पुस्तक-परिचय


एक ऐतिहासिक रचना

अयोध्या-गाथा

आर्य बुक डिपो ने हाल ही में "अयोध्या का इतिहास' पुस्तक पुन: प्रकाशित की है। यह पुस्तक पहले 1932 में प्रकाशित हुई थी। साहित्यरत्न हिन्दी सुधाकर रायबहादुर श्री अवधवासी लाला सीताराम, बी.ए. ने बहुत श्रद्धा और ऐतिहासिक दृष्टि से खोजपूर्ण यह इतिहास लिखा है। इस पुस्तक की भूमिका प्रख्यात इतिहासकार एवं अयोध्या विशेषज्ञ श्री देवेन्द्र स्वरूप ने लिखी है। पुस्तक के अंश पढ़ने से पहले उसका परिचय अर्थात् महात्मय जानना आवश्यक है, इसीलिए श्री देवेन्द्र पुस्तक-परिचय

पुस्तक का नाम : अयोध्या का इतिहास

संकलन : रायबहादुर लाला सीताराम

पृष्ठ संख्या : 212

मूल्य : रु.250/-

प्रकाशक : आर्य बुक डिपो

30, नाईवाला, करोल बाग,

नई दिल्ली-110005

स्वरूप ने पुस्तक की भूमिका में पुस्तक के लेखक एवं पुस्तक के बारे में जो बताया है, वह हम पहले उद्धृत कर रहे हैं। उसके पश्चात् आप पुस्तक के कुछ अंशों का क्रमश: आस्वाद प्राप्त कर सकेंगे।-सं.

अयोध्या अति प्राचीनकाल से भारतवासियों का श्रद्धाकेन्द्र रही है। पुराणों में जिन सात मोक्षदायी नगरों को गिनाया जाता है, उनमें अयोध्या को प्रथम स्थान दिया गया है। भारतभूमि में उपजे लगभग सभी प्रमुख उपासना पंथों ने अयोध्या को अपने पवित्र तीर्थ के रूप में देखा है। बौद्ध मतावलंबी अयोध्या को भगवान बुद्ध की लीलास्थली के रूप में देखते हैं। यहीं उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण सूक्तों (सुत्तों) का प्रवचन किया। जैनियों का वि·श्वास है कि उनके पहले तीर्थंकर ऋषभदेव जी (आदिनाथ) और अन्य चार तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या में हुआ था। उनके 24 तीर्थंकरों में से 22 इक्ष्वाकुवंशी थे और अयोध्या को ही इक्ष्वाकुवंशी की राजधानी कहलाने का गौरव प्राप्त है। भारतीय स्मृति में न जाने कब से अयोध्या नगरी राम की जन्मभूमि के रूप में जीवित है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम की जीवन लीला ने भारत की सभी भाषाओं, सभी पंथों एवं सुदूर दक्षिण-पूर्वी एशिया तक फैले सभी क्षेत्रों को अनुप्राणित किया है। अब से 400 वर्ष पूर्व सम्राट अकबर के मंत्री अबुल फजल ने अपनी प्रसिद्ध रचना "आईने अकबरी' में तीन स्थलों पर अयोध्या की महिमा का वर्णन किया है। वह लिखता है कि "अति प्राचीनकाल से अयोध्या को पवित्रतम तीर्थ के रूप में देखा गया। यहां त्रेतायुग में जन्मे श्री रामचंद्र ने वास किया था। रामचंद्रजी का व्यक्तित्व आध्यात्मिक एवं राजसिक शक्तियों का पुंज था।' स्वाधीन भारत में श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन के कारण अयोध्या का नाम भारत में तो बच्चे-बच्चे की जुबान पर है ही, वि·श्व भर में चर्चित हो गया है।

ऐसी स्थिति में क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि सन् 1932 में अवधवासी लाला सीताराम बी.ए. द्वारा संकलित एवं हिन्दुस्तानी एकेडेमी, प्रयाग द्वारा प्रकाशित "अयोध्या का इतिहास' के प्रकाशन के पूर्व भारतीय भाषाओं में इस ऐतिहासिक तीर्थ नगरी का कोई भी क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध नहीं था? यह सच है कि सन् 1856 में अवध पर अंग्रेजों का अधिकार स्थापित होने के पश्चात् पेट्रिक कारनेगी नामक एक अंग्रेज अधिकारी ने, जिसे फैजाबाद जिले का राजस्व सर्वेक्षण एवं बंदोवस्त करने का दायित्व सौंपा गया था, अयोध्या के महत्व को पहचानकर उसके इतिहास को टटोलने की कोशिश की थी। कारनेगी की परिश्रमपूर्ण खोज का परिणाम 1870 में "A Historical Sketch of Tehsil Fyzabad, Zillah Fyzabad including Paraganas Haveli Oudh and Pachhim Rath with the old capitals-Ajudhia and Fyzabad' शीर्षक से लखनऊ से प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक से प्रभावित होकर सन् 1877 में प्रकाशित अवध गजेटियर के सम्पादक ने भी कारनेगी को गजेटियर में अयोध्या सम्बंधी अध्याय लिखने के लिए आमंत्रित किया था।

किन्तु लाला सीताराम का "अयोध्या का इतिहास' कारनेगी के खोजपूर्ण प्रयास से बिल्कुल भिन्न धरातल पर लिखा गया है। कारनेगी का प्रयास उनके सरकारी दायित्व का हिस्सा था। विदेशी होने के कारण अयोध्या के प्रति उनके मन में न तो श्रद्धा का भाव था, न अपनत्व का। प्राचीन भारतीय भाषाओं एवं वाङ्मय से अपरिचित होने के कारण वह अयोध्या के इतिहास को अपने में समेटने वाली मौखिक परंपरा तथा लिखित स्रोत सामग्री में गहरा गोता लगाने में असमर्थ था। इसके विपरीत लाला सीताराम अयोध्या में जन्मे थे, अयोध्या के प्रति अपनत्व और श्रद्धा का भाव उनके अंत:करण में बहुत गहरा था, स्वयं को अवधवासी कहने में वे गर्व अनुभव करते थे। अयोध्या के अधिष्ठात देव श्री रामचंद्र को सीताराम जी ने अपने आराध्य सिंहासन पर बैठाया था। अपनी रामभक्ति का वर्णन करते हुए उन्होंने कल्याण (मासिक) के 1932 में "ई·श्वर अंक' में स्वयं लिखा है, "हमने अपने मकान में एक कमरा रामायण-मंदिर बना रखा है। उसमें अनेक प्रकार के रामायण-ग्रंथ और रामचरित सम्बंधी चित्र हैं। हम उसी में रहते हैं। चौकी के सामने श्री राम-जानकी का एक सुंदर चित्र लगा हुआ है। उसके दर्शन से लोचन तृप्त रहते हैं।'

"अयोध्या का इतिहास' लिखते समय उनका जो मनोभाव था वह उस ग्रंथ के आरम्भ में प्रकाशित "वक्तव्य' की इन अंतिम पंक्तियों में प्रकट हो जाता है-

"धरि हिय सिय रघुबीर पद, विरच्यो मति अनुरूप।

अवधपुरी इतिहास यह अवधनिवासी भूप।।'

"अवधनिवासी भूप' को उन्होंने अपने उपनाम की तरह धारण कर लिया था। इसलिए अयोध्या के इतिहास की खोज लाला सीताराम के लिए अर्थार्जन का व्यावसायिक धंधा होने के बजाय अंतरतम की श्रद्धा का विषय था। जब तक विषय के साथ अपनत्व और सहानुभूति न हो तब तक उसके प्रति पूरी तरह न्याय कर पाना संभव नहीं है। इसलिए लाला सीताराम द्वारा लिखित "अयोध्या का इतिहास' अपने समय का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ बन गया।

"अयोध्या का इतिहास' लाला सीताराम के लम्बे जीवन के अंतिम चरण की परिपक्व रचना है। एक श्रद्धालु वैष्णव श्रीवास्तव्य परिवार में, जो स्वयं को महाराजा दशरथ के सारथि सुमंत का वंशज मानता है, सन् 1861 में जन्मे लाला सीताराम अपूर्व मेधा के धनी थे। 1879 में बी.ए. की परीक्षा में उन्होंने समूचे कलकत्ता वि·श्वविद्यालय में प्रथम स्थान पाकर नया कीर्तिमान स्थापित किया। अंग्रेजी भाषा पर असामान्य अधिकार अर्जित किया। उर्दू शायरी के क्षेत्र में नाम कमाया। आगे चलकर संस्कृत और हिन्दी भाषा के सिद्धहस्त लेखक बन गए। 1937 में अपनी मृत्यु के पूर्व वे उर्दू, अंग्रेजी, संस्कृत और हिन्दी के लेखक के रूप में स्थापित हो चुके थे। अनेक भाषाओं में, अनेक विषयों पर उनकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हो चुकी थीं। केवल 19 वर्ष की अल्पायु में उन्हें सीतापुर गवर्नमेंट हाईस्कूल का प्रधानाचार्य नियुक्त किया गया जो उस युग में बहुत बड़ी बात थी। लम्बे शैक्षणिक जीवन के बाद वे प्रशासकीय अधिकारी बने और डिप्टी कलेक्टर के पद से सेवानिवृत्त हुए। शिक्षा, प्रशासन और साहित्य के क्षेत्र में उनकी उपलब्धियों के कारण ब्रिटिश सरकार ने उन्हें "रायबहादुर' की पदवी से सम्मानित किया।

जीवन के अंतिम चरण में "अयोध्या का इतिहास' लिखने के पीछे लाला सीताराम की प्रेरणा क्या थी, इसके संकेत उस पुस्तक में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। उस युग के प्रत्येक अयोध्यावासी का यह वि·श्वास था कि श्रीराम जन्मभूमि पर निर्मित प्राचीन मंदिर का विध्वंस करके मुगल सम्राट बाबर ने वहां मस्जिद का निर्माण कराया था। लाला सीताराम ने बहुत विस्तार से मंदिर विध्वंस का वर्णन किया है। उनका कहना है कि दो मुस्लिम फकीरों "मूसा आशिकान' और "फजल अब्बस कलंदर' के आग्रह पर बाबर ने मीरबाकी ताशकंदी को जन्मस्थान मंदिर को तुड़वा कर मस्जिद बनवाने का आदेश दिया था। इस तथ्य के समर्थन से उन्होंने महात्मा बालक राम विनायक कृत "कनक भवन रहस्य' नामक पुस्तक तथा एक मुस्लिम स्रोत "तारीख पारीना मदनतुल औलिया' का उल्लेख भी किया है। लाला सीताराम की पीड़ा है कि यदि अब तक वह मंदिर विद्यमान रहता तो उससे न जाने कैसे-कैसे ऐतिहासिक वृत्तांतों का पता लगता। (पृ. 29)

विध्वंसित श्रीराम-जन्मस्थान मंदिर के निर्माण का इतिहास खोजने का भी लाला सीताराम ने प्रयास किया है। उनके अनुसार इस मंदिर का निर्माण विक्रमादित्य ने कराया था। पर वह विक्रमादित्य कौन था? क्या वह ईसापूर्व 57 में विक्रमी संवत का प्रवर्तक था? या चौथी शताब्दी ईस्वी का गुप्त राजा चंद्रगुप्त द्वितीय? इस बारे में वे किसी अंतिम निर्णय पर नहीं पहुंचे हैं। एक जगह वे विक्रमादित्य का समय 57ई. पूर्व देते हैं तो दूसरी जगह उसे चौथी शताब्दी का चंद्रगुप्त द्वितीय बताते हैं। जन्मस्थान के विषय में वे एक महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं कि इस स्थान को "यज्ञवेदी' भी कहते थे ओर "हम अपने बचपन में वहां से जले हुए चावल के दाने खोद-खोदकर लाते थे। संभवत: ये चावल विक्रमादित्य के यज्ञ-शेष ही रहे होंगे।' वे लिखते हैं कि "विक्रमादित्य ने फिर से यज्ञ कराकर इस स्थान को पवित्र किया था।'

6 दिसम्बर,1992 को बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद उसके मलवे में से बारहवीं शताब्दी की नागरी लिपि में 20 पंक्तियों के संस्कृत शिलालेख की दैवी प्राप्ति से अब यह अकाट्य समकालीन प्रमाण मिल गया है कि जिस जन्मस्थान मंदिर का बाबर ने 1528 ई. में विध्वंस कराया था, उसका निर्माण गहडवाल राजा गोविंद चंद्र के शासनकाल (1114 से 1154 ई.) में हुआ था। बाबरी ढांचे के बारे में लाला सीताराम एक बड़ी महत्वपूर्ण जानकारी देते हैं। वे लिखते हैं कि "रामचंद्र जी के पुराने मंदिर में थोड़ा ही हेर-फेर हुआ है। मस्जिद में जो मध्य का गुंबद है वह प्राचीन मंदिर का ही मालूम होता है और बहुत से स्तंभ ज्यों के त्यों खड़े हैं। ये सुदृढ़ काली कसौटी के पत्थर के बने हैं।' (पृ. 36-37 एवं पृ. 116) वे लिखते हैं कि "बहुत थोड़े ही तोड़-फोड़ से मंदिर की मस्जिद बन गई।'

लाला सीताराम की पुस्तक सन् 1932 में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद 1934 में अयोध्या में बड़ा हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष हुआ था, जिसमें वैरागियों के नेतृत्व में हिन्दुओं की विशाल भीड़ ने बाबरी ढांचे पर आक्रमण कर दिया था और उसके शिखरों को बहुत क्षति पहुंचाई थी। जिसके कारण ब्रिटिश सरकार ने मस्जिद के गुम्बदों का नए सिरे से निर्माण कराया था। उस पुनर्निर्माण के समय इस ढांचे के गुंबदों का रूप हिन्दू शिखर से बदलकर गोलनुमा कर दिया गया है। इस तथ्य की पुष्टि इससे होती है कि 6 दिसम्बर,1992 को जब वह ढांचा ढहाया गया तो गुंबदों में इस्तेमाल की गई ईंटों पर 1930 खुदा मिला। यह तथ्य उस समय समाचारपत्रों में ईंटों के चित्रों के साथ प्रकाशित हुआ था।

वस्तुत: जन्मस्थान मंदिर के विध्वंस की पीड़ा हिन्दू अंत:करण में गहरी व्याप्त थी और इस पीड़ा को लाला सीताराम स्थान-स्थान पर मुखरित करते हैं।

अगले अंक में इस पुस्तक के कुछ अंश प्रकाशित किए जाएंगे।