देवोत्थान एकादशी - श्री तुलसी शालिग्राम विवाह उत्सव....

 

जिन दंपत्तियों के संतान नहीं होती, अथवा जिनके यहाँ कन्या नहीं होती उनको जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करना चाहिए।

 

तुलसी विवाह करने से कन्यादान के समान पुण्य-फल की प्राप्ति होती है।

 

कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी देवोत्थान, तुलसी शालिग्राम विवाह एवं भीष्म पंचक एकादशी के रूप में मनाई जाती है।

 

दीपावली के बाद आने वाली कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थान एकादशी, देवउठनी एकादशी, देवउठान एकादशी, देवउठनी ग्यारस अथवा प्रबोधिनी एकादशी आदि नाम से भी जाना जाता है।

 

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को तुलसी पूजन एवं तुलसी विवाह का उत्सव पूरे भारत वर्ष में मनाया जाता है।

 

कहा जाता है कि कार्तिक मास मे जो मनुष्य तुलसी का विवाह भगवान से करते हैं, उनके पिछलों जन्मो के सब पाप नष्ट हो जाते हैं।

 

शास्त्रों में वर्णित है कि आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की एकादशी देवशयनी एकादशी से भगवान विष्णु चार मास तक क्षीरसागर में शयन करते हैं और कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को जागते हैं।

 

संसार के पालनहार श्रीहरि विष्णु को समस्त मांगलिक कार्यों में साक्षी माना जाता है।

 

परन्तु इनकी निद्रावस्था(चातुर्मास) में विवाह आदि शुभ कार्य बंद कर दिया जाता है।

 

इसलिए हिंदुओं के समस्त शुभ कार्य भगवान विष्णु के जाग्रत अवस्था में संपन्न करने का विधान धर्मशास्त्रों में वर्णित है।

 

भगवान विष्णु के जागने का दिन है देवोत्थान एकादशी।

 

इसी दिन से सभी शुभ कार्य विवाह, उपनयन आदि शुभ मुहूर्त देखकर प्रारंभ किए जाते हैं।

 

आषाढ़ से कार्तिक तक के समय को चातुर्मास कहते हैं, इन चार महीनों में भगवान विष्णु क्षीरसागर की अनंत शैय्या पर शयन करते हैं, इसलिए कृषि के अलावा विवाह आदि शुभ कार्य इस समय तक बंद रहते हैं।

 

धार्मिक दृष्टिकोण से ये चार मास भगवान की निद्राकाल का माना जाता है।

 

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्य के मिथुन राशि में आने पर भगवान श्री हरि विष्णु शयन करते हैं और तुला राशि में सूर्य के जाने पर भगवान शयन कर उठते हैं।

 

भगवान जब सोते हैं, तो चारों वर्ण की विवाह, यज्ञ आदि सभी क्रियाएं संपादित नहीं होती।

 

यज्ञोपवीतादि संस्कार, विवाह, दीक्षा ग्रहण, यज्ञ, नूतन गृह प्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म हैं, वे चातुर्मास में त्याज्य माने गए हैं।

 

आषाढ शुक्ल एकादशी को देव-शयन हो जाने के बाद से प्रारम्भ हुए चातुर्मास का समापन तक शुक्ल एकादशी के दिन देवोत्थान-उत्सव होने पर होता है।

 

इस दिन वैष्णव ही नहीं, स्मार्त श्रद्धालु भी बडी आस्था के साथ व्रत करते हैं।

 

भगवान विष्णु के स्वरुप शालिग्राम और माता तुलसी के मिलन का पर्व तुलसी विवाह हिन्दू पंचांग केअनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाया जाता है।

 

पद्मपुराण के पौराणिक कथानुसार राजा जालंधर की पत्नी वृंदा के श्राप से भगवान विष्णु पत्थर बन गए, जिस कारणवश प्रभु को शालिग्राम भी कहा जाता है, और भक्तगण इस रूप में भी उनकी पूजा करते हैं।

 

इसी श्राप से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु को अपने शालिग्राम स्वरुप में तुलसी से विवाह करना पड़ा था और उसी समय से कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को तुलसी विवाह का उत्सव मनाया जाता है।

 

प्राचीन ग्रंथों के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी को तुलसी की स्थापना की जाती है और एकादशी के दिन भगवान विष्णु की प्रतिमा बनाकर उनका विवाह तुलसी जी से किया जाता है।

 

देवोत्थान एकादशी के दिन मनाया जाने वाला तुलसी विवाह विशुद्ध मांगलिक और आध्यात्मिक प्रसंग है।

 

दरअसल, तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहते हैं।

 

देवता जब जागते हैं, तो सबसे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं।

 

इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का आयोजन माना जाता है।

 

तुलसी विवाह का सीधा अर्थ है, तुलसी के माध्यम से भगवान का आहवान।

 

कुछ लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पाँचवें दिन तुलसी विवाह करते हैं। 

 

आयोजन बिल्कुल वैसा ही होता है, जैसे हिन्दू रीति-रिवाज से सामान्य वर-वधु का विवाह किया जाता है।

 

देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन मनाए जानेवाले इस मांगलिक प्रसंग के सुअवसर पर सनातन धर्मावलम्बी घर की साफ़-सफाई करते हैं और

रंगोली सजाते हैं।

 

शाम के समय तुलसी चौरा के पास गन्ने का भव्य मंडप बनाकर उसमें साक्षात् नारायण स्वरुप शालिग्राम की मूर्ति रखते हैं और फिर विधि- विधानपूर्वक उनके विवाह को संपन्न कराते हैं।

 

मंडप, वर पूजा, कन्यादान, हवन और फिर प्रीति-भोज, सब कुछ पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ निभाया जाता है।

 

इस विवाह में शालिग्राम वर और तुलसी कन्या की भूमिका में होती है।

 

इस दिन तुलसी के पौधे को यानी वधु को लाल चुनरी-ओढ़नी ओढ़ाई जाती है।

तुलसी विवाह में सोलह श्रृंगार के सभी सामान चढ़ावे के लिए रखे जाते हैं।

 

शालिग्राम जी को दोनों हाथों में लेकर यजमान

वर के रूप में यानी भगवान विष्णु के रूप में और यजमान की पत्नी तुलसी के पौधे को दोनों हाथों में लेकर अग्नि के सात फेरे लेते हैं। 

विवाह के पश्चात प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है। 

 

जिन दंपत्तियों के संतान नहीं होती, अथवा जिनके यहाँ कन्या नहीं होती उनको जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य अवश्य प्राप्त करना चाहिए।

 

तुलसी विवाह करने से कन्यादान के समान पुण्यफल की प्राप्ति होती है।

 

कार्तिक शुक्ल एकादशी पर तुलसी विवाह का विधिवत पूजन करने से भक्तों की सभी मनोकामना पूर्ण होती हैं।

 

हमारे सनातन संस्कार अनुसार तुलसी को देवी रुप में हर घर में पूजा जाता है।

इसकी नियमित पूजा से व्यक्ति को पापों से मुक्ति तथा पुण्य फल में वृद्धि मिलती है।

 

तुलसी बहुत पवित्र है और सभी पूजाओं में देवी तथा देवताओं को अर्पित की जाती है। 

 

सभी कार्यों में तुलसी का पत्ता अनिवार्य माना गया है।

 

प्रतिदिन तुलसी में जल देना तथा उसकी पूजा करना अनिवार्य माना गया है।

 

तुलसी घर-आँगन के वातावरण को सुखमय तथा स्वास्थ्यवर्धक बनाती है।

 

हमारे शास्त्रों में तुलसी के पौधे को पवित्र और पूजनीय माना गया है, तुलसी की नियमित पूजा से हमें सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

 

तुलसी विवाह के सुअवसर पर व्रत रखने का बड़ा ही महत्व है, इस दिन श्रद्धा-भक्ति और विधिपूर्वक व्रत करने से व्रती के इस जन्म के साथ-साथ पूर्वजन्म के भी सारे पाप मिट जाते हैं और उसे पुण्य की प्राप्ति होती है। Share...