हैं, वे मध्य में हैं (थोडे बेहतर हैं) । बार बार विघ्नों की मार सहते हुए भी, जो आरम्भ किये काम को नहीं त्यागते, वे जन उत्तम हैं ।

    सहसा विदधीत न क्रियां अविवेक: परमापदां पदम्

    वृणुते हि विमृशकारिणं गुणलुब्धा: स्वयमेव संपद:

    एकदम से (बिना सोचे समझे) कोई भी कार्य नहीं करना चाहिये, क्योंकि अविवेक (विवेक हिनता) परम आपदा (मुसीबत) का पद है । जो सोचते समझते हैं, गुणों की ही तरह, संपत्ति भी उनके पास अपने आप आ जाती है ।


    सहस्र - हजार । पूतात्मा - पूत +आत्मा - शुद्ध आत्मा (भगवान का नाम) परमात्मा - परम आत्मा विश्वात्मा - विश्व आत्मा अरवान्दाक्ष - अरवान्द +अक्ष - कमल जैसी आँखों वाले । कमल के फूल को पद्म, कमल, अरविन्द, अब्ज, पंक्ज आदि कहा जाता है । आखों को चक्षु, नेत्र, नयन, दृष्टि आदि कहा जाता है। सहस्राक्ष - सहस्र (हजार) अक्ष - हजारों आँखों वाले साक्षी (भगवान का ही नाम है) - जो साथ में देखता है (स अक्षि) नारसिंहवपु - नर और सिंह के रुप वाले (भगवान नरसिंह अवतार) (वपु होता है रुप) अमृतवपु अनिर्देश्यवपु - जिनके रुप को बताया नहीं जा सकता सुरेश - सुरों का ईश अमोघ - मोघ रहित अनघो - पाप रहित सर्वेश्वर - सर्व + ईश्वर - सबके ईश्वर आदिदेव -आदि देव - सबसे पहले जो केवल एक देव ही थे, सबके आदि विद् - जानना वेदविद् - वेदों को जानने वाले धर्मविदुत्तम - उत्तम धर्म को जानने वाले '''श्लोक:''' :इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः । :नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ॥ १ ॥ :य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् । :नाशुभं प्राप्नुयात्किंचित्सोऽमुत्रेह च मानवः ॥ २ ॥ - इस प्रकार श्री केशव महात्मा का उनके अशेष सहस्र दिव्य नामों द्वारा उनकी प्रकीर्ति (यश, कीर्ति) का गुणगान किया गया है । जो इन्हें नित्य सुनता (शृणुत्य) है या स्वयं परिकीर्तन करता है वह मानव कभी भी अशुभ नहीं प्राप्त करता - न यहाँ न कहीं और । यह श्लोक श्री विष्णु सहस्रनाम में पाया जाता है (महाभारत में) । भाष्म पितामहः ने युधिष्ठिर को भगवान व्यास जी द्वारा कहे भगवान हरि के सहस्र नामों को बताने के बाद उन्हें (युधिष्ठिर को) यह कहा था ।


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  • सन्धिप्रकरणम्

    सन्धिप्रकरणम्

    उच्चारणसमये वर्णानाम् अत्यन्तं सामीप्यं संहिता। यत्र संहिता भवति तत्र क्वचित् वर्णव्ययः भवति। अयमेव सन्धिः।

    • वर्णस्य वर्णयोः वा स्थाने यदि अन्यः वर्णः भवति सः आदेशः।

    • एकेन वर्णेन सह यदि अन्यः वर्णः अपि भवति सः आगमः।

    ( शत्रुवत् आदेशः। मित्रवत् आगमः।)

    सन्धयः त्रिविधाः १) स्वरसन्धिः २) व्यञ्जनसन्धिः ३) विसर्गसन्धिः

    स्वरसन्धिः (अच् सन्धिः)

    यत्र द्वयोः स्वरयोः संहिता तत्र सन्धिकार्यं भवति। तत्र एकस्य वर्णस्य क्वचित् आदेशो भवति क्वचित् द्वयोः वर्णयोः। अयं स्वरसन्धिः भवति।

    प्रकाराः - १) सवर्णदीर्घसन्धिः २) गुणसन्धिः ३) वृद्धिसन्धिः ४) यण्सन्धिः ५) पूर्वरूपसन्धिः ६) यान्तवान्तादेशसन्धिः ७) प्रकृतिभावसन्धिः

    सवर्णदीर्घसन्धिः

    • पाणिनीयसूत्रम् - अकः सवर्णे दीर्घः - अकः सवर्णे अचि परे दीर्घ एकादेशः स्यात्।

    अ इ उ ऋ एतेषां वर्णानां सवर्णे परे द्वयोः वर्णानां स्थाने एकः सवर्णः दीर्घः आदिष्टः भवति। अयं सवर्णदीर्घसन्धिः।

    उदा -

    अल्प + अपराधः = अल्पापराधः

    मुनि + इन्द्रः = मुनीन्द्रः

    गुरु + उपदेशः = गुरूपदेशः

    पितृ + ऋणम् = पितॄणम्

    गुणसन्धिः

    • पाणिनीसूत्रम् - आद्गुणः

    (ए, ओ, अर् एतेषां गुण इति नाम।) अकारस्य वा आकारस्य इकारे परे एकारः उकारे परे ओकारः ऋकारे परे अर्कारः च द्वयोः वर्णयोः स्थाने आदिष्टः भवति। अयं गुनसन्धिः।

    उदा -

    राम + इति = रामेति

    सूर्य + उदयः = सूर्योदयः

    ब्रह्म + ऋषिः = ब्रह्मर्षिः

    महा + ईश्वरः = महेश्वरः

    वृद्धिसन्धिः

    • पाणिनीसूत्रम् - व्रुद्धिरेचि - आदेचि परे वृद्धिरेकादेशः स्यात्।, उपसर्गादृति धातौ

    (ऐ, औ, आर् एतेषां वृद्धि इति नामः।) अवर्णस्य एकारे ऐकारे च परे द्वयोः वर्णयोः स्थाने ऐकारः ओकारे औकारे च परे द्वयोः वर्णयोः स्थाने औकारः ऋकारे ॠकारे च परे द्वयोः वर्णयोः स्थाने आर्कारः आदिष्टः भवति। अयं वृद्धिसन्धिः।

    उदा -

    एक + एकम् = एकैकम्

    वन + औषधिः = वनौषधिः

    प्र + ऋच्छति = प्रार्च्छति

    देव + ऐश्वर्यम् = देवैश्वर्यम्

    यण्सन्धिः

    • पाणीनीसूत्रम् - इकोयणचि - इकः स्थाने यण् स्यादचि सहितायाम्।

    (य्, व्, र्, ल् एतेषां यण् इति नाम।) इ, उ, ऋ, लृ एतेषां वर्णानाम् असवर्णे स्वरे परे य्, व्, र्, ल् वर्णाः क्रमशः आदिष्टाः भवन्ति। अयं यण् सन्धिः।

    उदा -

    इति + आदि = इत्यादि

    मधु + अरिः = मध्वरिः

    पितृ + अंशः = पित्रंशः

    लृ + आकृतिः = लाकृतिः

    पूर्वरूपसन्धिः

    • पाणिनीसूत्रम् - एङः पदान्तादति

    पदान्ते स्थितस्य एकारस्य ओकारस्य वा ह्रस्वे अकारे परे द्वयोः वर्णयोः स्थाने पूर्वरूप्ः आदेशः भवति। अयं पूर्वरूपसन्धिः। (अवग्रहचिह्नम् - ऽ)

    उदा -

    के + अपि = केऽपि

    को + अपि = कोऽपि

    सो + अयम् = सोऽयम्

    रामो + अवदत् =रामोऽवदत्

    यान्तवान्तादेशसन्धिः

    • पाणिनीसूत्रम् - एचोऽयवायावः

    ए, ओ, ऐ, औ इत्येतेषां वर्णानां स्थाने स्वरे परे अय्, अव्, आय्, आव् इत्येते आदेशाः क्रमशः भवन्ति। अयं यान्तवान्तादेशसन्धिः।

    उदा -

    हरे + ए = हरये

    नै + अकः = नायकः

    विष्णो + ए = विष्णवे

    उभौ + अपि = उभावपि

    प्रकृतिभावः

    • पाणिनीसूत्रम् - प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्

    वर्णयोः यत्र सन्धिः न भवति सः प्रकृतिभावः। ईकारात्, ऊकारात्, एकारात् वा द्विवचनात् स्व्ररे परे सन्धिः न भवति। अयमं प्रकृतिभावः।

    उदा -

    हरी + एतौ = हरी एतौ

    साधू + ऊचतुः = साधू ऊचतुः

    व्यञ्जनसन्धिः (हल्सन्धिः)

    यत्र द्वयोः व्यञ्जनयोः संहिता तत्र सन्धिकार्यं भवति। अयं व्यञ्जनसन्धिः भवति। क्वचित् व्यञ्जनाक्षरस्य स्वरे परेऽपि व्यञ्जनसन्धिः भवति।

    प्रकाराः - १) श्चुत्वसन्धिः २) ष्टुत्वसन्धिः ३) जश्त्वसन्धिः ४) अनुनासिकसन्धिः ५) अनुस्वारसन्धिः ६) परसवर्णसन्धिः ७) ङमुडागमसन्धिः ८) छत्वसन्धिः

    श्चुत्वसन्धिः

    • पाणिनीसूत्रम् - स्तोः श्चुना श्चुः - सकारतवर्गयोः शकारचवर्गाभ्यां योगे शकारचवर्गौ स्तः।

    सकारतवर्गयोः शकारे चवर्गे च परे शकारचवर्गौ एव क्रमशः आदेशौ स्तः। अयं श्चुत्वसन्धिः।

    उदा -

    तत् + च = तच्च

    गुणिन् + जयः = गुणिञ्जयः

    मन्दास् + चरितम् = मन्दाश्चरितम्

    रामस् + शेते = रामश्शेते

    ष्टुत्वसन्धिः

    • पाणिनीसूत्रम् - ष्टुना ष्टुः।

    सकारतवर्गयोः षकारटवर्गाभ्यां योगे षकारटवर्गौ स्तः।

    उदा -

    तत् + टीका = तट्टीका

    रामस् + षष्टः = रामष्षष्टः

    जिस् + णुः = जिष्णुः

    पतत् + डयते = पतड्डयते

    जश्त्वसन्धिः

    • पाणिनीसूत्रम् - झलां झशोन्ते।

    पदान्ते स्थितस्य वर्गीयप्रथमाक्षरस्य स्वरे परे अथवा अनुनासिकं विहाय मृदुव्यञ्जने परे तस्य वर्गस्य तृतीयवर्णः आदिष्टः भवति। अयं जश्त्वसन्धिः।

    उदा -

    सत् + गुणः = सद्गुणः

    प्राक् + एव = प्रागेव

    षट् + एते = षडेते

    अप् + धिः = अब्धिः

    अनुनासिकसन्धिः

    • पाणिनीसूत्रम् - यरोनुनासिकेऽनुनासिको वा।

    पदान्ते स्थितस्य वर्गीयप्रथमवर्णस्य अनुनासिकाक्षरे परे तस्य तस्य वर्गस्य पञ्चमवर्णः आदिष्टः भवति। अयं अनुनासिकसन्धिः।

    उदा -

    वाक् + मयः = वाङ्मयः

    षट् + मुखः = षण्मुखः

    चित् + मयः = चिन्मयः

    उत् + नसः = उन्नसः

    अनुस्वारसन्धिः

    पाणिनीसूत्रम् - मोऽनुस्वारः।

    पदान्ते विद्यमानस्य मकारस्य व्यञ्जने परे मकारस्य स्थाने अनुस्वारः आदिष्टः भवति।

    उदा -

    देवम् + वन्दे = देवं वन्दे

    एवम् + रूपेण = एवं रूपेण

    परसवर्णसन्धिः

    • पाणिनीसूत्रम् - अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः वा पदान्तस्य।

    अनुस्वारस्य वर्गीयव्यञ्जने परे तस्य वर्गस्य पञ्चमवर्णः आदिष्टः भवति। अयं परसवर्णसन्धिः।

    उदा -

    अं + कितः = अङ्कितः

    दं + डः = दण्डः

    इदं + च = इदञ्च

    आनं + दः = आनन्दः

    ङमुडागमसन्धिः

    • पाणिनीसूत्रम् - ङमो ह्रस्वादचि ङमुण्नित्यम्।

    ह्रस्वस्वरात् परं विद्यमानानां ङ्, ण्, न् एतेषां वर्णानां स्वरे परे द्वित्यं भवति। अयं ङमुडागमसन्धिः।

    उदा -

    वसन् + अस्ति = वसन्नस्ति

    रुदन् + उपविशति = रुदन्नुपविशति

    कुर्वन् + एव = कुर्वन्नेव

    रुदन् + इति = रुदन्निति

    छत्वसन्धिः

    अनुनासिकं विहाय वर्गीयव्यञ्जनानां पुरतः विद्यमानस्य शकारस्य स्वरे अथवा ह्, य्, व्, र्, ल्, परे शकारस्य स्थाने छ्कारः आदिष्टः भवति। अयं छत्वसन्धिः।

    उदा -

    तत् + शिवः = तच्छिवः

    उत् + श्वासः = उच्छ्वासः

    एतत् + शास्त्रम् = एतच्छास्त्रम्

    तत् + श्रुत्वा = तच्छृत्वा

    विसर्गसन्धिः

    विसर्गस्थाने सादेशेन, विसर्गलोपेन, रेफेन, उत्वेन च विसर्गसन्धयः भवन्ति।

    प्रकाराः - १) सकारादेशः २) उकारादेशः ३) रेफादेशः ४) विसर्गलोपः

    सकारादेशः

    विसर्गात्परं यदि क-ख प-फ वर्णान् वर्जयित्वा कर्कशव्यञ्जनानि भवन्ति तदा विसर्गस्थाने सकारस्य आदेशः भवति।

    उदा -

    कः + चित् = कश्चित्

    रामः + तत्र = रामस्तत्र

    रामः + षष्ठः = रामष्षष्ठः

    धनुः + ठङ्कारः = धनुष्ठङ्का

    उकारादेशः

    ह्रस्वाकारात् परं विसर्गः ततः परम् अकारः मृदुव्यञ्जनं वा भवेत् चेत् विसर्गस्थाने उकारः भवति।

    उदा -

    देवः + अयम् = देवोऽयम्

    रामः + अत्र = रामोऽत्र

    शिवः + वन्द्यः = शिवो वन्द्यः

    रामः + जयति = रामो जयति

    रेफादेशः

    अ आ कारौ विहाय इतरेभ्यः स्वरेभ्यः परं विसर्गः ततः परं स्वरः अथवा मृदुव्यञ्जनं भवति चेत् विसर्गः रेफत्वेन परिणमते।

    उदा -

    गुरुः + इच्छा = गुरुरिच्छा

    मुनिः + नमति = मुनिर्नमति

    रविः + उदेति = रविरुदेति

    वधूः + एषाः = वधूरेषा

    विसर्गलोपः

    आकारात् परं विद्यमानस्य विसर्गस्य पुरतः स्वरः अथवा मृदुव्यञ्जनं भवेत् चेत् विसर्गस्य लोपः भवति। अकारात् परं विद्यमानस्य विसर्गस्य पुरस्तात् अकारं विना इतरेषु स्वरेषु आगतेषु विसर्गः लुप्यते।

    उदा -

    देवाः + यान्ति = देवा यान्ति

    सुराः + नम्याः = सुरा नम्याः

    अर्जुनः + उवाच = अर्जुन उवाच

    वेदः + इति = वेद इति