पोस्ट मार्टम 

महात्मा केशव बलिराम हेडगेवारः

कॉग्रेस का लोकतंत्र उर्फ़ नेहरु-गाँधी परिवार प्राइवेट लिमिटेड के  मुकाबले आरएसएस का वैकल्पिक वैचारिक मंच 

मुझे नहीं लगता कि आप हेडगेवार को जानते होंगे। आज की कूल-ड्यूड पीढ़ी हेडगेवार नाम से परिचित नहीं होगी। क्यों होगी, जब इस संस्था के लोगों को ही नहीं पड़ी तो दूसरों की क्या कहें।

हेडगेवार भारत में न होते तो देश सही मायने में लोकतांत्रिक कभी भी न हो पाता।  हेडगेवार देशभक्त थे और इसमें कभी किसी को शंका नहीं हो सकती और तब तो और जब उनके प्रयासों और उन प्रयासों के प्रतिफलनों पर दृष्टि डाल ली जाए। हेडगेवार कितने दूरदर्शी थे इसी से अंदाज़ा लगाइए कि 1925 में ही कॉग्रेस से अलग हो गए। यानी वे उसी समय समझ गए थे कि कॉग्रेस में लोकतंत्र नहीं है। अगर देश को स्वस्थ लोकतंत्र यानी प्रकारांतर से स्वस्थ- भविष्य देना है तो इस संस्था का राजनीतिक विकल्प देना होगा।

वे उसी समय सक्रिय-राजनीति से बाहर आ गए और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए समर्पित मस्तिष्क और शरीर तैयार करने के काम में लग गए। उन्होंने कॉग्रेस को काफी करीब से जाना था इसलिए अपनी बनाई संस्था का ढ़ाँचा ऐसा निर्मित किया कि यहाँ कभी परिवार की न चल सके। आप आरएसएस या भाजपा में परिवार के वर्चस्व की कल्पना सपने में भी नहीं कर सकते। 

पूरी संस्था का सेटअप ऐसा है कि योग्यता के बल पर ही ऊपर चढ़ने का अवसर मिल सकता है। आप अटल जी  या आडवाणी जी या मोहन भागवत जी या सुदर्शन जी या खुद हेडगेवार जी के ही परिवार के क्यों न हों, केवल इस आधार पर आप आरएसएस या भाजपा के प्रमुख या नीति-निर्धारक नहीं बन सकते।

इस संस्था का ढाँचा ऐसा है कि इसे कार्यकर्ता ही चलाते हैं। मतलब यह नहीं हो सकता कि अध्यक्ष या प्रधानमंत्री जो मन कर लें। अटल जी ने गुजरात दंगों के बाद सोचा मोदी को सस्पेंड कर दें, लेकिन तबतक गुजरात का मुख्यमंत्री कार्यकर्ताओं के दिलों का सम्राट बन चुका था। पार्टी के सबसे कद्दावर नेता भी अपने फैसले को पार्टी पर नहीं थोप सके। बल्कि खुद वे अप्रासंगिक हो गए लेकिन मोदी को नहीं हटा सके क्योंकि कार्यकर्ता नहीं चाहते थे। 

2013 में जब आडवाणी भी मोदी की दावेदारी को रोक रहे थे तब भी कार्यकर्ताओं ने अड़ंगा डाल दिया। तो सोचिए एकतरफ कॉग्रेस का परिवारवाद और उसके विलोम में कार्यकर्ताओं की चलने वाली राजनीतिक संस्था। सोशल मीडिया तो अब आया है हेडगेवार ने तो उसी समय संस्था की कमान जनता(कार्यकर्ताओं) के हाथों में दे दी थी।

इस मनःस्थिति और ढ़ाँचे से बनी संस्था की आनेवाले दिनों में इतनी बड़ी राजनीतिक स्वीकार्यता होगी, यह हेडगेवार को 1925 में ही समझ में आ गया था। ऐसा इसलिए क्योंकि वे स्वभाव से ही लोकतांत्रिक थे और कॉग्रेस के अलोकतंत्र को बढ़िया से समझते थे।

आप कल्पना कीजिए कि अगर आरएसएस(जनसंघ/भाजपा) का जन्म न हुआ होता तो आज क्या स्थिति होती। देश में एकल-सत्तावादी विमर्श चल रहा होता। 

तब रात को दिन और दिन को रात कहने पर भी आपको यकीन करना होता बल्कि जनता दल और फिर भाजपा के अभ्युदय के पहले तक यही होता भी रहा है। महात्मा गाँधी को जो मन उन्होंने किया। कभी पाकिस्तान को पैसे दे दो तो कभी आंदोलन करो, कभी वापस ले लो। नेहरु से लेकर राजीव गाँधी तक के समय को भी उठाकर देख लीजिए, इन दलों ने जो-जो राजनीतिक बातें कीं, उन्हें निर्विरोध मान लिया जाता रहा है। उसके विरोध में बोलने वाले एकेडेमिक्स के द्वारा समाज और आधुनिकतार द्रोही करार दिए जाते।

किसी भी लोकतंत्र की धुरी या पिलर्स चाहे जितने हों लेकिन मूल में दो ही अवधारणाएँ हैं जिनके बिना लोकतंत्र असफल हो जाता है। पहला, आलोचना और दूसरा, संवाद।  भाजपा के जन्म के पहले देश में इन दोनों का ही अभाव रहा है। कॉग्रेस एकतरफा रही है।

सही मायने में इस लोकतंत्र को आलोचनात्मक विकल्प आरएसएस(भाजपा) ने ही दिया। अगर यह संगठन न आया होता तो भारत की जनता विकल्पहीन एक परिवार की सनक की भेंट चढ़ती रहती। कभी मूड हुआ तो नसबंदी करा दी और कभी मन हुआ तो देश पर इमरजेंसी थोप दी। आरएसएस ने देश को एकतरफा राजनीतिक सनक की भेंट चढ़ने से बचाया है। उसने लोकतंत्र को बुनियाद दी है। स्मरण रहे विकल्प के बिना द्वंद्वात्मकता संभव ही नहीं है।

आज कॉग्रेस के अंदर कितना लोकतंत्र है यह पूरा देश देख रहा है। कॉग्रेस की पीआर टीम जिस राहुल गाँधी को नेता बनाने के लिए कमर कस चुकी है वह न जाने किन-किन मूल्यों को भेंट चढ़ाकर इस अयोग्य सनकी को नेता बनाना चाहती है।

राहुल को विनम्र और लोकतांत्रिक नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने की रणनीति इसलिए असफल हो गई है क्योंकि असल में वे न ही लोकतांत्रिक हैं और न ही विनम्र। यूपीए के कार्यकाल में मनमोहन सिंह को दो कौड़ी का समझने से लेकर ऑर्डिनेंस फाड़ने तक और सार्वजनिक मंचों पर अहंकारी नेता की बॉडी-लैंग्वेज से लेकर कॉग्रेसी कार्यकर्ताओं और नेताओं को मिलने के लिए समय न देने तक की सारी  अलोकतांत्रिक हरकतें राहुल के स्वभाव में बद्धमूल हैं।

इसके अतिरिक्त वे राजनीति को पार्ट-टाइम जॉब की तरह अगंभीरता से लेते हैं। ऐसी मनःस्थिति के नेता को इतनी बड़ी पार्टी और प्रकारांतर से देश सौंपने की हरकत या कोशिश के लिए कॉग्रेस को कभी माफ नहीं किया जाना चाहिए।

जो नेता देश के किसी मुद्दे पर पाँच पंक्तियों तक की निजी राय न रखता हो उसे लोकतंत्र का प्रहरी बनाना इस देश की जनता से तो नहीं ही होगा, खासकर तब जब यह जनता राजनीतिक रूप से इतनी प्रखर है। उसकी प्रखरता का पता तो सोशल मीडिया के आने के बाद पूरे विश्व को चल गया है।

नेहरू-गाँधी परिवार के नाम पर राजनीतिक रोटियाँ खाने की आदत पड़ चुकी कॉग्रेसी जमात को आलस्य ने बुरी तरह घेर रखा है वर्ना कर्मठ लोग इस सड़ चुकी लीडरशिप को कबका ठोकर लगाकर आगे बढ़ जाते। (लेकिन योग्य और विरोधी को यह पार्टी सदैव दुत्कारती है। सुभाषचंद्रबोस इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।)

आप कहेंगे देश की जनता में नेहरू-गाँधी परिवार का क्रेज़ है। अतः उन्हें किनारा करना कॉग्रेस की मृत्यु होगी। मैं आपके केवल इस तर्क के आधार पर भी कहूंगा कि तब तो कॉग्रेस को खत्म ही हो जाना चाहिए क्योंकि गाँधी-पटेल,नेहरू,तिलक,गोखले आदि नेताओं के युग में अकेले कॉग्रेस को पछाड़ने की मंशा से संस्था बनाने की हिम्मत अगर एक अकेले आदमी को 1925 में हो सकती है और आज 2020 में भी इतने मज़बूत सेटअप के बावजूद आप राहुल गाँधी जैसे अयोग्य व्यक्ति का पल्लू छोड़ने में भी अस्तित्व का संकट देख रहे हैं तो आपको खत्म हो ही जाना चाहिए।

आरएसएस को गालियाँ दे लीजिए, हेडगेवार पर जोक्स बना लीजिए लेकिन याद रखिएगा अकेले, मैं फिर कह रहा हूँ अकेले अपने बूते पर इतने बड़े देश में, इतने ताकतवर लोगों की ताकतवर सेंटिंग्स के बरअक्स यह सोचना कि मैं देश की राजनीति को विकल्प दूँगा, केवल इस भावना के लिए भी हेडगेवार प्रणम्य हैं।

और तबकी क्या कहें जब आज तो उनका देखा सपना न सिर्फ सच हुआ है बल्कि ऐसा सच हुआ है कि दुनिया में उनके द्वारा बनाई संस्था से बड़ी कोई दूसरी संस्था नहीं है।

मैं भारतीय राजनीति में केशव बलिराव हेडगेवार को गाँधी के ही समतुल्य महान व्यक्तित्व मानता हूँ क्योंकि कॉग्रेस के रूप में अगर वे देश की मुख्यधारा को निर्मित कर रहे थे तो हेडगेवार उस मुख्यधारा के विकल्प के लिए मंच तैयार कर रहे थे। मैं आरएसएस और भाजपा से इसलिए नाराज रहता हूँ कि उन्होंने हेडगेवार को उनका उचित राजनीतिक कद अबतक नहीं दिया है। मैं हेडगेवार को भी महात्मा जैसी संज्ञा के सर्वथा उपयुक्त मानता हूँ।

हेडगेवार न होते तो आज हम इस सनकी नेता के सनकी परिवार की सनक की भेंट चढ़ गए होते और माँ-बेटे को राष्ट्र-प्रमुख के रूप में झेल रहे होते। 

थैंक यू महात्मा केशव बलिराम हेडगेवार जी

(आदित्य कुमार गिरी. के लेख के कुछ चुनिंदा अंशों का रूपांतरण)

अजित कोठारी 🇮🇳🇮🇳