‬: अब इंदिरा गांधी इंटरनेशल एयरपोर्ट का नाम भी बदला जाए

मोदी जी फुल तेयारी करके आए है नेहरु खानदान के नामो निशान मिटाने की.‬: देश की जनता जानना चाहती है की नेताजी के द्वारा इकठे किये गए रूपये जिसको अंग्रेजो के खिलाफ इस्तेमाल होना था,वो नेहरू के पास कैसे पहुंचे और उसी समय नेताजी कैसे गायब हुए‬: अपनी उम्र के छह दशक पूरा कर चुका एक शख्स 125 करोड़ हिंदुस्तानियों का रहनुमा बन जाता है। 4 घंटे सोता है, एक पैर से दुनिया नाप देता है, इससे मिलता है उससे मिलता है सबसे मिलता है। 67 साल से सोये हुए गूंगे और बहरे लोगो को नींद से जगा देता है॰ पर उसे इस बात का अंदाज़ा ही नहीं की ये थके-हारे लोग हैं, ये मरे हुए लोग हैं। जो उन्हे 67 साल मे नहीं मिला उन्हें वही सुबह-सुबह बेड-टी के साथ चाहिए।

आपने बिलकुल सही अंदाज़ा लगाया, ये मोदी की ही बात चल रही है। पिछले 14 महीने से दुनिया के हर बड़े मुल्क मे सिर्फ इसी शख्स की चर्चा है। आप उसकी यात्रा के खर्चे जोड़ें या किलोमीटर यात्राओं का हिसाब लगाएं, अगर आपके मुल्क ने दुनिया के हर कोने में दस्तक दी है, तो उसका श्रेय उसे देना बनता ही है॰ वरना आपको लोग बस कश्मीर, ताजमहल और निर्भया के लिए ही याद करते हैं॰ दुनिया का हर बड़ा छोटा मुल्क और उसको चलाने वाले आज मोदी स्टाइल के मुरीद हैं। पैसे वाले उद्योगपति हो या राज करने वाले नेता, सब टीम मोदी और उनके विज़न के कायल हैं।

नरेंद्र मोदी हिंदुस्तान के उन चुनिन्दा सांसदों में से हैं, जिन्हे एक साथ एमपी और पीएम बनने का सौभाग्य नसीब हुआ। उन्हें दिल्ली की राजनीति और उसके अंदरखाने दाव-पेंचों का बिलकुल ज्ञान नहीं था, एक बेहद ही गरीब तबके से चला इंसान देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर नशी हुआ, उसने पिछली सरकारों की सदियों पुरानी रवायतों को बदलने का वादा किया और सपना दिखाया, और लोगों ने इस सपने को हाथों-हाथ लिया।

पीएमओ के नये सरताज ने आते ही 6 महीने के भीतर ही जाने कितनी योजनाओं की दूकान सजा दी, और रास्ते खोल दिए। पर मुश्किलें तो अब शुरू हुई थीं। दिल्ली की हार और 10-लाख के सूट का झंझट नए साल मे उसे गले लगाने को बेताब था। खुद को बिज़नेस फ्रेंडली दिखाने की अति महत्वाकांक्षा ने उन्हे बैकफुट पर धकेल दिया।

कम बारिश और किसानों की खुदकुशी ने उसके चेहरे की शिकन को और गहरा कर दिया। उसके लैंड बिल को भी किसानों के खिलाफ बताकर उसे हराने की कोशिश होती रही और कमाल देखिए उस पर एंटी- किसान होने का तंज़ उस पार्टी ने कसा जिसने 67 साल में किसानों को कही का नहीं छोड़ा। पर वो मोदी ही क्या जो मैदान छोड़ दे। मोदी ने अपने जज्बे को वापस समेट कर पलटवार का बिगुल फूंक ही दिया।

सरकार ने अपना लैंड बिल वापस ले लिया क्योंकि उसे पता था कांग्रेस उसे पास नहीं होने देगी। नई लैंड पॉलिसी का जिम्मा उसने राज्य सरकारों को देकर कांग्रेस के गुरिल्ला युद्ध का तोड़ निकाल ही दिया, विपक्ष के शोरगुल वाली नीति का जवाब उसने अपने फेडरल विज़न से देने का इरादा कर लिया।

अभी बस थोड़ा ही वक़्त गुज़रा है और हमे एक सशक्त प्रधानमंत्री के होने के एहसास होने लगा है। किसी को आते ही सुपरमैन समझ लेना जल्दबाज़ी होती है और जनता किसी भी देश की हो जल्दबाज़ ही होती है, सब्र तो उसने सीखा ही नहीं होता।

भारत जैसे वृहद लोकतंत्र में चीजें मुश्किल है और पूरा होने मे समय लेती हैं। मोदी दिल्ली की राजनीति के लिए नये हैं और अभी सीख रहे हैं। उनका लैंड बिल का वापस लेना साबित करता है, कि वे जल्दी सीखने वाले शख्स हैं, लेकिन, आज की तारीख में उन्हें एक तेज़ तर्रार सलाहकार चाहिए जो उन्हें एफटीआईआई और वन रंक वन पेंशन जैसी बिन बुलाई मुसीबतों से आगाह करे।

15 महीनों का उनका अब तक का राज़काज देश को ये संदेश देने लगा है की वो एक मॉडरेट-कंजर्वेटिव प्रशासक हैं। वो संवैधानिक संस्थाओं के मूल आधार में किसी परिवर्तन के पक्षधर नहीं है, पर चाहते हैं कि वो संस्थाएं और बेहतर काम करें। वे एक जुनूनी दक्षिणपंथी सुधारक की छवि वाले नेता नहीं है और उद्योगों के निजीकरण का कभी पक्ष नहीं लेते। वो बस यही चाहते हैं कि सार्वजनिक उपक्रम और बेहतर काम करें और ये तभी हो सकता है जब अधिकारी काम करें।

आप धीरज धरिए, आप लालू राज में नहीं हैं, मोदी राज में हैं। आपका देश दुनिया की सबसे तेज़ बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है। मुद्रास्फीति की दर सबसे कम है और कारोबार करना आसान होने लगा है। अच्छे दिनों की आहट ऐसी ही तो होती है।