मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जन्म भूमि का इतिहास लाखो वर्ष पुराना है । इस पोस्ट में विभिन्न पुस्तकों से मिले कुछ तथ्यों को संकलित करने का प्रयास कर रहा हूँ, जिससे रामजन्मभूमि और इतिहास के बारे में वास्तविक जानकारी का संग्रहण,विवेचना और ज्ञान हो सके। ये सारे तथ्य विभिन्न पुस्तकों में उपलब्ध हैं, मगर सरकारी मशीनरी और तुस्टीकरण के पुजारी उन्हें सामान्य जनमानस तक नहीं आने देते मैंने सिर्फ उन तथ्यों का संकलन करके आप के सामने प्रस्तुत किया है॥ इसमे प्रमुखता से स्वर्गीय पंडित रंगोपाल पांडे "शारद" द्वारा लिखे गए तथ्यों को आप के सामने आने वाली सभी कड़ियों मे रखने का प्रयास करूंगा ॥

 

श्री रामजन्मभूमि का ईसापूर्व इतिहास..

 

त्रेता युग के चतुर्थ चरण में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र जी अयोध्या की इस पावन भूमि पर अवतरित हुए थे। श्री राम चन्द्र जी के जन्म के समय यह स्थान बहुत ही विराट,सुवर्ण एवं सभी प्रकार की सुख सुविधाओ से संपन्न एक राजमहल के रूप में था। महर्षि वाल्मीकि ने भी रामायण मे जन्मभूमि की शोभा एवं महत्ता की तुलना दूसरे इंद्रलोक से की है ॥धन धान्य रत्नो से भरी हुई अयोध्या नगरी की अतुलनीय छटा एवं गगनचुम्बी इमारतो के अयोध्या नगरी में होने का वर्णन भी वाल्मीकि रामायण में मिलता है ॥

भगवान के श्री राम के स्वर्ग गमन के पश्चात अयोध्या तो पहले जैसी नहीं रही मगर जन्मभूमि सुरक्षित रही। भगवान श्री राम के पुत्र कुश ने एक बार पुनः राजधानी अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया और सूर्यवंश की अगली 44 पीढ़ियों तक इसकी अस्तित्व आखिरी राजा महाराजा वृहद्व्ल तक अपने चरम पर रहा॥ कौशालराज वृहद्वल की मृत्यु महाभारत युद्ध में अभिमन्यु के हाथो हुई । महाभारत के युद्ध के बाद अयोध्या उजड़ सी गयी मगर श्री रामजन्मभूमि का अस्तित्व प्रभुकृपा से बना रहा ॥

महाराजा विक्रमादित्य द्वारा पुनर्निर्माण:

ईसा के लगभग १०० वर्ष पूर्व उज्जैन के राजा विक्रमादित्य आखेट करते करते अयोध्या चले आये। थकान होने के कारण अयोध्या में सरयू नदी के किनारे एक आम के बृक्ष के नीचे वो आराम करने लगे। उसी समय दैवीय प्रेरणा से तीर्थराज प्रयाग से उनकी मुलाकात हुई और तीर्थराज प्रयाग ने सम्राट विक्रमादित्य को अयोध्या और सरयू की महत्ता के बारे में बताया और उस समय तक नष्ट सी हो गयी श्री राम जन्मभूमि के उद्धार के लिए कहा॥

महाराजा विक्रमादित्य ने कहा की महाराज अयोध्या तो उजड़ गयी है,मिटटी के टीले और स्तूप ही यहाँ अवशेषों के रूप में हैं, फिर मुझे ज्ञान कैसे होगा की अयोध्या नगरी कहा से शुरू होती है,क्षेत्रफल कितना होगा और किस स्थान पर कौन सा तीर्थ है ॥

इस संशय का निवारण करते हुए तीर्थराज प्रयाग ने कहा की यहाँ से आधे योजन की दूरी पर मणिपर्वत है,उसके ठीक दक्षिण चौथाई योजन के अर्धभाग में गवाक्ष कुण्ड है उस गवाक्ष कुण्ड से पश्चिम तट से सटा हुआ एक रामनामी बृक्ष है,यह वृक्ष अयोध्या की परिधि नापने के लिए ब्रम्हा जी ने लगाया था। सैकड़ो वर्षों से यह वृक्ष उपस्थित है वहा। उसी वृक्ष के पश्चिम ठीक एक मिल की दूरी पर एक मणिपर्वत है। मणिपर्वत के पश्चिम सटा हुआ गणेशकुण्ड नाम का एक सरोवर है,उसके ऊपर शेष भगवान का एक मंदिर बना हुआ है (ज्ञातव्य है की अब इस स्थान पर अयोध्या में शीश पैगम्बर नाम की एक मस्जिद है जिसे सन १६७५ में औरंगजेब ने शेष भगवान के मंदिर को गिरा कर बनवाया था ). शेष भगवान के मंदिर से ५०० धनुष पर ठीक वायव्य कोण पर भगवान श्री राम की जन्मभूमि है॥

रामनामी वृक्ष(यह वृक्ष अब सूखकर गिर चुका है) के एक मील के इर्द गिर्द एक नवप्रसूता गाय को ले कर घुमाओ जिस जगह वह गाय गोबर कर दे,वह स्थल मणिपर्वत है फिर वहा से ५०० धनुष नापकर उसी ओर गाय को ले जा के घुमाओ जहाँ उसके स्तनों से दूध की धारा गिरने लगे बस समझ लेना भगवान की जन्मभूमि वही है रामजन्मभूमि को सन्दर्भ मान के पुरानो में वर्णित क्रम के अनुसार तुम्हे समस्त तीर्थो का पता लग जायेगा,ऐसा करने से तुम श्री राम की कृपा के अधिकारी बनोगे यह कहकर तीर्थराज प्रयाग अदृश्य हो गए॥

रामनवमी के दिन पूर्ववर्णित क्रम में सम्राट विक्रमादित्य ने सर्वत्र नवप्रसूता गाय को घुमाया जन्म भूमि पर उसके स्तनों से अपने आप दूध गिरने लगा उस स्थान पर महाराजा विक्रमादित्य ने श्री राम जन्मभूमि के भव्य मंदिर का निर्माण करा दिया॥

ईसा की ग्यारहवी शताब्दी में कन्नोज नरेश जयचंद आया तो उसने मंदिर पर सम्राट विक्रमादित्य के प्रशस्ति को उखाड़कर अपना नाम लिखवा दिया। पानीपत के युद्ध के बाद जयचंद का भी अंत हो गया फिर भारतवर्ष पर लुटेरे मुसलमानों का आक्रमण शुरू हो गया। मुसलमान आक्रमणकारियों ने जी भर के जन्मभूमि को लूटा और पुजारियों की हत्या भी कर दी,मगर मंदिर से मुर्तिया हटाने और मंदिर को तोड़ने में वे सफल न हो सके॥ विभिन्न आक्रमणों के बाद भी सभी झंझावतो को झेलते हुए श्री राम की जन्मभूमि अयोध्या १४वीं शताब्दी तक बची रही॥ चौदहवी शताब्दी में हिन्दुस्थान पर मुगलों का अधिकार हो गया और उसके बाद ही रामजन्मभूमि एवं अयोध्या को पूर्णरूपेण इस्लामिक साँचे मे ढालने एवं सनातन धर्म के प्रतीक स्तंभो को जबरिया इस्लामिक ढांचे मे बदलने के कुत्सित प्रयास शुरू हो गए॥

 

 

 

महाराजा विक्रमादित्य ने श्री राम जन्मभूमि का पुनर्निर्माण तीर्थराज प्रयाग की आज्ञा अनुसार कराया चौदहवी शताब्दी तक विभिन्न आक्रमणों के बाद भी राम जन्मभूमि का अस्तित्व बचा रहा। हालाँकि आठवी शताब्दी से मुश्लिम लुटेरों का हिन्दुस्थान पर आक्रमण शुरू हो गया था मगर संगठित हिन्दू प्रतिरोध के कारण वो हिन्दुस्थान पर अधिकार नहीं कर पाए। १४ वी शताब्दी तक हिन्दुओं की शक्ति क्षय होने लगा और मुगलों का हिन्दुस्थान पर प्रभुत्त्व स्थापित होने लगा,हिन्दुस्थान मुग़ल आतताइयों के अधीन आया तो प्रथम शासक बाबर हुआ। बाबर दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ और उस समय जन्मभूमि महात्मा श्यामनन्द जी महाराज के अधिकार क्षेत्र में थी। महात्मा श्यामनन्द उच्च कोटि के ख्यातिप्राप्त सिद्ध महात्मा थे। इनका प्रताप चारो और फैला था और हिन्दुधर्म के मूल सिधान्तो के अनुसार महात्मा श्यामनन्द किसी भी प्रकार का भेदभाव किसी से नहीं रखते थे। यहाँ एक बार ध्यान देने योग्य बात ये है की जब जब हिन्दुधर्म के लोगो ने सहृदयता दिखाई है उसका खामियाजा आने वाले समय में पीढ़ियों को भुगतना पड़ा।

महात्मा श्यामनन्द की ख्याति सुनकर ख्वाजा कजल अब्बास मूसा आशिकान अयोध्या आये और महात्मा श्री महात्मा श्यामनन्द के साधक शिष्य हो गए। महात्मा जी के सानिध्य में ख्वाजा कजल अब्बास मूसा को रामजन्मभूमि का इतिहास एवं प्रभाव विदित हुआ और उनकी श्रद्धा जन्मभूमि में हो गयी। ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने महात्मा श्यामनन्द से आग्रह किया की उन्हें वो अपने जैसी दिव्य सिद्धियों को प्राप्त करने का मार्ग बताएं। महात्मा श्यामनन्द ने ख्वाजा कजल अब्बास मूसा से कहा की हिन्दू धर्म के अनुसार सिद्धि प्राप्ति करने के लिए तुम्हे योग की शिक्षा दी जाएगी, मगर वो तुम सिद्धि के स्तर तक नहीं कर पाओगे क्यूकी हिन्दुओं जैसी पवित्रता तुम नहीं रख पाओगे। अतः महात्मा श्यामनन्द ने ख्वाजा कजल अब्बास मूसा को रास्ता सुझाते हुए कहा की “तुम इस्लाम धर्म की शरियत के अनुसार ही अपने ही मन्त्र "लाइलाह इल्लिलाह" का नियमपूर्वक अनुष्ठान करो”। इस प्रकार मैं उन महान सिद्धियों को प्राप्त करने में तुम्हारी सहायता करूँगा। महात्मा श्यामनन्द के सानिध्य में बताये गए मार्ग से ख्वाजा कजल अब्बास मूसा ने सिद्धियाँ प्राप्त कर ली और उनका नाम भी महात्मा श्यामनन्द के ख्यातिप्राप्त शिष्यों में लिया जाने लगा। ये सुनकर जलालशाह नाम का एक फकीर भी महात्मा श्यामनन्द के सानिध्य में आया और सिद्धि प्राप्त करने के लिए ख्वाजा की तरह अनुष्ठान करने लगा।

जलालशाह एक कट्टर मुसलमान था, और उसको एक ही सनक थी, हर जगह इस्लाम का आधिपत्य साबित करना। जब जन्मभूमि की महिमा और प्रभाव को उसने देखा तो उसने अपनी लुटेरी मानसिकता दिखाते हुए उसने उस स्थान को खुर्द मक्का या छोटा मक्का साबित करने या यूँ कह लें उस रूप में स्थापित करने की कुत्सित आकांक्षा जाग उठी। जलालशाह ने ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के साथ मिलकर ये विचार किया की यदि इस मदिर को तोड़ कर मस्जिद बनवा दी जाये तो महात्मा श्यामनन्द की जगह हमे मिल जाएगी और चूकी अयोध्या की जन्मभूमि हिन्दुस्थान में हिन्दू आस्था का प्रतीक है तो यदि यहाँ जन्मभूमि पर मस्जिद बन गया तो इस्लाम का परचम हिन्दुस्थान में स्थायी हो जायेगा। धीरे धीरे जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा इस साजिश को अंजाम देने की तैयारियों में जुट गए ।

 

अब विवेचना के इस बिंदु पर उस समय के राजनैतिक परिदृश्य पर नजर डालना जरुरी हो जाता है। हमारे इतिहास में एक गलत बात बताई जाती है की मुगलों ने पुरे भारत पर राज्य किया, हाँ उन्होंने एक बड़े हिस्से को जीता था मगर सर्वदा उन्हें हिन्दू वीरो से प्रतिरोध करना पड़ा और कुछ जयचंदों के कारण उनकी जड़े गहरी हुई। उस समय उदयपुर के सिंहासन पर महाराणा संग्रामसिंह राज्य कर रहे थे जिनकी राजधानी चित्तौड़गढ़ थी। संग्रामसिंह को राणासाँगा के नाम से भी जाना जाता है । आगरे के पास फतेहपुर सीकरी में बाबर और राणासाँगा का भीषण युद्ध हुआ जिसमे बाबर घायल हो कर भाग निकला और अयोध्या आ के जलालशाह की शरण ली(ज्ञात रहे तब तक जलालशाह और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के सिद्धि की धाक आस पर के क्षेत्रों में महात्मा श्यामनन्द के सिद्धि प्राप्त साधकों के रूप में जम चूकी थी)। इसी समय जलालशाह ने बाबर पर अपना प्रभाव किया और बड़ी सेना ले कर युद्ध करने का आशीर्वाद दिया।बाबर ने राणासाँगा की ३० हजार सैनिको की सेना के सामने अपने ६ लाख सैनिको की सेना के साथ धावा बोल दिया और इस युद्ध में राणासाँगा की हार हुई । युद्ध के बाद राणासाँगा के ६०० और बाबर की सेना के ९०,००० सैनिक जीवित बचे ।

इस युद्ध में विजय पा के बाबर फिर अयोध्या आया और जलालशाह से मिला,जलालशाह ने बाबर को अपनीं सिद्धी का भय और इस्लाम के आधिपत्य की बात बताकर अपनी योजना बताई और ख्वाजा कजल अब्बास मूसा के समर्थन की बात कही । बाबर ने अपने वजीर मीरबाँकी खा को ये काम पूरा करने का आदेश दिया और खुद दिल्ली चला गया। अब जलालशाह ने अयोध्या को खुर्द मक्का के रूप में स्थापित करने के अपने कुत्सित प्रयासों को आगे बढ़ाना शुरू किया। सर्वप्रथम प्राचीन इस्लामिक ढर्रे की लम्बी लम्बी कब्रों को बनवाया गया,दूर दूर से मुसलमानों के शव अयोध्या लाये जाने लगे। पुरे भारतवर्ष में ये बात फ़ैल गयी और भगवान राम की अयोध्या को खुर्द मक्का बनाने के लिए कब्रों से पाट दिया गया॥ अब भी उनमे से कुछ अयोध्या में अयोध्या नरेश के महल के निकट कब्रों या मजारो के रूप में मिल जाएँगी।

 

अब जलालशाह ने मीरबाँकी खां के माध्यम से मंदिर के विध्वंस का कार्यक्रम बनाया जिसमे ख्वाजा कजल अब्बास मूसा भी शामिल हो गए । बाबा श्यामनन्द जी अपने सड़क मुस्लिम शिष्यों की करतूत देख के बहुत दुखी हुए और अपने निर्णय पर उन्हें बहुत पछतावा हुआ। भगवान का मंदिर तोड़ने की योजना के एक दिन पूर्व दुखी मन से बाबा श्यामनन्द जी ने रामलला की मूर्तियाँ सरयू में प्रवाहित किया और खुद हिमालय की और तपस्या करने चले गए। मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के अन्य सामान आदि हटा लिए और वे स्वयं मंदिर के द्वार पर खड़े हो गए उन्होंने कहा की रामलला के मंदिर में किसी का भी प्रवेश हमारी मृत्यु के बाद ही होगा। जलालशाह की आज्ञा के अनुसार उन चारो पुजारियों के सर काट लिए गए. उसके बाद तो देशभर के हिन्दू राम जन्मभूमि के कवच बन कर खड़े हो गए ॥इतिहासकार कनिंघम अपने लखनऊ गजेटियर के 66वें अंक के पृष्ठ 3 पर लिखता है की एक लाख चौहतर हजार हिंदुओं की लाशे गिर जाने के पश्चात मीरबाँकी अपने मंदिर ध्वस्त करने के अभियान मे सफल हुआ और उसके बाद जन्मभूमि के चारो और तोप लगवाकर मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया.. ज्ञातव्य रहे की मंदिर को बचने के लिए ये युद्ध भीटी के राजा, राजा महताब सिंह ने लड़ा था और वीर गति को प्राप्त हुए एवं विवादित ढांचे का निर्माण किस प्रकार हुआ (जिसे कुछ भाई बाबरी मस्जिद का नाम भी देते हैं) इसका विस्तृत विवरण मैं अगली पोस्टों में दूंगा..

सन्दर्भ:प्राचीन भारत, लखनऊ गजेटियर, लाट राजस्थान,रामजन्मभूमि का इतिहास(आर जी पाण्डेय),अयोध्या का इतिहास(लाला सीताराम),बाबरनामा